एक कहानी रोज़-88 (11/07/2020)

*निकम्मा-लघुकथा*

           "मुझसे मेरी मां ने आज तक काम करने को नहीं कहा, और तुम कह रही हो।" हरीश ने अनायास ही मज़ाक में पत्नी से कह दिया।
"ओह! तो मांजी ने तुम्हें निक्कमा बनाया है! तब ही मैं कहूं, घर के कोई काम में तुम हाथ क्यों नहीं बटाते?" रमा ने तैश में आकर कह दिया।
कुछ पलों की शांति पसर गयी। रमा के मुख से स्वयं के विषय में इतना सुनते ही हरीश मौन हो गया। निकम्मा शब्द उसके हृदय में जा धंसा। जिसकी दर्दनाक पीड़ा से वह तड़पने लगा। हरीश को मौन देख रमा को आत्मग्लानी ने घेर लिया। आवेश में आकर उसने अपने पति को निक्कमा तक कह दिया था। वह पछता रही थी। लेकिन अब हो भी क्या सकता था। धनुष से बाण छूट चूका था जिसकी मार से हरीश बुरी तरह घायल हो चूका था।
"सुनिए! मुझे माफ कर दीजिए! गुस्से में पता नहीं मैं क्या उल्टा-सीधा बोल गयी।" रमा ने हरीश से माफी मांगी।
"नहीं रमा। तुमने जो कुछ कहा वह सच है। और सच हमेशा कड़वा होता है। मुझे तुमसे कोई नाराज़गी नहीं है। मैं अपने आप से नाराज़ हूं और दुःखी भी।" हरीश ने अपने मौन रहने की वजह बतायी।
"मगर ऐसा क्यों? आप इतने व्याकुल क्यों हुये जा रहे है?" रमा ने पुछा।
"दरअसल रमा! ऑफिस में सभी मेरी कर्तव्यपरायणता की सौगन्ध खाते है। मेरी कार्य शैली से बहुत लोग प्रभावित है। कुछ तो मेरी ही देखा-देखी अपने कार्य में बदलाव तक ले आये है।" हरीश ने बताया।
"मुझे खुलकर बताइये।" रमा ने कहा।
"ऑफिस का प्यून जब अपने काम में लापरवाही करता है तब मैं उसकी प्रतिक्षा किये बगैर ही अपना काम स्वयं कर लेता हूं। उसकी मदद के बिना।"
"अपने सहकर्मीयों से तीस मिनिट पहले ऑफिस पहूंचता हूं और सबके चले जाने के बाद ऑफिस छोड़ता हूं। बाॅस मुझे सबसे अधिक भरोसेमंद समझते है। उनके लाखों रूपये मेरे पास सुरक्षित रहते है। काम कितना ही छोटा क्यों न हो मैं अपने ईगो को आड़े आये बिना ही उस काम कर देता हूं। वक्त़ आने पर ऑफिस की सफाई हो या अपने बाॅस को पानी पिलाना हो अथवा सहकर्मीयों की फाइल उठाकर उन्हें देना हो। मैं सभी काम बिना शर्म करता हूं। लेकिन आज घर के काम में तुम्हारा हाथ नहीं बंटाने के बदले तुमसे मुझे जो अपने लिए सुनने को मिला, वह मेरे लिए बहुत कष्टदायी है। मैं सोच भी नहीं सकता था कि जो आदमी अपने ऑफिस में इतना कर्मठ और ईमानदार है वो अपने घर के दायित्वों के प्रति इतना उदासीन है।" हरीश ने कहा।
रमा का पश्चाताप उसकी आंखों में साफ दिखाई दे रहा था। लेकिन हरीश ने उसे समझाया की वह अपना मन छोटा न करे। अकस्मात् उसके मुख से सच निकला है और सच की कद्र होनी चाहिये। अब से हरीश ऑफिस के साथ-साथ घर के कार्यों में भी रमा की मदद करने लगा। इससे रमा की बहुत मदद हो जाती थी। हरीश को यथार्थ में पता चला की औरतें घर में कितना सारा काम अकेली ही करती है। 'जब जागो तब संवेरा' मानकर हरीश ने घर और बाहर दोनों जगह अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराना सतत जरी रखा। रमा की नज़रों में अपने पति हरीश का सम्मान अब पहले से अधिक बढ़ गया था।

समाप्त
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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।

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लेखक--
जितेन्द्र शिवहरे
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