बैल भाग गया- कहानी

*एक कहानी रोज़--77 (30/06/2020)*

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*बैल भाग गया- कहानी*

      *प* रिवार को कुछ कर दिखाने के चक्कर में वह पांचवी बार लोडिंग गाड़ी खरीदने जा पहूंचा। खरीदी भी क्या? खूब धक्के खाये, जुतियां घीस गई। फाइनेंस वालों के यहां लाख धोक दी, नाक रगड़ी तब जाकर ऊंची ब्याज दर पर पिकअप वाहन घर ला सका। डाउन पेयमेन्ट के रूपये भी यहा-वहां से उधार लिये। सोचा 'अब खूब कमाऊंगा। अपना सारा क़र्ज भी चूका दूंगा।' बीवी की फ़रमाइशों की लिस्ट भी बड़ी हो चली थी। जिन्हें पुरी करना अतिआवश्यक था। मां-बाप के तानों से शरीर छलनी हो चूका था। दो भाई भी थे। किन्तु वे उसे केवल परिवारिक उपयोगी मानते थे। उसकी परेशानी घर में किसी को इतनी महत्वपूर्ण नहीं लगी जितनी वे स्वयं की समझते थे। मां जरूर कभी-कभार हाल-चाल पुछ लेती। क्योंकि समय-समय पर एक वही था जो अपनी मां की हर इच्छा को आदेश समझकर पुरा करता था। पन्द्रह वर्षों तक पिता के साथ ट्रक पर कंडक्टरी की। कंडक्टरी में रात-बेरात निंद आ जाती तो ड्राइवर पिता ड्राइविंग के दौरान जो हाथ में आता वह फेंक कर इसे नींद से जगा देते। भय का मारा दोबारा सोने की हिम्मत नहीं करता। कच्चे मकान को पक्के घर में बदलने में अपना सौ प्रतिशत दिया। कभी किसी चीज की फ़रमाइश नहीं की। जो मिला खा लिया, जो दिया पहन लिया। स्कूल वाले घर तक आ गये। कहा की - "लड़का होशियार है। कुछ पढ़ लिख लेगा तो अपने कुल का उध्दार समझो।" मगर पिताजी कहा मानने वाले थे। पढ़े लिखो को वे अपने समक्ष बोना ही समझते। क्योंकि स्वयं पढ़े-लिखे नहीं थे। उस पर शिक्षित बेरोजगारों की लाइनें गांवो से लेकर शहर तक देखी थी। नौकरी भी भविष्य का लाभ थी जो वर्तमान से कोसों दुर थी। अतएव वर्तमान में गुड्स ट्रांसपोर्ट की अथाह कमाई ने बेचारे की शिक्षा पुरी नहीं होने दी। मोबाइल हाथ में लिया ही था की मोबाइल चोरी के आरोप में आधी रात को सोते हुये भाई को पुलिस उठा ले गयी। सर्वत्र हाहाकार मच गया। बदनामी भी पर्याप्त हुई। सिम कम्पनी में पता किया तो पता चला जिस मोबाइल नम्बर की सिमकार्ड भाई चला रहा है वह किसी अन्य के नाम रजिस्टर्ड था। उसी  मोबाइल सिमकार्ड के मूल रजिस्टर्ड नाम के व्यक्ति ने अपना मोबाइल चोरी हो जाने की एफआईआर लिखवा दी थी। फोन पर पहला काॅल भाई ने उठाया और पकड़ा गया। बहरहाल थाने पर लम्बी-चौब़ी बहस के बाद देर रात मामला ले-देकर सुलझा। परिवार को सिम नेटवर्क कम्पनी पर केस करने का विचार आया। मगर ये अपना भोलाराम साफ मुकर गया। कहने लगा- "अंत भला तो सब भला।"
बालिग होते ही दोस्तों में सबसे पहले बंदे का विवाह हुआ। क्योंकि प्रेम में असफल हुआ था। किन्तु ग़म में नहीं डूबा। अच्छा बेटा तो था ही, अच्छा ड्राइवर भी बना और अच्छा पति बनने का प्रयास भी पुरी लगन से करने लगा। संतान सुख हेतू दूसरा विवाह भी किया। मगर घर में किलकारियां सुनने की प्रतिक्षा, प्रतिक्षा ही बनी रही। कुछ चेतना जागी तो मन को काम में व्यस्त करने का निश्चय किया। फिर क्या! स्वयं की ट्रक लेकर संपूर्ण लाभ अकेले भोगने का मन बनाया। बड़े वाहन पर फाइनेंस सरल नहीं था। एक मित्र से वित्तीय सहयोग मांगा तो उसने ट्रक वाहन में मालिकाना हक मांग लिया। ये भाई राजी हो गया। बीच वाला भाई भी साथ हो लिया। तीनों पार्टनर शीप में ट्रक व्यवसाय में बहुत सारा लाभ कमाने के दिवा स्वप्न देखने लगे। मगर ज़मीनी हक़ीकत कुछ अलग थी। तीनों के मत-मतान्तर में भिन्नता आने लगी। कमाई कम और व्यय अधिक, आये दिन की दुर्घटना बन गयी। उस पर एक दिन भाई के भाई से एक सड़क दुर्घटना में एक आदमी स्वर्ग सिधार गया। रहमदिल भाई ने भाई के हाथों हुये हादसे का जिम्मेदार स्वयं को घोषित कर दिया। फलतः कोर्ट कचहरी के चक्कर इनाम स्वरुप मिले। जो सालों साल किश्तों में मिलते रहे। परिणाम यह हुआ की ट्रक को अधबीच में ही बेचना पड़ा। क्योंकि किश्तें समय पर जमा नहीं हो रही थी। सीविल रिकार्ड भी भाई का ही खराब हुआ। इतना कि एक मोबाइल भी फाइनेंस करने से फाइनेंस कम्पनी ने साफ मना कर दिया। जिस मित्र से ट्रक डाउन पेयमेन्ट हेतु नकद राशी ली, उसकी राशी भुगतान का दायित्व भी अपने भाई पर ही आया। कर्ज में डुबकर उधारी चूकाई। इसने निश्चय किया कि अब बड़ी गाड़ी नही चलानी। पिता ने सहयोग कर छोटी लोंडिंग गाड़ी टाटाएस दिलवा दी। कुछ राहत की सांसे हिस्से में आई ही थी कि पिता की एक के बाद एक कुल दो बड़ी गाड़ीयां (ट्रक) चोरी चली गई। अब ये आधुनिक युगीन श्रवण पुनः अपने परिवार के भरण-पोषण में सबकुछ भुल गया। फिर एक बार बड़ी गाड़ी को चलाने पर विवश था। टाटाएस कब बिकी उसे पता नहीं चला। हांड तोड़ मेहनत ने परिवार को पटरी पर तो ला दिया किन्तु इसकी लाइफ बेपटरी हो गयी। भाई के भाईयों के निजी रिश्तें भी तनावग्रस्त और उलझे हुये थे। बड़ा भाई होने के कारण चिंता लेने से खुद को रोक नहीं सका। भाई ने अपने भाई की जमानत के लिये ब्याज पर रूपये उठाये। फण्ड, बीसी के रूपये भी उठाकर परिवार हितार्थ सौंपे। किश्तें भरते-भरते आधा बुढ़ा हो चला। पारिवारिक बेमेल विचारों को आधार मानकर ये भाई एक बार फिर खिन्न हो उठा। पुनः टाटाएस लेने का मन बनाया। पास में फुटी कोड़ी नही थी। कुछ पुराने मित्रों के द्वार पर दस्तक थी। मगर बात नहीं बनी। पिता के एक पुराने ट्रांसपोर्ट व्यवसायी मित्र के पास जाकर अपनी व्यथा सुनाई। दो-चार माह तक बार-बार सुनाई। तब जाकर सरदार जी पिघले और एक मरी-मराई टाटाएस इसके गले बांध दी। अपना भाई था तो मेहनती और धैर्यवान भी। गैराज के चक्कर लगा-लगाकर मैकेनिक को धनवान बनाने में भाई ने पुरा सहयोग दिया। जितना कमाता ,अधिकांश गाड़ी के रिपेयर-सिपेयर में व्यय कर आता। परिवार सदस्य अपने-अपने लिए निजी मकान की व्यवस्था में लगे हुये थे। भाई की पत्नी ने भी भाई पर दबाव बनाया। कुटुंबीयों की इच्छा के आगे अपना भाई फिर एक बार हार गया। पिता ने अपनी एक बड़ी गाड़ी चलाने के बहाने उसका संपूर्ण लाभांश भाई को ही रखने का लोभ देकर मना लिया। भाई की टाटाएस एक बार फिर मरे के भाव बिकी। जिसका धन एक जम़ीन के टुकडे को खरीदने में चला गया। भाई पुनः मुम्बई और हैदराबाद के चक्कर लगाने के चक्कर में खुद घनचक्कर बन गया। भुत प्रेत भी अपने भाई से अच्छे ही दिखाई देते होगें! इंदौर लौटने पर इसे पहचान पाना मुशिकल हो जाता। बड़े वाहन से मोह पहले ही कम था, शनै: शनै: मुम्बई, हैदराबाद से भी मोह भंग हो गया। फलतः ट्रक चलाने से फिर एक बार तौबा कर ली। गांव के पशु मेले में बैल ढुलाई के प्रतिफल मिलने वाली भाड़े की बडी राशी का सुनकर भाई की लार टपकने लगी। पिकअप वाहन की आवश्यकता अनुभव की। जुगाड़ भी ली। वाहन पर दो लाख रूपये फाइनेंस करने की जरूरत थी। भाई लगा फिर जुगत भिड़ाने। हमेशा की तरह गाड़ी सेकैण्ड हेण्ड थी। कमाई के पुर्व उसे गैराज दिखाना था। मैकेनिक इतने वर्ष की दोस्ती का वास्ता खाकर गाड़ी का रिपेयर कम मेहनताने में करने पर राजी हो गया। गाड़ी के जरूरी कागजात एक्पायर होने लगे थे। भाई ने अपनी झोली सर्वत्र फैला दी। मगर स्वाभिमानी ने परिवार की मदद नही ली। खैर, गाड़ी ओके कंडीशन में तैयार कर उसे पशु मेले की ओर दौड़ा दी। एक-दो खेप लगाई ही थी कि बीच हाइवे पर ओवरटेक करता एक वाहन स्वामी भाई पर आकर चिल्लाया- "गाड़ी से बैल भाग गया है।" भाई भोला भण्डारी उस ड्राइवर की सुचना की उपेक्षा करने लगा। 'बैल ऐसे कैसे भाग सकता था?' न्यू ब्रांड रस्सी से कसकर बंधे थे तीनो बैल। गाड़ी के पीछे रस्सीयों का मकड़जाल भी मजबुत और ऊंचा बनाया था। मजाल था कि बैल उसे लांघ पाये! किन्तु भाई ये भूल गया कि जब आदमी का व़क्त खराब होता है तब ऊंट पर बैठे आदमी को भी कुत्ता काट लेता है। वही हुआ भी। भाई के कंडक्टर भतीजे ने गाड़ी से उतरकर पीछे देखा। वह दौड़ते हुये भाई के पास आया-"काका एक बैल नहीं है गाड़ी में। लगता है वह बैल भाग गया। "भाई चौंका। गाड़ी से उतरकर उसने भी पीछे देखा। 'यह क्या? वह ड्राईवर सच कह रहा था।' तीन में से एक बैल भाग चूका था। वह बैल अकेला नहीं भागा, बैल के साथ भाई का अच्छा समय भी ले भाग था। जिसे पकड़ना आवश्यक था। ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की सांस नीचे नीचे लेकर भाई ने गाड़ी पलटा ली। वह आसपास नजर दौड़ा-दौड़ाकर बैल को खोज रहा था। तीन-चार किलोमीटर पीछे भी आ पहुंचा। मगर बैल नहीं मिला। विवश होकर स्थानीय रिश्तेदारों को सुचना दी। बैल के स्वामी (व्यापारी) को बुलवा लिया। बारह-पन्द्रह लोग लगे बैल खोजने। बैल हट्टा-कट्टा और तंदुरुस्त था। किसी के भी हाथ न लगा। ऐसा बैल को देखने वालो ने बताया। मन्नत भी नहीं मांग सकता था क्योंकि भाई हाल ही में नास्तिक हुआ था। गला सूख गया था। शब्द जीभ पर नहीं आ पाये। क्या करे? कहां जाये? चूल्लू भर पानी भी कोई देने वाला नहीं था। चार-पांच घण्टों के सघन चेकिंग अभियान के बाद कहीं जाकर बैल मिला। बैल तो अवश्य मिल गया। किन्तु आगे फिर कोई बैल नहीं भागेगा, इसकी कोई ग्यारंटी नहीं थी। बैल को जब-जब अवसर मिलेगा, वह भागेगा। और अपने साथ-साथ वह भाई का सुख-चेन भी ले भागेगा। तब इसका हल क्या है? निश्चित ही इसका उत्तर देना भाई के पास नहीं था। उसके नजरिये से कहा जाये तो-"बैल आयेंगे, जायेंगे और भागेंगे भी। भागने वाले को पकड़ने का प्रयास करता रहूंगा। जब तक शरीर में प्राण है लड़ता रहूंगा। जीत हो या हार मायने नहीं रखता। जिस दिन लड़ना बंद! उस दिन सबकुछ समाप्त। दी एण्ड। हाहाहाहा।"

समाप्त
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सर्वाधिकार सुरक्षित
लेखक-
जितेन्द्र शिवहरे
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