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एक कहानी रोज़-71 (24/06/2020)
*कुंवारा*
*चाय* नाश्ते के बाद दोनों परिवारों ने तृप्ति और नकुल को बाहर गार्डन में कुछ पल अकेले बिताने भेज दिया। तृप्ति के चेहरे पर जहां शर्म के भाव थे तो वहीं नकुल निडर और निर्भीक था। दोनों गार्डन में पहूंच चुके थे। दोनों की आपसी सहमती इस रिश्तें को आगे बढ़ाने के लिए अनिवार्य थी।
"तृप्ति जी! मैं शादी करना नहीं चाहता।" निडर नकुल ने निःसंकोच अपने मन की बात दी।
तृप्ति अचरज में थी। नकुल की इस बात पर वह क्या प्रतिक्रिया दे, उसे कुछ समझ नहीं रहा था।
"आप शादी नहीं करना चाहते या केवल मुझसे शादी नहीं करना चाहते?" तृप्ति ने जानना चाहा।
"मैं जानता हूं आप क्या पुछना चाहती है। दरअसल मैं किसी भी लड़की से शादी करना नहीं चाहता। और न हीं मेरा कोई पुर्व प्रेम संबंध है।" नकुल ने स्पष्ट किया।
घर के आंगन में बने गार्डन में दोनों टहल रहे थे।
"ये सब आपको अपने माता-पिता से कहना चाहिये।" तृप्ति ने नकुल से कहा।
"मेरी बात कोई सुनने को तैयार नहीं है तृप्ति!" नकुल गुस्से में आ गया।
तृप्ति कुछ पल मौन रहकर बोली-
"एक बात बताईये! शादी करने से आपको इतनी चिढ़ क्यों है?" तृप्ति ने पुछा।
"शादी! हुंअं! इसे शादी न कहकर यदि एक समझौता कहा जाये तो ही अच्छा है। शादी करने के बाद कोई प्रसन्न नहीं रहता। सभी प्रसन्न होने का सिर्फ नाटक करते है।" नकुल बोला।
"मगर ये हमारी संस्कृति का हिस्सा है और हम सामाजिक प्राणी है, इसलिए शादी करना आवश्यक है।" तृप्ति ने तर्क रखे।
"किसने कहा! आज भी बहुत से ऐसे लोग है जो शादी न करते हुये भी खुश है। उनके किसी भी निर्णय पर कोई दखलंदाजी करने वाला नहीं है। वे स्वच्छंद घुमते हुये जीवन का वास्तविक आनंद लुट रहे है।" नकुल ने प्रतिक्रिया दी।
"प्रसन्नता का पैमाना शादी न करना, मेरी समझ से बाहर है।" तृप्ति बोली।
"मुझे ये बताईये! अभी तक आपको कितने लड़के देखने यहां आ चूके है?" नकुल ने पुछ लिया।
"अब तक कोई आठ-दस रिश्तें आ चूके होंगे!" तृप्ति ने बताया।
"इन रिश्तों में आपको कोई जंचा?" नकुल का अगला प्रश्न था।
"नहीं।" तृप्ति बोली।
"और जहां तक मेरा प्रश्न है, आपके परिवार वाले और खासकर आपको मुझे स्वीकारने में कोई आपत्ति नहीं है?" नकुल ने कहा।
"जी हां! आप सही।" तृप्ति ने कहा।
"अब देखीये! यदि मैं आपसे शादी करने से इंकार करता हूं तब आपको क्षणिक दुःख होगा किन्तु यदि हां करता हूं तो हम दोनों जीवन भर दुःखी रहेंगे। और हम दोनों को कष्ट में देखकर हमारे परिजनों को संताप होगा।" नकुल ने बताया।
"दुर्घटना के भय से सड़क पर चलना तो नहीं छोड़ा नहीं जा सकता नकुल!" तृप्ति बोली।
"सही कहा। लेकिन बचाव के लिए सावधान तो बरतनी चाहिये न! और शादी न करना ही सबसे बड़ी सावधानी है।" नकुल बोला।
"लेकिन सामाजिक जिम्मेदारी उसका क्या? अपना वंश उत्पन्न कर उसे आगे बढ़ाने का उत्तरदायीत्व पुरूष का है। और शारीरिक आवश्यकताओं की सतुंष्टी भी तो आवश्यक है?" तृप्ति बोली।
"निश्चित ही आपके तर्कों में दम है। किन्तु आपने पुरूष के जो कर्तव्य बताये है क्या उसके लिए पुरूष को विवाहित होना ही आवश्क है! अन्य प्रकार से क्या वह उक्त क्रियाकलाप संपादित नहीं कर सकता?" नकुल ने प्रति उत्तर दिया।
तृप्ति मौन खड़ी थी। उसने नकुल को संकेत देकर पास ही रखी कुर्सियों पर बैठने को कहा। दोनों बैठ चूके थे।
"देखीये तृप्ति! मैं विवाह को कोई अशुभ संस्कार नहीं कह रहा। लेकिन विवाह के बाद पति- पत्नी के बीच उपजते तनाव और विभिन्न परेशानियों की तरफ आपका ध्यानाकर्षित करना चाहता हूं।" नकुल ने कहा।
तृप्ति नकुल के बातों पर ध्यान दे रही थी।
"हजारों लाखों रूपये बर्बाद कर और यह सोच कर शादी की जाती की अब दोनों का जीवन शांति और प्रेम से कटेगा। किन्तु ऐसा होता नहीं। शादी के पहले ही दिन से बहू की सास चाहती है कि उसकी बहू किचन का सारा कार्यभार संभाल ले। बहू की चाहत होती है कि वह उसके पति के साथ कुछ समय नितान्त अकेले में बिताये। और पति बेचारा सास और पत्नी की फरमाइशें पुरी करने वाला अलादीन का चिराग बनने की पुरी कोशिशें करता है। इन सब में वह कामयाब भी हो जाता है मगर जरा सी चूक उसे अपनी पत्नी और सास दोनों के कोप का भाजन बनाने में देर नहीं लगाती। बच्चें का बीज पत्नी के गर्भ में पड़ा नहीं की उसे दवाखाने का रास्ता दिखा दिया जाता है। जहां से उसकी वापसी तब तक संभव नहीं होती जब तक शिशु गोद में बैठकर घर न आ जाये।
यहां फिर झगड़े की वजह बदल दी जाती है। शिशु अगर स्वस्थ हुआ तो उसके मंगल आवरण में पैसा पानी तरह बहा दो। यदि वह कोई शारीरिक कमी लेकर पैदा हुआ तो उसके उपजार में सब कुछ बेच देने की भावना तत्काल मुंह बायें खड़ी रहती है। पति-पत्नि के संबंध में यदि कड़वाहट खुली हो तो लाख कोशिशें करने के बाद भी रिश्तों में मिठास नहीं आती। पुलिस और कोर्ट-कचहरी में सुकुन की तलाश में भटकते पति-पत्नी के बालों में सफेदी तो आ जाती है मगर शांति नहीं आती। देव स्थान और लोगों-रिश्तेदारों को दोनों अपनी गृहस्थी की पीड़ा सुना सुनाकर दोनों अपना मन हल्का तो कर लेते है मगर इन दोनों की मदद न भगवान करता है न कोई बंधु-बांधव।" नकुल ने बताया।
तृप्ति जान चूकी थी कि वह नकुल को संतुष्ट नहीं कर सकती। इसलिए वह मौन थी। मगर नकुल की बातों में अवश्य ही उसकी रूचि बढ़ती जा रही थी।
"वैवाहिक जीवन में भले ही लड़ाई-झगड़े न भी हो तो हर दिन कोई ना कोई परेशानी लेकर आता है।" नकुल कह रहे था।
"नाते-रिश्तेदारों से पर्याप्त मेल-जोल और उनकी प्रत्येक आवश्यकता में आपकी उपस्थिति होनी चाहिए और ऐसा नहीं करने पर वे लोग आपके निजी आयोजनों का बहिष्कार कर देते है। ये कैसा रिश्ता हुआ? ये तो सौदेबाज़ी हुई। आप हमारे आओ नहीं तो हम आपके यहां नही आयेंगे।" नकुल की इस बात पर तृप्ति हंस पड़ी।
"बच्चों की परवरिश में पति-पत्नी खुद जीना भुल जाते है। अच्छी से अच्छी पढाई-लिखाई और बच्चों के प्रत्येक शौक पुरे करने में बांका जवान पति अधेड़ उम्र में बुढ़ा नज़र आने लगता है। उसकी अप्सरा सी दिखने वाली और पतली कमर वाली बीवी की कमर फैल कर कब कमरा हो जाती है उन दोनों को अनुमान ही नहीं होता। कमर तोड़ मेहनत करने वाला पति आंखों से अंधा होकर चश्में को ही अपनी आंखें स्वीकार कर लेता है। इन सबके बाद भी परिवार के आर्थिक और सामुदायिक दायित्वों का निर्वहन करने पर भी उसको वो मान-सम्मान कभी नहीं मिलता जिसका वह अधिकारी होता है। यही हाल उसकी पत्नी का भी होता है। बच्चें बढ़े होते ही अपनी मां से इस तरह बात करते है मानों वे किसी जानवर को दुतकार रहे हो। मैंने तो ऐसे बच्चें भी देखे है जो अपने मां-बाप को गालियां और यहां तक की उन पर हाथ भी उठाते है। क्या माता-पिता ने अपने बच्चों के इस व्यवहार की कभी कल्पना की थी? क्या माता-पिता ने उन्हें ऐसे ही संस्कार दिये थे कि बढ़े होकर वे अपने मां-बाप को अपशब्द कहे। उन पर हाथ उठाये।" नकुल अब गंभीर हो चूका था।
तृप्ति भी नकुल की बातों से सहमत नज़र आ रही थी।
"जिस औरत को बीवी बनाकर आदमी अपने घर बार का दायित्व सौंप देता है वह चाहती है कि बुढ़े सास-ससुर उसके साथ नहीं रहे क्योंकि वो उनकी सेवा नहीं करना चाहती। स्वयं सास भी एक औरत होकर अपनी बहू को कभी अपनी बेटी स्वीकार नहीं करती। दोनों की परस्पर कलह में सारा घर झुलसते रहता है। अंततः बहू-बेटे को अपना अलग चूका-चूल्हा करना पड़ता है। पत्नी को अपनी कमाई की पाई-पाई का हिसाब देने वाला पति अपने माता-पिता की आर्थिक मदद पत्नी से छिपकर करता है। क्योंकि कहीं उसकी पत्नी को इस संबंध में कुछ पता चल गया तो निश्चित ही घर में महाभारत होगी। और शांति प्रिय पति ऐसा कभी नहीं चाहेगा। बच्चें अगर अच्छे निकले तो नौकर-चाकर के हाथों रोटी दे देंगे। और अगर रिटायरमेन्ट के बाद हमारे हाथों में कुछ नहीं बचा तो आगे भी काम-धाम कर के ही पेट भरना होगा।"
नकुल ने बताया।
कुछ पलों की शांति के बाद तृप्ति ने कहा-
"आपके तर्कों में सच्चाई है। मैं पुरी तरह सहमत हूं और आपके विचारों से प्रभावित हूं।" तृप्ति ने कहा।
"मूझे आश्चर्य है!" नकुल ने कहा।
"क्यों?" तृप्ति ने पुछा।
"आजतक मुझे इन विचारों पर भर्त्सना ही मिली है।" नकुल ने कहा।
"मैंने भी निर्णय लिया है, आजीवन कुंवारी रहूंगी।" तृप्ति बोली।
"अरे! आप ऐसा न करे।" नकुल ने चिंता जताई।
"जब आप ऐसा कर सकते है तो मैं क्यों नहीं! आपको तो खुश होना चाहिये की कोई तो आपके पदचिन्हों पर चलने को सहमत हुआ।" तृप्ति ने कहा।
"लेकिन मेरा इरादा आपको अपने जैसा बनाने का नही था।" नकुल बोला।
"अब तो मैं आपके जैसा बन गयी नकुल! अब कुछ नहीं हो सकता।" तृप्ति ने कहा।
घर लौटने पर भी नकुल का मन शांत नहीं था।
'ये मैंने क्या कर दिया। एक अच्छे परिवार की तृप्ति को अपने रंग में रंग लिया। उसके माता-पिता को कितना दुःख होगा जब उन्हें पता चलेगा की तृप्ति अब शादी नहीं करेगी। और इसका कारण मुझे माना जायेगा। तृप्ति ने ऐसा निर्णय क्यों लिया? वो भी इतनी जल्दी। मुझे अपराध बोध सा हो रहा है।' नकुल के मन-मस्तिष्क में तृप्ति के अलावा कोई न था। वह स्वयं हैरान था कि जिसने लड़कीयों को कभी इतना महत्व नहीं दिया, अब तृप्ति उसके लिए इतनी महत्वपूर्ण क्यों बनती जा रही थी। रह-रहकर नकुल उसी के विषय में सोच रहा था। कहीं उसे तृप्ति से प्रेम से तो नहीं हो गया। नही! नहीं! ऐसा नहीं हो सकता! उसके जीवन में प्रेम और शादी का कोई स्थान नहीं है। उसने आपना पुरा जीवन अकेले ही बीताने की योजना बनायी है।' लेकिन तृप्ति ने उसकी योजना को असफल कर दिया। नकुल चाहे या न चाहे मगर तृप्ति ने उसे अपने रंग में रंग लिया था। दिल और दिमाग की जंग में दिमाग को हार माननी पड़ी। अंततः नकुल को स्वीकार करना ही पड़ा की वह तृप्ति से प्रेम करने लगा और अब वह तृप्ति के बिना नहीं रह सकता। यह बात उसने तृप्ति को बतायी। तृप्ति प्रसन्न थी। उसकी योजना काम कर गयी थी। उसने नकुल से विवाह करने की हां कर दी। नकुल पहले कभी इतना प्रसन्न नहीं था जितना वह तृप्ति से विवाह करने के बाद था।
समाप्त
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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।
©®सर्वाधिकार सुरक्षित
लेखक--
जितेन्द्र शिवहरे
177, इंदिरा एकता नगर पूर्व रिंग रोड मुसाखेड़ी इंदौर मध्यप्रदेश
मोबाइल नम्बर
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*चाय* नाश्ते के बाद दोनों परिवारों ने तृप्ति और नकुल को बाहर गार्डन में कुछ पल अकेले बिताने भेज दिया। तृप्ति के चेहरे पर जहां शर्म के भाव थे तो वहीं नकुल निडर और निर्भीक था। दोनों गार्डन में पहूंच चुके थे। दोनों की आपसी सहमती इस रिश्तें को आगे बढ़ाने के लिए अनिवार्य थी।
"तृप्ति जी! मैं शादी करना नहीं चाहता।" निडर नकुल ने निःसंकोच अपने मन की बात दी।
तृप्ति अचरज में थी। नकुल की इस बात पर वह क्या प्रतिक्रिया दे, उसे कुछ समझ नहीं रहा था।
"आप शादी नहीं करना चाहते या केवल मुझसे शादी नहीं करना चाहते?" तृप्ति ने जानना चाहा।
"मैं जानता हूं आप क्या पुछना चाहती है। दरअसल मैं किसी भी लड़की से शादी करना नहीं चाहता। और न हीं मेरा कोई पुर्व प्रेम संबंध है।" नकुल ने स्पष्ट किया।
घर के आंगन में बने गार्डन में दोनों टहल रहे थे।
"ये सब आपको अपने माता-पिता से कहना चाहिये।" तृप्ति ने नकुल से कहा।
"मेरी बात कोई सुनने को तैयार नहीं है तृप्ति!" नकुल गुस्से में आ गया।
तृप्ति कुछ पल मौन रहकर बोली-
"एक बात बताईये! शादी करने से आपको इतनी चिढ़ क्यों है?" तृप्ति ने पुछा।
"शादी! हुंअं! इसे शादी न कहकर यदि एक समझौता कहा जाये तो ही अच्छा है। शादी करने के बाद कोई प्रसन्न नहीं रहता। सभी प्रसन्न होने का सिर्फ नाटक करते है।" नकुल बोला।
"मगर ये हमारी संस्कृति का हिस्सा है और हम सामाजिक प्राणी है, इसलिए शादी करना आवश्यक है।" तृप्ति ने तर्क रखे।
"किसने कहा! आज भी बहुत से ऐसे लोग है जो शादी न करते हुये भी खुश है। उनके किसी भी निर्णय पर कोई दखलंदाजी करने वाला नहीं है। वे स्वच्छंद घुमते हुये जीवन का वास्तविक आनंद लुट रहे है।" नकुल ने प्रतिक्रिया दी।
"प्रसन्नता का पैमाना शादी न करना, मेरी समझ से बाहर है।" तृप्ति बोली।
"मुझे ये बताईये! अभी तक आपको कितने लड़के देखने यहां आ चूके है?" नकुल ने पुछ लिया।
"अब तक कोई आठ-दस रिश्तें आ चूके होंगे!" तृप्ति ने बताया।
"इन रिश्तों में आपको कोई जंचा?" नकुल का अगला प्रश्न था।
"नहीं।" तृप्ति बोली।
"और जहां तक मेरा प्रश्न है, आपके परिवार वाले और खासकर आपको मुझे स्वीकारने में कोई आपत्ति नहीं है?" नकुल ने कहा।
"जी हां! आप सही।" तृप्ति ने कहा।
"अब देखीये! यदि मैं आपसे शादी करने से इंकार करता हूं तब आपको क्षणिक दुःख होगा किन्तु यदि हां करता हूं तो हम दोनों जीवन भर दुःखी रहेंगे। और हम दोनों को कष्ट में देखकर हमारे परिजनों को संताप होगा।" नकुल ने बताया।
"दुर्घटना के भय से सड़क पर चलना तो नहीं छोड़ा नहीं जा सकता नकुल!" तृप्ति बोली।
"सही कहा। लेकिन बचाव के लिए सावधान तो बरतनी चाहिये न! और शादी न करना ही सबसे बड़ी सावधानी है।" नकुल बोला।
"लेकिन सामाजिक जिम्मेदारी उसका क्या? अपना वंश उत्पन्न कर उसे आगे बढ़ाने का उत्तरदायीत्व पुरूष का है। और शारीरिक आवश्यकताओं की सतुंष्टी भी तो आवश्यक है?" तृप्ति बोली।
"निश्चित ही आपके तर्कों में दम है। किन्तु आपने पुरूष के जो कर्तव्य बताये है क्या उसके लिए पुरूष को विवाहित होना ही आवश्क है! अन्य प्रकार से क्या वह उक्त क्रियाकलाप संपादित नहीं कर सकता?" नकुल ने प्रति उत्तर दिया।
तृप्ति मौन खड़ी थी। उसने नकुल को संकेत देकर पास ही रखी कुर्सियों पर बैठने को कहा। दोनों बैठ चूके थे।
"देखीये तृप्ति! मैं विवाह को कोई अशुभ संस्कार नहीं कह रहा। लेकिन विवाह के बाद पति- पत्नी के बीच उपजते तनाव और विभिन्न परेशानियों की तरफ आपका ध्यानाकर्षित करना चाहता हूं।" नकुल ने कहा।
तृप्ति नकुल के बातों पर ध्यान दे रही थी।
"हजारों लाखों रूपये बर्बाद कर और यह सोच कर शादी की जाती की अब दोनों का जीवन शांति और प्रेम से कटेगा। किन्तु ऐसा होता नहीं। शादी के पहले ही दिन से बहू की सास चाहती है कि उसकी बहू किचन का सारा कार्यभार संभाल ले। बहू की चाहत होती है कि वह उसके पति के साथ कुछ समय नितान्त अकेले में बिताये। और पति बेचारा सास और पत्नी की फरमाइशें पुरी करने वाला अलादीन का चिराग बनने की पुरी कोशिशें करता है। इन सब में वह कामयाब भी हो जाता है मगर जरा सी चूक उसे अपनी पत्नी और सास दोनों के कोप का भाजन बनाने में देर नहीं लगाती। बच्चें का बीज पत्नी के गर्भ में पड़ा नहीं की उसे दवाखाने का रास्ता दिखा दिया जाता है। जहां से उसकी वापसी तब तक संभव नहीं होती जब तक शिशु गोद में बैठकर घर न आ जाये।
यहां फिर झगड़े की वजह बदल दी जाती है। शिशु अगर स्वस्थ हुआ तो उसके मंगल आवरण में पैसा पानी तरह बहा दो। यदि वह कोई शारीरिक कमी लेकर पैदा हुआ तो उसके उपजार में सब कुछ बेच देने की भावना तत्काल मुंह बायें खड़ी रहती है। पति-पत्नि के संबंध में यदि कड़वाहट खुली हो तो लाख कोशिशें करने के बाद भी रिश्तों में मिठास नहीं आती। पुलिस और कोर्ट-कचहरी में सुकुन की तलाश में भटकते पति-पत्नी के बालों में सफेदी तो आ जाती है मगर शांति नहीं आती। देव स्थान और लोगों-रिश्तेदारों को दोनों अपनी गृहस्थी की पीड़ा सुना सुनाकर दोनों अपना मन हल्का तो कर लेते है मगर इन दोनों की मदद न भगवान करता है न कोई बंधु-बांधव।" नकुल ने बताया।
तृप्ति जान चूकी थी कि वह नकुल को संतुष्ट नहीं कर सकती। इसलिए वह मौन थी। मगर नकुल की बातों में अवश्य ही उसकी रूचि बढ़ती जा रही थी।
"वैवाहिक जीवन में भले ही लड़ाई-झगड़े न भी हो तो हर दिन कोई ना कोई परेशानी लेकर आता है।" नकुल कह रहे था।
"नाते-रिश्तेदारों से पर्याप्त मेल-जोल और उनकी प्रत्येक आवश्यकता में आपकी उपस्थिति होनी चाहिए और ऐसा नहीं करने पर वे लोग आपके निजी आयोजनों का बहिष्कार कर देते है। ये कैसा रिश्ता हुआ? ये तो सौदेबाज़ी हुई। आप हमारे आओ नहीं तो हम आपके यहां नही आयेंगे।" नकुल की इस बात पर तृप्ति हंस पड़ी।
"बच्चों की परवरिश में पति-पत्नी खुद जीना भुल जाते है। अच्छी से अच्छी पढाई-लिखाई और बच्चों के प्रत्येक शौक पुरे करने में बांका जवान पति अधेड़ उम्र में बुढ़ा नज़र आने लगता है। उसकी अप्सरा सी दिखने वाली और पतली कमर वाली बीवी की कमर फैल कर कब कमरा हो जाती है उन दोनों को अनुमान ही नहीं होता। कमर तोड़ मेहनत करने वाला पति आंखों से अंधा होकर चश्में को ही अपनी आंखें स्वीकार कर लेता है। इन सबके बाद भी परिवार के आर्थिक और सामुदायिक दायित्वों का निर्वहन करने पर भी उसको वो मान-सम्मान कभी नहीं मिलता जिसका वह अधिकारी होता है। यही हाल उसकी पत्नी का भी होता है। बच्चें बढ़े होते ही अपनी मां से इस तरह बात करते है मानों वे किसी जानवर को दुतकार रहे हो। मैंने तो ऐसे बच्चें भी देखे है जो अपने मां-बाप को गालियां और यहां तक की उन पर हाथ भी उठाते है। क्या माता-पिता ने अपने बच्चों के इस व्यवहार की कभी कल्पना की थी? क्या माता-पिता ने उन्हें ऐसे ही संस्कार दिये थे कि बढ़े होकर वे अपने मां-बाप को अपशब्द कहे। उन पर हाथ उठाये।" नकुल अब गंभीर हो चूका था।
तृप्ति भी नकुल की बातों से सहमत नज़र आ रही थी।
"जिस औरत को बीवी बनाकर आदमी अपने घर बार का दायित्व सौंप देता है वह चाहती है कि बुढ़े सास-ससुर उसके साथ नहीं रहे क्योंकि वो उनकी सेवा नहीं करना चाहती। स्वयं सास भी एक औरत होकर अपनी बहू को कभी अपनी बेटी स्वीकार नहीं करती। दोनों की परस्पर कलह में सारा घर झुलसते रहता है। अंततः बहू-बेटे को अपना अलग चूका-चूल्हा करना पड़ता है। पत्नी को अपनी कमाई की पाई-पाई का हिसाब देने वाला पति अपने माता-पिता की आर्थिक मदद पत्नी से छिपकर करता है। क्योंकि कहीं उसकी पत्नी को इस संबंध में कुछ पता चल गया तो निश्चित ही घर में महाभारत होगी। और शांति प्रिय पति ऐसा कभी नहीं चाहेगा। बच्चें अगर अच्छे निकले तो नौकर-चाकर के हाथों रोटी दे देंगे। और अगर रिटायरमेन्ट के बाद हमारे हाथों में कुछ नहीं बचा तो आगे भी काम-धाम कर के ही पेट भरना होगा।"
नकुल ने बताया।
कुछ पलों की शांति के बाद तृप्ति ने कहा-
"आपके तर्कों में सच्चाई है। मैं पुरी तरह सहमत हूं और आपके विचारों से प्रभावित हूं।" तृप्ति ने कहा।
"मूझे आश्चर्य है!" नकुल ने कहा।
"क्यों?" तृप्ति ने पुछा।
"आजतक मुझे इन विचारों पर भर्त्सना ही मिली है।" नकुल ने कहा।
"मैंने भी निर्णय लिया है, आजीवन कुंवारी रहूंगी।" तृप्ति बोली।
"अरे! आप ऐसा न करे।" नकुल ने चिंता जताई।
"जब आप ऐसा कर सकते है तो मैं क्यों नहीं! आपको तो खुश होना चाहिये की कोई तो आपके पदचिन्हों पर चलने को सहमत हुआ।" तृप्ति ने कहा।
"लेकिन मेरा इरादा आपको अपने जैसा बनाने का नही था।" नकुल बोला।
"अब तो मैं आपके जैसा बन गयी नकुल! अब कुछ नहीं हो सकता।" तृप्ति ने कहा।
घर लौटने पर भी नकुल का मन शांत नहीं था।
'ये मैंने क्या कर दिया। एक अच्छे परिवार की तृप्ति को अपने रंग में रंग लिया। उसके माता-पिता को कितना दुःख होगा जब उन्हें पता चलेगा की तृप्ति अब शादी नहीं करेगी। और इसका कारण मुझे माना जायेगा। तृप्ति ने ऐसा निर्णय क्यों लिया? वो भी इतनी जल्दी। मुझे अपराध बोध सा हो रहा है।' नकुल के मन-मस्तिष्क में तृप्ति के अलावा कोई न था। वह स्वयं हैरान था कि जिसने लड़कीयों को कभी इतना महत्व नहीं दिया, अब तृप्ति उसके लिए इतनी महत्वपूर्ण क्यों बनती जा रही थी। रह-रहकर नकुल उसी के विषय में सोच रहा था। कहीं उसे तृप्ति से प्रेम से तो नहीं हो गया। नही! नहीं! ऐसा नहीं हो सकता! उसके जीवन में प्रेम और शादी का कोई स्थान नहीं है। उसने आपना पुरा जीवन अकेले ही बीताने की योजना बनायी है।' लेकिन तृप्ति ने उसकी योजना को असफल कर दिया। नकुल चाहे या न चाहे मगर तृप्ति ने उसे अपने रंग में रंग लिया था। दिल और दिमाग की जंग में दिमाग को हार माननी पड़ी। अंततः नकुल को स्वीकार करना ही पड़ा की वह तृप्ति से प्रेम करने लगा और अब वह तृप्ति के बिना नहीं रह सकता। यह बात उसने तृप्ति को बतायी। तृप्ति प्रसन्न थी। उसकी योजना काम कर गयी थी। उसने नकुल से विवाह करने की हां कर दी। नकुल पहले कभी इतना प्रसन्न नहीं था जितना वह तृप्ति से विवाह करने के बाद था।
समाप्त
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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।
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लेखक--
जितेन्द्र शिवहरे
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