गृहस्थी-कहानी

एक कहानी रोज़-72

शेयर करे  25/06/2020

*गृहस्थी*

     *छोटी* बहू किरण जिद पर अड़ी थी। वह चाहती थी की उसके जेठ अनिल उससे माफी मांगे। वर्ना दहेज प्रताड़ना का प्रकरण वह वापिस नहीं लेगी। किरण के पति मयंक घरेलु हिंसा अपराध के परिणाम स्वरूप जेल में थे। दहेज प्रताड़ना के प्रकरण पर पुलिस निष्पक्ष जांच कर रही थी। अनिल अपने भाई की बहू से क्षमा मांगने को तैयार थे किन्तु उसकी पत्नी सुनिता को जेल जाना मंजूर था किन्तू अपने पति अनिल का किरण से पुरे परिवार के आगे माफी मांगना स्वीकार नहीं था। परिवार वाद न्यायालय में अततः प्रकरण दाखिल हुआ।  न्यायालय में सुनवाई चल पड़ी। विभिन्न तारिखों पर पक्ष और विपक्ष कोर्ट रूम में जमघट लगाने उपस्थित हो जाते। किन्तु केस का कोई उचित हल होता न देख न्यायाधीश प्रकरण सुनवाई की अगली तारिख दे देते। इन सब में बुढ़े सास-ससुर बहुत परेशान होते। उन्हें भी छोटे बेटे और बहू के केस में मुख्य आरोपी बनेया गया था। शेखर दास और माला दास इस प्रयास में थे कि छोटी बहु किरण और मंयक को अलग कर दिया जाये। वे दोनों भी शांति से रहेंगे और पुरा परिवार भी। गृहस्थी का बंटवारा अनिल नहीं चाहते थे। उन्होंने अपनी असहमति किरण को साफ-साफ बता दी थी। किरण ने इसे अपना घोर अपनमान समझ लिया। बस तब ही से वह अनिल को किसी तरह नीचा दिखाने के प्रयास में थी। मंयक अब किरण को स्वीकारने के पक्ष में न था। क्योंकी उसका आरोप था कि पत्नी किरण ने असत्य भाषण कर उसके और उसके परिवार के विरूद्ध झुठा दहेज का केस लगाया है। किरण को थप्पड़ मारने की बात वह स्वीकार चूका था और इस बात के लिए उसने जेल की हवा भी खायी थी।
किरण के मन में पृथक परिवार की बात कर घर चूकी थी। और इस बात को उसके मन में पहूंचाने का काम उसकी सास माला ने ही किया। मयंक और किरण की शादी हुये कुछ ही महिने हुये होंगे थे कि वह लगी मंयक का अलग से राशन कार्ड बनवाने। सार्वजिनक लाभ की मात्रा को अधिकतम करने का उसका उद्देश्य परिवार पर इतनी बड़ी मुसीबत लेकर आयेगा उसे पता नहीं था। अपने पति को लेकर अलग चूका-चूल्हा करने का बीज किरण के मन में अंकुरित हो चुका था। समय-समय पर घर के छोटी-बड़ी लड़ाईयों से यह बीज पोषित होकर एक वृक्ष का रूप ले चूका था। काउंसिल कक्ष में किरण ने यही हल सुझाया और स्वीकार किया था।
कोमल ससुराल से मदभेद होने पर अपने मायके आ गयी थी। उसकी जननी मां माला और पिता शेखर पुत्री के इस संताप से द्रवित हो उठे। उन्होंने हर प्रकार से कोमल का समर्थन किया। किरण ये सब देख रही थी और अनिल भी। मयंक भी अपनी बहन को न्याय दिलाने में अपना भरपूर सहयोग देना चाहता था। किन्तु कोमल को अपने बड़े भाई अनिल से सिवाएं सांत्वना के कुछ नहीं मिला। उसने कोमल और अपने पुरे परिवार को समझाया की वे लोग नाहक ही कोमल की प्रत्येक बात पर समर्थन कर उसके होसलें बढ़ा रहे है। इससे कोमल के भीतर यह भावना घर गयी है कि वह जैसा भी आचरण करेगी, उसके मायके वाले उसका साथ अवश्य देंगे। कोमल अपने पिता तुल्य सास-ससुर के प्रति तु-तड़ाक और बद्तमीज़ी पुर्ण व्यवहार को उचित ठहरा रही थी। अपने पति जीवन को लेकर सास-ससुर से पृथक होने की मांग पर कोमल अड़ गयी थी और उसे उकसाने में उसके मायके वालों का पुरा-पुरा हाथ था। अनिल ने कोमल को बिना किसी का पक्ष लिये समझाया।
"कोमल! जीवन अपने बुढ़े मां-बाप का इकलौता लड़का है। यदि तु उसे लेकर अलग घर में चली जायेगी तो उनकी देखभाल कौन करेगा।"
"भैया! उन दोनों के लिए हम नौकर रख लेंगे!" कोमल के स्वर में अभिमान झलक रहा था।
दुर खड़ी किरण यह सब देख रही थी।
"अच्छा! तो फिर ठीक है। हम दोनों भाई भी अलग-अलग हो जाते है। मां और बाबूजी के लिए नौकर रख लेंगे। क्यों मंयक!" अनिल ने कहा।
"भैया! ये आप क्या कह रहे है। मुझे आपसे ऐसी उम्मीद नहीं थी। जो बेटा अपने मां-बाप की सेवा न कर सके उस पर धीक्कार है।" मंयक तैश में आकर बोला।
कोमल भी अपने बड़े भाई के इस विचार पर क्रोधित थी।
शेखर और माला विचारणीय मुद्रा में थे।
"देखा कोमल! जिस बात को सिर्फ कहने भर से हमारा मयंक मुझे धिक्कार ने लगा, उसे तू हकीकत में अपने ससुराल वालों के साथ करना चाहती है। सोच! तुझे कितनी भर्त्सना मिलनी चाहिये। क्योंकि इस अनहोनी का कारण तो तू ही बनेगी न। " अनिल ने कहा।
सर्वत्र शांती पसर गयी।
"जो व्यवहार हम अपने मां-बाबुजी के लिए सोच भी नहीं सकते वो व्यवहार तुम लोग चाहते हो कि जीवन अपने माता-पिता के साथ करे। ये कैसा आचरण है। अपना खून खून दूजे का पानी!" अनिल बोल रहा था।
किरण किचन में खड़ी थी। उसे सबकुछ सुनाई और दिखाई दे रहा था। यही सब तो वो भी करने जा रही थी।
"मां! जितना दोष कोमल का है उससे कहीं अधिक दोष हम मायके वालों का है। जो हर सही-गल़त बात पर कोमल का साथ देते आये है। कल को यदि कोमल की ग्रहस्थी बिगड़ती है तब उसके जवाबदार हम लोग भी उतने ही होंगे जितने की कोमल!"
"जिस लड़की को कठपुतली के समान उसके मायके वाले नाच-नचाते है उस लड़की की गृहस्थी कभी नही बस सकती।"
"ये हमारे घर की ही नहीं हर घर की कहानी है। हमारी बहू किरण की ही बात ले लो।" अनिल ने किरण को देखकर कहा।
"किरण भी अपने पति को लेकर अलग होना चाहती और उसके स्वर इसलिए कठोर है क्योंकी उसे पता है कि वह जो कुछ भी करेगी उसके मायके वाले उसके साथ खड़े है।"
"किरण और कोमल! मैं तुम दोनों से कहता हूं, जिस घर में बड़े-बुढ़े का आशीर्वाद नहीं रहता वह घर, घर नहीं रहता। एक दिन हम सब बुढ़े होंगे और हमारे बच्चें जो आज यह सब देख-देख कर बड़े हो रहे है, उसे परम्परा समझ कर ग्रहण करेंगे। फिर हमारा हाल भी वैसा ही होगा जैसा हम लोग अपने बुजुर्गों का कर रहे है।"
"बच्चों में अच्छे संस्कार देना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है। उन्हें बताना होगा कि घर के बुजुर्गों से ही हमारा अस्तित्व है। उनके बिना हम लोग कुछ भी नहीं है। उनका समुचित आदर-सत्कार किया जाना परिवार के प्रत्येक सदस्य के लिए परम आवश्यक है। तब ही हमारा बुढ़ापा सुधेरगा वर्ना हम लोग बुढ़ापे में किसी वृद्ध आश्रम में नज़र आयेंगे।" अनिल बोल चूका था।
सुनिता ने अपने पति के लिए एक गिलास भर लाकर दिया। पानी पीकर अनिल कुर्सी पर चुपचाप बैठ गया।
ऐसा नहीं था की यह गृह युद्ध जल्द समाप्त हो गया। कुछ समय लगा। किन्तु धीरे-धीरे सभी सदस्यों को अपनी गलती का अहसास हुआ। किरण ने अपने सास-ससुर से सामुहिक क्षमा मांगकर सभी को आश्चर्य में डाल दिया। कोमल यह देखकर आत्मग्लानी से भर उठी। वह पुनः ससुराल जाकर रच बस गयी। शेखर और माला भी अपनी बेटी को उकसाने के लिए शर्मिंदा थे। मयंक अब पहले से अधिक किरण का ध्यान रखता था क्योंकि किरण ने उसके माता-पिता को स्वीकार कर उसका दिल जीत लिया था। मयंक का अपने प्रति बेहिसाब प्रेम देखकर किरण अपने पुर्व सभी दुःख भुल गयी। अनिल और सुनिता अपने परिवार के सदस्यो को खुशहाल देखकर फुले नहीं समा रहे थे।

समाप्त
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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।

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लेखक--
जितेन्द्र शिवहरे
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