एक कहानी रोज़-66
*सच्चा दुकानदार-एकांकी*
(एक किराना दुकान का दृश्य। दो व्यापारियों का वार्तालाप)
हनुमान प्रसाद: "आईये! आईये! जगन सेठ! आज यहां का रास्ता कैसे भुल गये?" हनुमान प्रसाद बोले।
जगन सेठ: "यहां से गुजर रहा था! सोचा! आपसे मिलता चलूं?" जगन सेठ बोले।
हनुमान प्रसाद : "ये भली कहीं आपने। आईये आपका हमारी छोटी सी किराना दुकान में स्वागत है!" हनुमान प्रसाद हाथ जोड़कर बोले।
(उन्होंने अपनी दुकान के कर्मचारी रवि को आवाज़ लगायी)
"बेटा रवि! देखो जरा! हमारे दुकान पर कौन आये है! ये जगन सेठ है। शहर के प्रसिद्ध किराना व्यापारी। नुक्कड़ के पास ही चौक पर जगन सेठ की बहूत बड़ी आलीशान किराना दुकान है!"
रवि: "जगन सेठ को कौन नहीं जानता मालिक! नमस्कार सेठ जी!"
जगन सेठ: "हांss हांss नमस्ते-नमस्ते!" (रवि को हेय दृष्टी से देखता है)
हनुमान प्रसाद: "अरे! तो जाओ भाई! इनके लिए चाय नाश्ते का प्रबंध करो।"
रवि: "जी मालिक!" (रवि जाता है)
जगन सेठ: "आपने दुकान के नोकरों को बड़ा मुंह चढ़ा रखा है!"
हनुमान प्रसाद: "जगन सेठ! मैं इन्हें नौकर नहीं समझता। जिस तरह मैं यहाँ काम कर रहा हूं वैसे ही ये लोग भी यहाँ काम करते है।"
जगन सेठ: "अरे वाह! आप और इन लोगों में कोई फर्क नहीं है क्या?"
हनुमान प्रसाद: "अवश्य है। मैं दुकानदार हूं और ये सब मेरे यहां काम करने वाले कर्मचारी!"
(जगन सेठ मुंह बनाता है। हनुमान प्रसाद के चेहरे पर अब भी मुस्कुराहट तैर रही थी।)
जगन सेठ: "कुछ भी हो हनुमान जी! आपके चेहरे पर मुस्कान हमेशा बनी रहती है। अब मुझे ही देख लो। पिछली बार कब हंसा था पता ही नहीं।"
हनुमान प्रसाद: "क्यों? इतनी चिंता क्यों करते हो?"
जगन सेठ: "व्यापार महाराज व्यापार! हर रोज़ इतनी परेशानी झेलता हूं की हंसना तो दूर खाना-पीना भी भूल जाता हूं।"
हनुमान प्रसाद: "ये तो सही नहीं है। व्यापार तो एक पुजा है। और पुजा करने से मन हल्का होता है न की भारी।"
जगन सेठ: "आपकी बातें बड़ी रोचक होती है। इसीलिए आज मन किया आपसे मिल आऊं!"
हनुमान प्रसाद: "अर्थात आप यहां से गुजर नहीं रहे थे। बल्कि मुझी से मिलने आये है।"
(जगन सेठ बगल झांकने लगे)
हनुमान प्रसाद: "कोई बात नही! जगन सेठ। बहाना कोई भी हो! लेकिन आपने मुझसे मिलने का समय निकाला, ये बात मुझे बहुत अच्छी लगी। व्यापार-व्यवसाय में हम लोग इतने उलझे हुये है कि एक-दुसरे से मिलने का समय ही नहीं निकाल पाते।"
(रवि चाय की ट्रे लेकर मेज़ पर रख देता है। दुकान पर कुछ ग्राहक खड़े थे। जो अपनी आवश्यकता अनुसार किराना सामान खरिद रहे थे। रवि और बाकी के दो अन्य कर्मचारी ग्राहकों को सामान तोलकर (आदि) दे रहे थे। हनुमान प्रसाद काउंटर के पास ही बैठे हुये ग्राहकों से उनके किराना सामान के बिल अनुसार रूपयों का लेन-देन कर रहे थे।)
हरिश वर्मा (एक ग्राहक) : "हनुमान जी! ये लीजिए आपका पिछला उधार! पांच हजार रूपये है। बाकी के पांच सौ रूपये अगले महिने के बिल में जोड़कर दे दूंगा। (रूपये हनुमान प्रसाद को देता है)
हनुमान प्रसाद: "अरे वर्मा जी! रूपये कहाँ भागे रहे थे। दुकान आपकी अपनी है।"
(हनुमान प्रसाद हंसते हुये रूपये गिनते है)
हनुमान प्रसाद: "अरे वर्मा जी एक मिनीट! ये चाकलेट हमारी बिटियाँ पीहू के लिए।" (डेयरी मिल्क चॉकलेट देते है। हरीश वर्मा प्रसन्न होकर वहां से चले जाते है)
जगन सेठ: "हनुमान जी! ये क्या! सौ रूपये की चॉकलेट आपने उन्हें यूं ही मुफ्त में दे दी।"
हनुमान प्रसाद: "कमाया भी तो उन्हीं से है। देखा नहीं। पुरे पांच हजार रूपये उधारी देकर गये है!"
जगन सेठ: "अरे वाह! तो कौन सा एहसान किया है। पांच हजार रूपयों का सामान भी तो लिया होगा।"
हनुमान प्रसाद: "सही कहा! लेकिन मैंने उन्हें वही चीज़ मुफ्त दी है जो मुझे मुफ्त में मिली है।"
जगन सेठ: "लेकिन फ्री की च़ीजों पर दुकानदार का हक़ है, ग्राहक का नहीं!"
हनुमान प्रसाद: "मेरा सोचना कुछ अलग है। जो वस्तुएं हमें थोक सामग्री के साथ फ्रि में मिलती है उन्हें भी विक्रय कर अतिरिक्त लाभ अर्जित करने से बेहतर है कि उन चीजों को ग्राहकों को नि:शुल्क दिया जाएं। इससे ग्राहक और दुकानदार में परस्पर प्रेम और भाईचारा बना रहता है।"
जगन सेठ: "लेकिन ये दुकानदारी तो नहीं कही जा सकती।"
हनुमान प्रसाद: "हां ये तो है। लेकिन आपसी सौहार्द्र बनाने के लिए मैं इसे आवश्यक मानता हूं।"
जगन सेठ: "मगर इससे मुफ्तखोरी को बढ़ावा मिलेगा। आखिर हमने लाखों रूपये की पुंजी लगाकर ये जोखिम इसलिए तो नहीं उठाया!"
(कुछ देर हनुमान प्रसाद मौन हो जाते है। वे सामने से आ रहे अपने एक ग्राहक को देखकर उसे नाम से पूकारते है)
हनुमान प्रसाद: "क्यों रे रघू! तुने तो कहा था इस अमावस्या पर मेरा सारा उधार चूकता कर देगा। ये दुसरी अमावस आने को है। कहां है मेरी उधारी के रूपये!"
रघु: "माफ कर दीजिए सेठ जी! अब की बार पक्का दे दूंगा।"
हनुमान प्रसाद: "तेरी घरवाली आई थी। आटा और तेल ले गयी है। पिछला और आज का हिसाब मिलाकर कुल सत्रह सौ पचास रूपये हो गये है। इस अमावस्या पर मुझे पुरे रूपये चाहिए! समझे।" (हिसाब की डायरी में से देखकर बोलता है)
रघु: "हां! माई-बाप! दे दूंगा। (कुछ पल मौन होकर बोला) वो आपने कौन-से काम करने के लिए बुलाया था?"
हनुमान प्रसाद: "हां रघु! सुन बारिश आने वाली है। रवि के साथ जरा गोदाम चला जा। और ये तिरपाल रखी है। गोदाम की दिवार के आसपास अच्छे से लपेट देना। ताकि बारिश की सीलन से आटा, शक्कर आदि खराब न हो।"
रघु:"जी मालिक!" (रघु और रवि दुकान से बाहर जाते है)
जगन सेठ: "ये क्या हनुमान जी! आप और हम दोनों को पता है कि रघु आपके रूपये इस अमावस्या पर तो क्या आने वाली किसी भी अमावस पर नहीं देगा। इसके बाद भी आपने उसकी औरत को सामान उधार दे दिया।"
हनुमान प्रसाद: "अब क्या कहूं जगन सेठ! मेरा तो काम करने का यही तरीका है। आटा और खाने के तेल के लिए कोई झुठ नही बोलेगा। शक्कर, चाय और घी के बिना जीवन चल सकता है, लेकिन आटा और तेल के बिना नहीं।"
जगन सेठ: "क्या मतलब?"
हनुमान प्रसाद: "मैंने किराना उधार देने के कुछ नियम बनाये है। हमारे यहां केवल जरूरी चीजे ही उधार दी जाती है। मंहगी और वैकल्पिक वस्तुएं नक़द भुगतान पर ही देने की सख़्त नियम है। किन्तु पुराने और भरोसेमंद ग्राहकों के लिए सभी नियम शिथिल कर दिये जाते है।"
जगन सेठ: "अर्थात आप चेहरा देखकर तिलक लगाते है।"
(दोनों हंसते है)
हनुमान प्रसाद: "और जैसे यदि रघु मेरे सत्रह सौ पचास रूपये ले भी गया तो कौनसा मेरा भाग्य लेकर जायेगा। रघु जैसे लोग आते-जाते रहेंगे। नफा-नुकसान व्यापार का हिस्सा है। दुकानदारी में ये सब होता रहेगा। और फिर रघु मेरे किसी काम को मना नहीं करता। जब बुलाता हूं आ जाता है। उसके बदले पैसे भी नहीं मांगता। मैं ही आगे होकर सौ-दो सौ रूपये मजदुरी के उसके हाथ में थमा देता हूं। "
जगन सेठ: "तो आपकी प्रसन्नता ग्राहकों की प्रसन्नता में है।"
हनुमान प्रसाद: "युं ही समझ लिजिए। लेकिन जब तक अपने ग्राहकों से मधुर संबंध न हो, दुकानदारी करने में आनंद नहीं आता।"
जगन सेठ: "आपकी अच्छी कमाई है! अब आपको दुकान भी बड़ी कर लेनी चाहिए।" (दुकान को चारों ओर से देखता है)
हनुमान प्रसाद: "सभी मुझसे यही कहते है। किन्तु मुझे ऐसा नहीं लगता। जिस दिन आभास होगा उस दिन नयी दुकान बना लुंगा।"
जगन सेठ: "आपकी दुकान में सीसीटीवी कैमरा भी नहीं है। ग्राहकों की शक्ल में बहुत से चोर भी दुकान पर आते है।"
हनुमान प्रसाद: "भाई जगन! जिसे चोरी करना है वो हर मूल्य पर करेगा ही। ऐसा कोई ताला नहीं बना जिसकी चाबी न हो।"
जगन सेठ: "मगर सावधानी भी रखना जरूरी है!"
(जगन सेठ आंखों से दुकान पर कार्य कर रहे कर्मचारियों पर संकेत करता है)
हनुमान प्रसाद: "पुरानी कहावत है जगन सेठ! चोर को साहुकार बना दो। कभी चोरी नहीं होगी।"
जगन सेठ: "मगर ये तो बहुत रिस्की है।"
हनुमान प्रसाद: "हमारी पुरी दुकानदारी ही रिस्क पर चलती है जगन सेठ! एक रिस्क और बढ़ जाये तो इसमें कौनसा पहाड़ टुट पड़ेगा।"
जगन सेठ: "जितने सीधे और सरल आप दिखते है उतने है नहीं।"
हनुमान प्रसाद: "बिना अभिनय के दुकानदारी कैसी हो सकती है जगन सेठ! (कुछ पल शांत रहने के बाद)
आपकी जांच-पड़ताल हो गयी हो तो चले खाना खाये! दोपहर के तीन बज चुके है।" (हनुमान प्रसाद घड़ी की ओर देखकर बोले)
जगन सेठ: "आपको आखिर पता चल ही गया कि मैं आपकी दुकान पर तांका-झांकी करने आया हूं!"
हनुमान प्रसाद: "जी हां। हम दुकानदारों की यह बड़ी पुरानी आदत है। अपनी दुकान भले ही अच्छी भली चल रही है किन्तु पड़ोस की दुकान की झिड़की लेना नहीं भुलते।"
जगन सेठ: "सही कहा जगन सेठ! स्वयं की बड़ी दुकानदारी होने के बाद भी मुझे आपकी दुकान से जलन होती है। आपके यहां की प्रतिदिन अच्छी ग्राहकी का सुनकर मुझे यहां आना ही पड़ा।"
हनुमान प्रसाद: "तब आपने यहां क्या देखा?"
जगन सेठ: "आपके यहां दुकानदारी भले ही मेरी दुकान से कम है। लेकिन संतोष और सुख मुझसे बहुत ज्यादा है। मैंने दुकान पर उधारी लेने वाले ग्राहकों के लिए एक टेली काॅलर नियुक्त किया है जो प्रतिदिन ग्राहकों से फोन पर दुकान के पैसों का तकादा करता है। लेकिन आपकी दुकान पर ग्राहक स्वयं आकर रूपये चुका जाते है।"
(हनुमान प्रसाद हाथ जोड़े धन्यवाद की मुद्रा में है)
जगन सेठ: "मगर आपसे शिकायत है कि आप वस्तुएं न्यूनतम दाम में विक्रय करते है। जैसे की ये तुवंर दाल। जो हमें थौक भाव में सत्तर रूपये किलो मिलती है, आप इसे बहत्तर रूपये किलो बेचते है। शक्कर हमें चौतिस रूपये की पड़ती है और आप पैतिस रूपये किलो में ही बेच देते है। जबकी अन्य किराना दुकानों पर शक्कर चालिस रूपये और दाल अस्सी रूपये किलों बेची जा रही है। आपके कम दाम पर वस्तुएं बेचने से बाजार भाव में भिन्नता उत्पन्न हो रही है, दुकानदारों की ग्राहकी बिगड़ने का खतरा मंडराने लगा है। आप किराना दुकान एसोसिएशन के विरूद्ध काम कर रहे है।"
हनुमान प्रसाद: "जेब का वज़न बढ़ाने में कहीं आत्मा पर बोझ न बढ़ जाएं! बस इसीलिए भले ही कम लाभ मिले, लेकिन आत्म सुख न मिले वह कार्य में कभी नहीं करता। मैं एसोशिएशन की पैनल्टी भर दुंगा।"
जगन सेठ: "आप किराना सामग्री में मिलावट के विरूद्ध है। आटे में नमक समान तो सभी जगह चलता है।"
हनुमान प्रसाद: "जब हम व्यापारी लोग शुद्ध चीज़े खा रहे है तो ग्राहकों को भी शुध्द किराना सामग्री लेने का पुरा अधिकार है। जिसमें न कोई मिलावट हो और न ही तौल में कम हो। क्योंकि वह हमें उचित और शुद्ध वस्तुओं का पुरा दाम चुका रहा है। इसलिए ग्राहक की मांग पुरी करना हमारा कर्तव्य ही नहीं धर्म भी है।"
जगन सेठः "कुछ भी कहो हनुमान जी। आप अपने सिध्दांतों पर हमेशा खरे उतरे है। आप एक सच्चे दुकानदार है जो ग्राहक की खुशी के लिए अपना सुख भी त्याग सकते है। दुकानदारी कैसी की जाती है ये आपसे सीखी जानी चाहिये।"
हनुमान प्रसाद: "अब तारिफ ही करते रहेंगे या चलकर खाना भी खायेंगे।"
जगन सेठ: "नहीं हनुमान जी। आपकी बातों से ऐसा पेट भर चूका है की मन करता है दौड़कर अपनी दुकान पर जाऊं और बिल्कुल आपकी तरह ही दुकानदारी शुरू कर दूं।"
(दोनों हंसकर हाथ मिलाते है।)
जगन सेठ: "अच्छा जी। मैं चलता हूं।"
हनुमान प्रसाद:" जी! राम-राम।"
जगन सेठ: "राम राम।" (दुकान से जाता है)
(पर्दा गिरता है)
समाप्त
--------------------------------
प्रमाणीकरण-- एकांकी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। एकांकी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।
©®सर्वाधिकार सुरक्षित
लेखक--
जितेन्द्र शिवहरे
177, इंदिरा एकता नगर पूर्व रिंग रोड मुसाखेड़ी इंदौर मध्यप्रदेश
मोबाइल नम्बर
7746842533
8770870151
Jshivhare2015@gmail.com Myshivhare2018@gmail.com
*सच्चा दुकानदार-एकांकी*
(एक किराना दुकान का दृश्य। दो व्यापारियों का वार्तालाप)
हनुमान प्रसाद: "आईये! आईये! जगन सेठ! आज यहां का रास्ता कैसे भुल गये?" हनुमान प्रसाद बोले।
जगन सेठ: "यहां से गुजर रहा था! सोचा! आपसे मिलता चलूं?" जगन सेठ बोले।
हनुमान प्रसाद : "ये भली कहीं आपने। आईये आपका हमारी छोटी सी किराना दुकान में स्वागत है!" हनुमान प्रसाद हाथ जोड़कर बोले।
(उन्होंने अपनी दुकान के कर्मचारी रवि को आवाज़ लगायी)
"बेटा रवि! देखो जरा! हमारे दुकान पर कौन आये है! ये जगन सेठ है। शहर के प्रसिद्ध किराना व्यापारी। नुक्कड़ के पास ही चौक पर जगन सेठ की बहूत बड़ी आलीशान किराना दुकान है!"
रवि: "जगन सेठ को कौन नहीं जानता मालिक! नमस्कार सेठ जी!"
जगन सेठ: "हांss हांss नमस्ते-नमस्ते!" (रवि को हेय दृष्टी से देखता है)
हनुमान प्रसाद: "अरे! तो जाओ भाई! इनके लिए चाय नाश्ते का प्रबंध करो।"
रवि: "जी मालिक!" (रवि जाता है)
जगन सेठ: "आपने दुकान के नोकरों को बड़ा मुंह चढ़ा रखा है!"
हनुमान प्रसाद: "जगन सेठ! मैं इन्हें नौकर नहीं समझता। जिस तरह मैं यहाँ काम कर रहा हूं वैसे ही ये लोग भी यहाँ काम करते है।"
जगन सेठ: "अरे वाह! आप और इन लोगों में कोई फर्क नहीं है क्या?"
हनुमान प्रसाद: "अवश्य है। मैं दुकानदार हूं और ये सब मेरे यहां काम करने वाले कर्मचारी!"
(जगन सेठ मुंह बनाता है। हनुमान प्रसाद के चेहरे पर अब भी मुस्कुराहट तैर रही थी।)
जगन सेठ: "कुछ भी हो हनुमान जी! आपके चेहरे पर मुस्कान हमेशा बनी रहती है। अब मुझे ही देख लो। पिछली बार कब हंसा था पता ही नहीं।"
हनुमान प्रसाद: "क्यों? इतनी चिंता क्यों करते हो?"
जगन सेठ: "व्यापार महाराज व्यापार! हर रोज़ इतनी परेशानी झेलता हूं की हंसना तो दूर खाना-पीना भी भूल जाता हूं।"
हनुमान प्रसाद: "ये तो सही नहीं है। व्यापार तो एक पुजा है। और पुजा करने से मन हल्का होता है न की भारी।"
जगन सेठ: "आपकी बातें बड़ी रोचक होती है। इसीलिए आज मन किया आपसे मिल आऊं!"
हनुमान प्रसाद: "अर्थात आप यहां से गुजर नहीं रहे थे। बल्कि मुझी से मिलने आये है।"
(जगन सेठ बगल झांकने लगे)
हनुमान प्रसाद: "कोई बात नही! जगन सेठ। बहाना कोई भी हो! लेकिन आपने मुझसे मिलने का समय निकाला, ये बात मुझे बहुत अच्छी लगी। व्यापार-व्यवसाय में हम लोग इतने उलझे हुये है कि एक-दुसरे से मिलने का समय ही नहीं निकाल पाते।"
(रवि चाय की ट्रे लेकर मेज़ पर रख देता है। दुकान पर कुछ ग्राहक खड़े थे। जो अपनी आवश्यकता अनुसार किराना सामान खरिद रहे थे। रवि और बाकी के दो अन्य कर्मचारी ग्राहकों को सामान तोलकर (आदि) दे रहे थे। हनुमान प्रसाद काउंटर के पास ही बैठे हुये ग्राहकों से उनके किराना सामान के बिल अनुसार रूपयों का लेन-देन कर रहे थे।)
हरिश वर्मा (एक ग्राहक) : "हनुमान जी! ये लीजिए आपका पिछला उधार! पांच हजार रूपये है। बाकी के पांच सौ रूपये अगले महिने के बिल में जोड़कर दे दूंगा। (रूपये हनुमान प्रसाद को देता है)
हनुमान प्रसाद: "अरे वर्मा जी! रूपये कहाँ भागे रहे थे। दुकान आपकी अपनी है।"
(हनुमान प्रसाद हंसते हुये रूपये गिनते है)
हनुमान प्रसाद: "अरे वर्मा जी एक मिनीट! ये चाकलेट हमारी बिटियाँ पीहू के लिए।" (डेयरी मिल्क चॉकलेट देते है। हरीश वर्मा प्रसन्न होकर वहां से चले जाते है)
जगन सेठ: "हनुमान जी! ये क्या! सौ रूपये की चॉकलेट आपने उन्हें यूं ही मुफ्त में दे दी।"
हनुमान प्रसाद: "कमाया भी तो उन्हीं से है। देखा नहीं। पुरे पांच हजार रूपये उधारी देकर गये है!"
जगन सेठ: "अरे वाह! तो कौन सा एहसान किया है। पांच हजार रूपयों का सामान भी तो लिया होगा।"
हनुमान प्रसाद: "सही कहा! लेकिन मैंने उन्हें वही चीज़ मुफ्त दी है जो मुझे मुफ्त में मिली है।"
जगन सेठ: "लेकिन फ्री की च़ीजों पर दुकानदार का हक़ है, ग्राहक का नहीं!"
हनुमान प्रसाद: "मेरा सोचना कुछ अलग है। जो वस्तुएं हमें थोक सामग्री के साथ फ्रि में मिलती है उन्हें भी विक्रय कर अतिरिक्त लाभ अर्जित करने से बेहतर है कि उन चीजों को ग्राहकों को नि:शुल्क दिया जाएं। इससे ग्राहक और दुकानदार में परस्पर प्रेम और भाईचारा बना रहता है।"
जगन सेठ: "लेकिन ये दुकानदारी तो नहीं कही जा सकती।"
हनुमान प्रसाद: "हां ये तो है। लेकिन आपसी सौहार्द्र बनाने के लिए मैं इसे आवश्यक मानता हूं।"
जगन सेठ: "मगर इससे मुफ्तखोरी को बढ़ावा मिलेगा। आखिर हमने लाखों रूपये की पुंजी लगाकर ये जोखिम इसलिए तो नहीं उठाया!"
(कुछ देर हनुमान प्रसाद मौन हो जाते है। वे सामने से आ रहे अपने एक ग्राहक को देखकर उसे नाम से पूकारते है)
हनुमान प्रसाद: "क्यों रे रघू! तुने तो कहा था इस अमावस्या पर मेरा सारा उधार चूकता कर देगा। ये दुसरी अमावस आने को है। कहां है मेरी उधारी के रूपये!"
रघु: "माफ कर दीजिए सेठ जी! अब की बार पक्का दे दूंगा।"
हनुमान प्रसाद: "तेरी घरवाली आई थी। आटा और तेल ले गयी है। पिछला और आज का हिसाब मिलाकर कुल सत्रह सौ पचास रूपये हो गये है। इस अमावस्या पर मुझे पुरे रूपये चाहिए! समझे।" (हिसाब की डायरी में से देखकर बोलता है)
रघु: "हां! माई-बाप! दे दूंगा। (कुछ पल मौन होकर बोला) वो आपने कौन-से काम करने के लिए बुलाया था?"
हनुमान प्रसाद: "हां रघु! सुन बारिश आने वाली है। रवि के साथ जरा गोदाम चला जा। और ये तिरपाल रखी है। गोदाम की दिवार के आसपास अच्छे से लपेट देना। ताकि बारिश की सीलन से आटा, शक्कर आदि खराब न हो।"
रघु:"जी मालिक!" (रघु और रवि दुकान से बाहर जाते है)
जगन सेठ: "ये क्या हनुमान जी! आप और हम दोनों को पता है कि रघु आपके रूपये इस अमावस्या पर तो क्या आने वाली किसी भी अमावस पर नहीं देगा। इसके बाद भी आपने उसकी औरत को सामान उधार दे दिया।"
हनुमान प्रसाद: "अब क्या कहूं जगन सेठ! मेरा तो काम करने का यही तरीका है। आटा और खाने के तेल के लिए कोई झुठ नही बोलेगा। शक्कर, चाय और घी के बिना जीवन चल सकता है, लेकिन आटा और तेल के बिना नहीं।"
जगन सेठ: "क्या मतलब?"
हनुमान प्रसाद: "मैंने किराना उधार देने के कुछ नियम बनाये है। हमारे यहां केवल जरूरी चीजे ही उधार दी जाती है। मंहगी और वैकल्पिक वस्तुएं नक़द भुगतान पर ही देने की सख़्त नियम है। किन्तु पुराने और भरोसेमंद ग्राहकों के लिए सभी नियम शिथिल कर दिये जाते है।"
जगन सेठ: "अर्थात आप चेहरा देखकर तिलक लगाते है।"
(दोनों हंसते है)
हनुमान प्रसाद: "और जैसे यदि रघु मेरे सत्रह सौ पचास रूपये ले भी गया तो कौनसा मेरा भाग्य लेकर जायेगा। रघु जैसे लोग आते-जाते रहेंगे। नफा-नुकसान व्यापार का हिस्सा है। दुकानदारी में ये सब होता रहेगा। और फिर रघु मेरे किसी काम को मना नहीं करता। जब बुलाता हूं आ जाता है। उसके बदले पैसे भी नहीं मांगता। मैं ही आगे होकर सौ-दो सौ रूपये मजदुरी के उसके हाथ में थमा देता हूं। "
जगन सेठ: "तो आपकी प्रसन्नता ग्राहकों की प्रसन्नता में है।"
हनुमान प्रसाद: "युं ही समझ लिजिए। लेकिन जब तक अपने ग्राहकों से मधुर संबंध न हो, दुकानदारी करने में आनंद नहीं आता।"
जगन सेठ: "आपकी अच्छी कमाई है! अब आपको दुकान भी बड़ी कर लेनी चाहिए।" (दुकान को चारों ओर से देखता है)
हनुमान प्रसाद: "सभी मुझसे यही कहते है। किन्तु मुझे ऐसा नहीं लगता। जिस दिन आभास होगा उस दिन नयी दुकान बना लुंगा।"
जगन सेठ: "आपकी दुकान में सीसीटीवी कैमरा भी नहीं है। ग्राहकों की शक्ल में बहुत से चोर भी दुकान पर आते है।"
हनुमान प्रसाद: "भाई जगन! जिसे चोरी करना है वो हर मूल्य पर करेगा ही। ऐसा कोई ताला नहीं बना जिसकी चाबी न हो।"
जगन सेठ: "मगर सावधानी भी रखना जरूरी है!"
(जगन सेठ आंखों से दुकान पर कार्य कर रहे कर्मचारियों पर संकेत करता है)
हनुमान प्रसाद: "पुरानी कहावत है जगन सेठ! चोर को साहुकार बना दो। कभी चोरी नहीं होगी।"
जगन सेठ: "मगर ये तो बहुत रिस्की है।"
हनुमान प्रसाद: "हमारी पुरी दुकानदारी ही रिस्क पर चलती है जगन सेठ! एक रिस्क और बढ़ जाये तो इसमें कौनसा पहाड़ टुट पड़ेगा।"
जगन सेठ: "जितने सीधे और सरल आप दिखते है उतने है नहीं।"
हनुमान प्रसाद: "बिना अभिनय के दुकानदारी कैसी हो सकती है जगन सेठ! (कुछ पल शांत रहने के बाद)
आपकी जांच-पड़ताल हो गयी हो तो चले खाना खाये! दोपहर के तीन बज चुके है।" (हनुमान प्रसाद घड़ी की ओर देखकर बोले)
जगन सेठ: "आपको आखिर पता चल ही गया कि मैं आपकी दुकान पर तांका-झांकी करने आया हूं!"
हनुमान प्रसाद: "जी हां। हम दुकानदारों की यह बड़ी पुरानी आदत है। अपनी दुकान भले ही अच्छी भली चल रही है किन्तु पड़ोस की दुकान की झिड़की लेना नहीं भुलते।"
जगन सेठ: "सही कहा जगन सेठ! स्वयं की बड़ी दुकानदारी होने के बाद भी मुझे आपकी दुकान से जलन होती है। आपके यहां की प्रतिदिन अच्छी ग्राहकी का सुनकर मुझे यहां आना ही पड़ा।"
हनुमान प्रसाद: "तब आपने यहां क्या देखा?"
जगन सेठ: "आपके यहां दुकानदारी भले ही मेरी दुकान से कम है। लेकिन संतोष और सुख मुझसे बहुत ज्यादा है। मैंने दुकान पर उधारी लेने वाले ग्राहकों के लिए एक टेली काॅलर नियुक्त किया है जो प्रतिदिन ग्राहकों से फोन पर दुकान के पैसों का तकादा करता है। लेकिन आपकी दुकान पर ग्राहक स्वयं आकर रूपये चुका जाते है।"
(हनुमान प्रसाद हाथ जोड़े धन्यवाद की मुद्रा में है)
जगन सेठ: "मगर आपसे शिकायत है कि आप वस्तुएं न्यूनतम दाम में विक्रय करते है। जैसे की ये तुवंर दाल। जो हमें थौक भाव में सत्तर रूपये किलो मिलती है, आप इसे बहत्तर रूपये किलो बेचते है। शक्कर हमें चौतिस रूपये की पड़ती है और आप पैतिस रूपये किलो में ही बेच देते है। जबकी अन्य किराना दुकानों पर शक्कर चालिस रूपये और दाल अस्सी रूपये किलों बेची जा रही है। आपके कम दाम पर वस्तुएं बेचने से बाजार भाव में भिन्नता उत्पन्न हो रही है, दुकानदारों की ग्राहकी बिगड़ने का खतरा मंडराने लगा है। आप किराना दुकान एसोसिएशन के विरूद्ध काम कर रहे है।"
हनुमान प्रसाद: "जेब का वज़न बढ़ाने में कहीं आत्मा पर बोझ न बढ़ जाएं! बस इसीलिए भले ही कम लाभ मिले, लेकिन आत्म सुख न मिले वह कार्य में कभी नहीं करता। मैं एसोशिएशन की पैनल्टी भर दुंगा।"
जगन सेठ: "आप किराना सामग्री में मिलावट के विरूद्ध है। आटे में नमक समान तो सभी जगह चलता है।"
हनुमान प्रसाद: "जब हम व्यापारी लोग शुद्ध चीज़े खा रहे है तो ग्राहकों को भी शुध्द किराना सामग्री लेने का पुरा अधिकार है। जिसमें न कोई मिलावट हो और न ही तौल में कम हो। क्योंकि वह हमें उचित और शुद्ध वस्तुओं का पुरा दाम चुका रहा है। इसलिए ग्राहक की मांग पुरी करना हमारा कर्तव्य ही नहीं धर्म भी है।"
जगन सेठः "कुछ भी कहो हनुमान जी। आप अपने सिध्दांतों पर हमेशा खरे उतरे है। आप एक सच्चे दुकानदार है जो ग्राहक की खुशी के लिए अपना सुख भी त्याग सकते है। दुकानदारी कैसी की जाती है ये आपसे सीखी जानी चाहिये।"
हनुमान प्रसाद: "अब तारिफ ही करते रहेंगे या चलकर खाना भी खायेंगे।"
जगन सेठ: "नहीं हनुमान जी। आपकी बातों से ऐसा पेट भर चूका है की मन करता है दौड़कर अपनी दुकान पर जाऊं और बिल्कुल आपकी तरह ही दुकानदारी शुरू कर दूं।"
(दोनों हंसकर हाथ मिलाते है।)
जगन सेठ: "अच्छा जी। मैं चलता हूं।"
हनुमान प्रसाद:" जी! राम-राम।"
जगन सेठ: "राम राम।" (दुकान से जाता है)
(पर्दा गिरता है)
समाप्त
--------------------------------
प्रमाणीकरण-- एकांकी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। एकांकी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।
©®सर्वाधिकार सुरक्षित
लेखक--
जितेन्द्र शिवहरे
177, इंदिरा एकता नगर पूर्व रिंग रोड मुसाखेड़ी इंदौर मध्यप्रदेश
मोबाइल नम्बर
7746842533
8770870151
Jshivhare2015@gmail.com Myshivhare2018@gmail.com
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें