एक कहानी रोज़--73
26/06/2020
*अंतर्द्वंद्व- कहानी*
*उ*म्र ढलान पर थी। सबकुछ ठीक चल रहा था। जीवन में बहुत शांति थी। मगर आरव ने जरा भर छुकर हलचल पैदा कर दी थी। कृति विचारों के भंवर से निकल नहीं पा रही थी। पति लम्बे समय से अस्वस्थ थे। नौकरी के बाद का शेष समय विनोद की देखभाल में ही चला जाता। बच्चें स्वयं बाल-बच्चे वाले हो चूके थे। सफेदी की चादर सिर के बालों ने धीरे-धीरे ने ओढ़ना शुरू भी कर दी थी। 'आरव ने ऐसा क्यों किया? दिल्लगी के लिये उसे मैं ही मिली? जबकी उसे तो कोई कमी नहीं थी। युवा है, हेण्डसम और स्मार्ट भी। फिर मैं ही क्यों?' कृति विचारमग्न थी। इन प्रश्नों के उत्तर आरव ही दे सकता था। किन्तु जब भी कृति उससे कुछ पुछने जाती आरव अपने चेहरे पर शैतानी मुस्कुराहट बिखेर लेता। जिसे देख कृति डर जाती और अपने कदम पीछे मोड़ लेती। कितना कुछ सह कर वह यहां तक पहूंची थी। नियमित पढाई करते-करते स्वाध्यायी की छात्रा बन गई। विनोद से शादी हो जाना इसकी प्रमुख वज़ह थी। काॅलेज की सभी परिक्षाएं विवाहिता बनकर ही दी। दो बेटीयों को जन्म दिया। जिनके होश सम्भालने से पुर्व ही कृति नौकरी पर चढ़ गयी। जीवन में अधुरापन अवश्य था किन्तु कभी किसी पर जाहिर नहीं होने दिया। आरव ने जाने कैसे कृति की यह दुखती नस पकड़ ली। जबसे कृति ने अपने हिस्से आई सुख-दुःख की बातें आरव से शेयर की थी तब से ही आरव उसके करिब आने की फिराक में रहता। वह इसे प्रेम का नाम देना चाहता था। किन्तु कृति नहीं मानी। वह आरव के इरादे भांप चूकी थी। उस दिन आरव ने ऑफिस में जब कृति का हाथ पकड़ा तब से ही वह सतर्क हो गयी। आरव का यह कृत्य सार्वजनिक करने को लेकर वह आत्म चिंतन कर रही थी। उचित प्रमाण के अभाव में यह तर्क सिध्द करना बहुत ही उलझनों से भरा मसला था। फिर लोग कृति को गल़त नहीं समझेगें, यह भी निश्चित नहीं था। एक दिन उसने हिम्मत कर आरव से कह ही दिया-"अच्छा होगा तुम अपनी सीमा में रहो आरव! अन्यथा परिणाम भंयकर हो सकते है।" आरव चकित था। इतनी हिम्मत कृति कहां से लाई? वह डर गया। उसने अपनी हरकतें वही रोक दी। कृति ने चेन की सांस ली। ऑफिस में अब दोनों की बातें कम ही होती। आरव ने कृति से दुरियां बना ली। 'क्या मैं कुछ ज्यादा बोल गई? बेचारा डर के मारे आंख भी नहीं मिला पा रहा था।' कृति न चाहते हुए भी आरव के विषय में सोच रही थी। "यदि मेरी बातों को बुरा लगा हो तो साॅरी।" कृति ने ऑफिस खत्म होने पर आरव से कहा। आरव खिलखिला हुठा। यह उसे कृति की स्वीकृति प्रतित हुई। उसने कृति को बांहों में भर लिया। आकस्मिक इस आक्रमण से कृति सन्न रह गई। उसे यह कतई अंदेशा नहीं था की आरव यह कदम उठा लेगा। वह छटपटाने लगी। युवा आरव की मजबुत पकड़ से छूटने में उसे समय लगा। जैसे-तैसे वह घर पहूंची। आज पुरी रात उसे नींद नहीं आई। मन का गुबार कागज पर उकेरा। खूब लिखा। इतना की कब सुबह हुई पता ही नहीं चला। ऑफिस जाने का सोचकर कभी बैचेन हो जाती तो कभी आनंदित हो उठती। विनोद को चाय देकर कृति ऑफिस के लिये तैयारी करने लगी। बस में बैठी ही थी कि फिर वही समसामयिक समय जिसे वह अभी जी रही थी उस पर हावी हो गया। कृति पुनः विचारमग्न थी। कितना लम्बा समय हुआ उसे। विनोद और कृति ने कुछ पल साथ में नहीं बिताये। घर में साथ-साथ अवश्य होते, किन्तु केवल औपचारिक चर्चा ही होती। छुट्टीयां तो डाक्टर्स के चक्करों में खत़्म हो जाती। विनोद की आंखों में आत्मग्लानी के भाव कृति पढ़ लिया करती। सो वह विनोद को यह कभी जाहिर नहीं होने देती की जिस पुर्णता की वह अधिकारी थी, उसे अभी तक नहीं मिला। "मैडम! आपका स्टाॅप आ चूका है।" बस कंडकर ने कृति को बताया। बस से उतरकर वह पैदल चलने लगी। सामने से बाइक पर आरव गुजरा। उसका ऑफिस कुछ दुरी पर था। आरव को देखकर उसके चेहरा चमक उठा। (प्रश्न) 'क्या मैं इन पलों को जी लूं। कुछ समय के लिये? (उत्तर) नहीं ये अनुचित है।' कृति के अन्तर्मन में द्वन्द्व चल रहा था। (प्रश्न) 'यहां कितना कुछ अनुचित है! किन्तु उसे स्वीकार किया जाता है। फिर मेरे लिये ये प्रतिबंध क्यों? (उत्तर) तू विवाहित है! (प्रश्न) आरव भी तो विवाहित है। (उत्तर) वह पुरूष है। उसे कोई कुछ नहीं कहेगा। सभी तुझ पर दोषारोपण करेगें। (प्रश्न) लेकिन किसे क्या पता चलेगा? (उत्तर) सुगंध और दुर्गन्ध अधिक समय तक छिपाई नहीं जा सकती।'
"कृति-कृति!" सहकर्मी स्वरा ने कृति को झकझोरा। वह ऑफिस के द्वार पर आकर मौन खड़ी थी।
"क्या हुआ कृति?" स्वरा पुनः बोली।
"कुछ नहीं! चल।" कृति बोली। दोनों ऑफिस में प्रवेश कर गये।
"ये आप क्या कह रही है? आरव आपके साथ ऑफिस में यह सब कर रहा है?" रागिनी आश्चर्यचकित थी।
"हां रागिनी! मुझे लगा कि सबसे पहले तुम्हें यह बताऊं। क्योंकि तुम आरव की पत्नी हो।" कृति आत्मविश्वास से भरी थी। उसने अंतर्मन की जंग जीत ली थी। कृति निश्चिय कर चूकी थी कि आज ऑफिस के बाद वह रागिनी से मिलकर सबकुछ बता देगी। आरव भी वहां आ पहूंचा। कृति को रागिनी से बात करते हुये देख उसके हाथ-पैर ठण्डे पड़ गये। वह समझ गया। आज उसकी खैर नहीं। रागिनी गुस्से मे थी किन्तु आत्म नियंत्रण करना उसने उचित समझा।
"सड़क पर सार्वजनिक करने के बजाए इस प्रकरण को हमें यही समाप्त कर देना चाहिए।" कृति बोली। रागिनी समझ रही थी। आरव की आंखे नीचे और सिर पाताल में धंसा जा रहा था। कृति के अदम्य साहस ने भावी बड़ी दुर्घटना रोक दी थी। उसे विश्वास हो गया कि कल से सबकुछ पहले जैसा हो जायेगा। फिर वही बेफीक्री वाली जिंदगी कृति का इंतज़ार कर रही थी। वह घर लौटने के लिये मुख्य सड़क पर आ पहूंची। कृति के कदमताल में उसकी जीत की खुशी झलक रही थी। उसने वह कर दिखाया जो अन्य महिलाओं के लिये एक प्रेरणा का विषय था।
समाप्त
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प्रमाणीकरण-- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।
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लेखक--
जितेन्द्र शिवहरे
177, इंदिरा एकता नगर पूर्व रिंग रोड मुसाखेड़ी इंदौर मध्यप्रदेश
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26/06/2020
*अंतर्द्वंद्व- कहानी*
*उ*म्र ढलान पर थी। सबकुछ ठीक चल रहा था। जीवन में बहुत शांति थी। मगर आरव ने जरा भर छुकर हलचल पैदा कर दी थी। कृति विचारों के भंवर से निकल नहीं पा रही थी। पति लम्बे समय से अस्वस्थ थे। नौकरी के बाद का शेष समय विनोद की देखभाल में ही चला जाता। बच्चें स्वयं बाल-बच्चे वाले हो चूके थे। सफेदी की चादर सिर के बालों ने धीरे-धीरे ने ओढ़ना शुरू भी कर दी थी। 'आरव ने ऐसा क्यों किया? दिल्लगी के लिये उसे मैं ही मिली? जबकी उसे तो कोई कमी नहीं थी। युवा है, हेण्डसम और स्मार्ट भी। फिर मैं ही क्यों?' कृति विचारमग्न थी। इन प्रश्नों के उत्तर आरव ही दे सकता था। किन्तु जब भी कृति उससे कुछ पुछने जाती आरव अपने चेहरे पर शैतानी मुस्कुराहट बिखेर लेता। जिसे देख कृति डर जाती और अपने कदम पीछे मोड़ लेती। कितना कुछ सह कर वह यहां तक पहूंची थी। नियमित पढाई करते-करते स्वाध्यायी की छात्रा बन गई। विनोद से शादी हो जाना इसकी प्रमुख वज़ह थी। काॅलेज की सभी परिक्षाएं विवाहिता बनकर ही दी। दो बेटीयों को जन्म दिया। जिनके होश सम्भालने से पुर्व ही कृति नौकरी पर चढ़ गयी। जीवन में अधुरापन अवश्य था किन्तु कभी किसी पर जाहिर नहीं होने दिया। आरव ने जाने कैसे कृति की यह दुखती नस पकड़ ली। जबसे कृति ने अपने हिस्से आई सुख-दुःख की बातें आरव से शेयर की थी तब से ही आरव उसके करिब आने की फिराक में रहता। वह इसे प्रेम का नाम देना चाहता था। किन्तु कृति नहीं मानी। वह आरव के इरादे भांप चूकी थी। उस दिन आरव ने ऑफिस में जब कृति का हाथ पकड़ा तब से ही वह सतर्क हो गयी। आरव का यह कृत्य सार्वजनिक करने को लेकर वह आत्म चिंतन कर रही थी। उचित प्रमाण के अभाव में यह तर्क सिध्द करना बहुत ही उलझनों से भरा मसला था। फिर लोग कृति को गल़त नहीं समझेगें, यह भी निश्चित नहीं था। एक दिन उसने हिम्मत कर आरव से कह ही दिया-"अच्छा होगा तुम अपनी सीमा में रहो आरव! अन्यथा परिणाम भंयकर हो सकते है।" आरव चकित था। इतनी हिम्मत कृति कहां से लाई? वह डर गया। उसने अपनी हरकतें वही रोक दी। कृति ने चेन की सांस ली। ऑफिस में अब दोनों की बातें कम ही होती। आरव ने कृति से दुरियां बना ली। 'क्या मैं कुछ ज्यादा बोल गई? बेचारा डर के मारे आंख भी नहीं मिला पा रहा था।' कृति न चाहते हुए भी आरव के विषय में सोच रही थी। "यदि मेरी बातों को बुरा लगा हो तो साॅरी।" कृति ने ऑफिस खत्म होने पर आरव से कहा। आरव खिलखिला हुठा। यह उसे कृति की स्वीकृति प्रतित हुई। उसने कृति को बांहों में भर लिया। आकस्मिक इस आक्रमण से कृति सन्न रह गई। उसे यह कतई अंदेशा नहीं था की आरव यह कदम उठा लेगा। वह छटपटाने लगी। युवा आरव की मजबुत पकड़ से छूटने में उसे समय लगा। जैसे-तैसे वह घर पहूंची। आज पुरी रात उसे नींद नहीं आई। मन का गुबार कागज पर उकेरा। खूब लिखा। इतना की कब सुबह हुई पता ही नहीं चला। ऑफिस जाने का सोचकर कभी बैचेन हो जाती तो कभी आनंदित हो उठती। विनोद को चाय देकर कृति ऑफिस के लिये तैयारी करने लगी। बस में बैठी ही थी कि फिर वही समसामयिक समय जिसे वह अभी जी रही थी उस पर हावी हो गया। कृति पुनः विचारमग्न थी। कितना लम्बा समय हुआ उसे। विनोद और कृति ने कुछ पल साथ में नहीं बिताये। घर में साथ-साथ अवश्य होते, किन्तु केवल औपचारिक चर्चा ही होती। छुट्टीयां तो डाक्टर्स के चक्करों में खत़्म हो जाती। विनोद की आंखों में आत्मग्लानी के भाव कृति पढ़ लिया करती। सो वह विनोद को यह कभी जाहिर नहीं होने देती की जिस पुर्णता की वह अधिकारी थी, उसे अभी तक नहीं मिला। "मैडम! आपका स्टाॅप आ चूका है।" बस कंडकर ने कृति को बताया। बस से उतरकर वह पैदल चलने लगी। सामने से बाइक पर आरव गुजरा। उसका ऑफिस कुछ दुरी पर था। आरव को देखकर उसके चेहरा चमक उठा। (प्रश्न) 'क्या मैं इन पलों को जी लूं। कुछ समय के लिये? (उत्तर) नहीं ये अनुचित है।' कृति के अन्तर्मन में द्वन्द्व चल रहा था। (प्रश्न) 'यहां कितना कुछ अनुचित है! किन्तु उसे स्वीकार किया जाता है। फिर मेरे लिये ये प्रतिबंध क्यों? (उत्तर) तू विवाहित है! (प्रश्न) आरव भी तो विवाहित है। (उत्तर) वह पुरूष है। उसे कोई कुछ नहीं कहेगा। सभी तुझ पर दोषारोपण करेगें। (प्रश्न) लेकिन किसे क्या पता चलेगा? (उत्तर) सुगंध और दुर्गन्ध अधिक समय तक छिपाई नहीं जा सकती।'
"कृति-कृति!" सहकर्मी स्वरा ने कृति को झकझोरा। वह ऑफिस के द्वार पर आकर मौन खड़ी थी।
"क्या हुआ कृति?" स्वरा पुनः बोली।
"कुछ नहीं! चल।" कृति बोली। दोनों ऑफिस में प्रवेश कर गये।
"ये आप क्या कह रही है? आरव आपके साथ ऑफिस में यह सब कर रहा है?" रागिनी आश्चर्यचकित थी।
"हां रागिनी! मुझे लगा कि सबसे पहले तुम्हें यह बताऊं। क्योंकि तुम आरव की पत्नी हो।" कृति आत्मविश्वास से भरी थी। उसने अंतर्मन की जंग जीत ली थी। कृति निश्चिय कर चूकी थी कि आज ऑफिस के बाद वह रागिनी से मिलकर सबकुछ बता देगी। आरव भी वहां आ पहूंचा। कृति को रागिनी से बात करते हुये देख उसके हाथ-पैर ठण्डे पड़ गये। वह समझ गया। आज उसकी खैर नहीं। रागिनी गुस्से मे थी किन्तु आत्म नियंत्रण करना उसने उचित समझा।
"सड़क पर सार्वजनिक करने के बजाए इस प्रकरण को हमें यही समाप्त कर देना चाहिए।" कृति बोली। रागिनी समझ रही थी। आरव की आंखे नीचे और सिर पाताल में धंसा जा रहा था। कृति के अदम्य साहस ने भावी बड़ी दुर्घटना रोक दी थी। उसे विश्वास हो गया कि कल से सबकुछ पहले जैसा हो जायेगा। फिर वही बेफीक्री वाली जिंदगी कृति का इंतज़ार कर रही थी। वह घर लौटने के लिये मुख्य सड़क पर आ पहूंची। कृति के कदमताल में उसकी जीत की खुशी झलक रही थी। उसने वह कर दिखाया जो अन्य महिलाओं के लिये एक प्रेरणा का विषय था।
समाप्त
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प्रमाणीकरण-- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।
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जितेन्द्र शिवहरे
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