*मोटा मर गया-कहानी*

एक कहानी रोज़--84 (07/07/2020)

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                 *सौ* किलो से अधिक वजनी युवक तरूण ने डिप्रेशन में आकर पांचवे माले से छलांग लगा दी। पीड़ा यह थी की सत्ताइस वर्ष की आयु के बाद भी अब तक उसकी कोई गर्लफ्रेंड नहीं थी। भारी मोटापे के कारण उसकी शादी भी नहीं हो रही थी। सभी जगह उसे अपने मोटापे के कारण शर्मिंदिगी उठानी पड़ती थी। पिछले छः माह से तरूण ने खुद को घर में कैद कर लिया था। तरुण को उसके माॅम-डैड बहुत अच्छे से समझते थे। अतः वे तरूण को कभी अकेला नहीं छोड़ते। बड़ा भाई विभू और छोटी बहन प्रिया अपने-अपने घरों में शादीशुदा लाइफ एॅन्जाॅय कर रहे थे। लेकिन जब उन्हें तरूण के विषय में पता चला तब वे दोनों घर आकर तरूण की काउंसिलिंग करने लगे। तरूण के दोस्त भी उसे हिम्मत बंधाने में पीछे नहीं थे।
इन सब के बाद भी तरूण द्वारा आत्महत्या की कोशिश ने सभी को अचरच में डाल दिया।
हाॅस्पीटल के बाहर तरूण के सभी रिश्तेदार जमा थे।
"पहाड़ के नीचे आ कर तीन लोग दब गये!" यह वाक्य तरूण के कानों में गूंज रहा था। वह धीरे-धीरे होश में आने लगा। उसने आसपास देखा। उसे हर तरफ सफेद रंग और सफाद रंग की चीजें ही दिखाई दी। उसने सोचा- 'लगता है मैं मरकर भगवान के घर आ गया हूं!'
वह स्वयं को कहीं लेटा हुआ अनुभव कर रहा था।
'ये कौन है! जो बाहर चिल्लम-चिल्ली कर रहे है!' तरुण ने मन ही मन बाहर से आ रहे शौर को सुनकर पुछा।
उसे अपने मरने पर संदेह हो रहा था।
'पांचवे माले से गिरने के बाद भी कहीं मैं बच तो नहीं गया!' तरूण अपने आप से बात कर रहा था।
"पहाड़ के नीचे आ जाने से इनकी ये हालत हुयी है।" तरूण के वार्ड के बाहर कोई किसी से उक्त वाक्य कह रहा था।
तरूण से रहा नहीं गया।
"डाॅक्टर साहब! क्या मैं जिंदा हूं?" तरूण ने जोरदार आवाज़ लगायी।
लेकिन किसी ने उसकी यह आवाज़ नहीं सुनी। उसने पुनः दोहराया-
"डाॅक्टर साहब! क्या मैं जिंदा हूं?"
"हां तुम जिंदा हो! लेकिन वो चारो मर गये!" वार्ड ब्वाॅय ने वार्ड में आकर जवाब दिया।
तरूण को इस बात की खुशी हुई की आखिर किसी ने तो उसकी आवाज़ सुनी। उसे यह जानकर अफसोस भी हुआ की वह जिंदा बच गया था। लेकिन तरूण उन चार लोगों के मरने से प्रसन्न था। उसे लगा वो चार लोग भी उसी की तरह आत्महत्या करना चाहते थे। और वे इसमें सफल भी हो गये। किन्तु तरूण असफल हुआ। लेकिन वो चार लोग कौन थे जो मर गये? शायद वार्ड के बाहर जो आवाज़े आ रही थी, उन्हीं चार लोगों के परिजनों की थी।
'लेकिन ये चार लोग मरे कैसे!' तरूण सोचने लगा।
इतने में डाॅक्टर साबह राउण्ड पर आये। उन्हें देखकर तरूण खुश हो गया।
"डाॅक्टर साहब! क्या वाकई में मैं जिंदा हूं?" तरूण ने पुछा।
"हां भई! तुम जिन्दा हो! लेकिन वो चारो मर गये।" डाॅक्टर ने तरुण का चेकअप करते हुये कहा।
"सर! ये चार लोग कौन है जिनकी मरने की खबर हर कोई मुझे ही दे रहा है?" तरूण पे पुछा।
"तुम्हें तो बतानी ही होगी न! आखिर तुम्हारे कारण ही तो वो चार लोग मरे है।" डाॅक्टर ने बताया।
"वह कैसे?" तरुण ने पुछा।
"ये चार लोग वही है जिन पर पांचवें माले से छलांग लगाते वक्त़ तुम गिरे थे।" डाॅक्टर ने स्पष्ट किया।
"क्या?" तरूण का मुंह खुला की खुला रह गया।
"इसे डिस्चार्ज कर दो। अब ये बिल्कुल ठीक है।" डाॅक्टर साहब ने पास ही खड़ी नर्स से कहा।
"सिस्टर! क्या डाॅक्टर साहब जो कह रहे थे वह सही है?" डाॅक्टर साहब के जाते ही तरूण ने घबराते हुये नर्स से पूछा।
"हां! डाक्टर साहब सही कह रहे थे।" नर्स ने जवाब दिया।
"नहीं! ये मैंने क्या कर दिया।" तरूण रोने लगा।
नर्स वही खड़ी थी। वार्ड ब्वाॅय सफाई कर रहा था। दुसरी नर्स तरूण के हाथों से ड्रेसिंग पट्टी आदि निकाल रही थी।
"क्या वो चारो वाकई में मर गये?" तरूण ने दुसरी नर्स से पुछा।
"नहीं। अभी कोमा में है। लेकिन कब होश में आयेंगे पता नहीं।" दुसरी नर्स ने जवाब दिया।
"इसका मतलब वो पहाड़ के नीचे आकर मर गया, पहाड़ के नीचे आकर मर गया, ये लोग मेरे लिए ही कह रहे थे।" तरूण ने पुछा।
"हां! सही कहा। अब जल्दी करो पीछे के रास्ते बाहर निकलो। वो लोग कुदाल और फावड़ा लेकर बाहर तैयार खड़े है। पहाड़ को खोदकर ही दम देंगे।" पुलिस के एक जवान ने अंदर आते हुये कहा।
"लेकिन आप मुझे कहा ले जा रहे है?" तरूण ने पुलिस जवान से पुछा।
"पुलिस स्टेशन!" पुलिस जवान ने कहा।
"लेकिन क्यों!" तरूण ने मासुम शक्ल बनाकर पुछा।
"अरे! तुमने आत्महत्या करने की कोशिश की है। और आत्महत्या करना अपराध है। अब तुम्हें जेल जाना पड़ेगा।" पुलिस जवान ने तरूण के हाथों में हथकड़ी पहनाते हुये कहा।
"नहीं सर! मुझे छोड़ दीजिए। मैं अब कभी मरने की कोशिश नहीं करूँगा।" तरूण ने विनती की।
"छोड़ कैसे दे! उन चारों को मौत के मुहं तक ले जाने में तुम्हारा ही हाथ है। अब तुम पर चार-चार लोगों को जान से मारने का केस लगा है। अब तेरी सारी चर्बी बेटा जेल में निकल जायेगीं।" पुलिस जवान ने कहा।
"आप सच कह रहे है।" तरूण ने पुछा।
"क्या?" पुलिस जवान ने पुछा।
"यही की जेल जाकर मेरे शरीर की सारी चर्बी निकल जायेगी और मैं दुबला-पलता हो जाऊंगा।" तरूण ने आश्चर्य से पुछा।
"हां! एकदम सही है। तु इतना पतला हो जायेगा की दूर से नज़र भी नहीं आयेगा। अब चल!" पुलिस जवान ने कहा।
"अरे सर! आप पहले क्यों नहीं मिले। मुझे पता होता तो मैं बहुत पहले ये क्राइम कर चूका होता। चलिए। मुझे दुबला-पतला बना दीजिए।" प्रसन्नता से कहता हुआ तरूण उस पुलिस जवान के साथ हाॅस्पीटल के पीछे के दरवाजे से बाहर निकल गया।
अब आप सोच रहे होंगे की तरूण दुबला-पतला हुआ या नहीं! इस बात का तो पता नहीं लेकिन एक बात का पता चला है। वह यह की तरूण जेल जाकर प्रसन्न नहीं था। खुली हवा में सांस लेने वाला तरूण काल-कोठरी की घुटन सह नहीं पा रहा था। बिन पानी मछली की तरह तड़पने वाला तरुण अपनी आत्महत्या के प्रयास पर पछता रहा था। जेल प्रहरीयों की बर्बरता और अन्य  कैदियों का सख़्त और रूखा व्यवहार देखकर उसे कुछ ही दिनों में पता चल गया की मरना तो बहुत सरल है, जीवन को जीना बहुत कठीन है।
अलार्म की तीखी ध्वनि ने तरूण की नींद तोड़ी। सुबह के छः बज रहे थे। और यह समय तरूण का नियमित जाॅगिंग करने का होता था। चेहरे पर पसीने की बुंदें पोंछते हुये वह बिस्तर से उठ बैठा।
'भगवान का शुक्र है की ये सपना था। ठैंग गाॅड! अब सुसाइट करने का सोचूगां भी नहीं। न बाबा न!' तरूण ने दोनों कानों को पकड़ कर स्वयं से क्षमा मांगी। फ्रेश होकर वह घर से बाहर जाॅगिंग के लिए निकल पड़ा।

समाप्त
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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।

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लेखक--
जितेन्द्र शिवहरे
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