एक कहानी रोज़-98
*प्रतीक्षा-कहानी*
*स* ड़क किनारे चंदन अपनी बाइक सुधार रहा था। तब ही वहा से एक कार गुजरी, जो पुनः पलट कर चंदन के पास आकर रूकी। कार के कांच खुले। कार में से एक सुन्दर महिला ने बाहर झाका। देखने से लगा मानो वह महिला चंदन को पहचानती थी। चंदन ने कार की ओर देखा। मीना को देखकर उसके चेहरे पर आश्चर्य के भाव उभर आये।
"कैसे हो चंदन?" कार से उतरकर मीना ने पुछा।
"ठीक हूं।" चंदन ने औपचारिकता वश कहा।
"तुम अभी भी इस बाइक के साथ हो! तुम बिलकुल नहीं बदले?" मीना ने पूछा।
"मुझे यह बाइक पसंद है।" चंदन ने उत्तर दिया। चंदन की स्पष्ट वादिता से मीना परिचित थी। दोनों स्कूल में साथ थे। फिर काॅलेज भी साथ-साथ गये। मगर दोनों ने एक-दुसरे के प्रति प्रेम के भाव कभी उभरने नहीं दिये। मीना एक बहुउद्देशीय कम्पनी में सीए का कार्य करने शहर से बाहर चली गई। जबकी चंदन अधबीच में काॅलेज की पढ़ाई छोड़ इलेक्ट्रीशियन का कार्य करने लगा। मीना आगे और आगे निकलती गयी। मगर चंदन जहां पहले था वहीं आज भी है। मीना ने अपने परिवार के विरोध के बावजूद चंदन से विवाह करने की इच्छा जताई थी। किन्तु स्वयं से अधिक सफल मीना को स्वीकारने में चंदन का स्वाभिमान आड़े आ गया। आज इतने वर्षों के बाद अचानक अपने गृह शहर में मीना को पुनः देखकर चंदन पुरानी यादों से बाहर नहीं आ पा रहा था। चंदन बार-बार कुछ ढुंढ रहा था। उसने कार में ताक-झांक कर देखा। मगर वहां ड्राइवर के अलावा कोई नहीं था। चंदन बचते-बचाते मीना के मस्तक और गले पर नज़र दौड़ा देता। उसे कहीं कोई चिन्ह दिखाई नही दिये। जिससे यह निश्चित हो सके की मीना विवाहित है। चंदन की व्याकुलता मीना भांप चूकी थो। उसे आभास हो गया कि चंदन क्या खोज रहा है?
"तुमने अब तक शादी क्यों नहीं की?" चाय की चुस्कियां लेते हुये मीना ने चंदन से पुछा। पढ़ाई के दिनों में अक्सर सड़क से सटी टी-स्टाॅल पर दोनों चाय पीया करते थे। बहुत सालों के बाद आज पुनः वे चाय पी रहे थे। वह भी एक साथ।
"तुम्हें कैसे पता कि मैंने शादी नहीं की?" चंदन ने पुछा।
"जैसे तुम्हें पता चल गया कि मैंने भी अब तक शादी नहीं की।" मीना ने जवाब दिया।
चंदन का संशय निश्चय में परिवर्तित हो गया था। उसे मन ही मन प्रसन्नता भी थी। मगर अब इस प्रसन्नता का क्या अर्थ? चालिस वर्ष की आयु में पुनः उन्हीं परिस्थितियों को सजीवता से जीना बहुत ही कठिन कार्य था। मीना जहां सफलता के शिखर पर थी, वही चंदन अब भी इलेक्ट्रिसीटी फीटींग का कार्य कर रहा है। अपने चेहरे को बाइक के कांच में देखकर चंदन पुनः गंभीर हो गया।
"चंदन! मुझे पता है कि तुम्हारे और मेरे बीच जो दुरी है वह मात्र हम दोनों के जाॅब को लेकर है। यदि हम दोनों अपने-अपने कार्यों को किनारे रखकर सोचे तब!" मीना बोली।
"सोचने का समय अब कहां है मीना? वह समय अब नहीं। तुम बहुत बेहतर की अधिकारी हो। मुझे अपने आप से कोई शिकायत नही है।" चंदन नपे-तुले वाक्यों में कितना कुछ कह गया।
"निश्चित ही तुम सही हो। मुझे बहुत से प्रस्ताव मिले जो मुझसे भी अधिक सफल थे। किन्तु उन सभी में आगे और आगे बढ़ने की होड़ थी। किसी भी परिस्थिति में उन्हें आगे निकलना था। मुझसे भी आगे।" मीना बोली।
"इसमें गलत क्या है?" चंदन ने पुछा।
"सही और गलत के फेर में मैं उलझना नहीं चाहती थी। इसीलिए किसी को स्वीकार नहीं किया।" मीना बोली।
एक बार फिर पुनः वही स्थिति स्वतः निर्मित हो गयी, जिससे दोनों बहुत पहले गुजर चूके थे। मीना अब भी चाहती थी कि चंदन उसे स्वीकार ले। बालों में सफेदी की चमक चंदन से कुछ न कुछ कह जाती। मीना जानती थी कि अविवाहित चंदन अब भी उसे प्रेम करता है। चाय पीकर दोनों लौटना चाहते थे। किन्तु कोई भी इतनी जल्दी विदा होने को तैयार नहीं था। चंदन दोनों के रिश्तें को लेकर अब भी दुविधा में था जबकी मीना हमेशा की तरह निडर और सुलझी थी। चंदन को अपनाने में उसे कोई परेशानी नहीं थी। मगर वह यह भी जानती थी कि पहल उसे ही करनी होगी।
"चंदन! हम दोनों अकेले-अकेले चल रहे है। आगे का सफर यदि हम मिलकर तय करे तो सफ़र सरलता से कट जायेगा। तुम स्वयं को कम मत आंको।" मीना ने चंदन का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा।
"वे लोग जो किसी भी परिस्थिति में सिर्फ अपना लाभ चाहते है, उनके समतुल्य तुम्हारे नैतिक कर्तव्य अधिक मुल्यवान है। तुम्हारे पास असीम धैर्य और गज़ब का संतोष है। जो उनके पास नहीं। तुम सभी के हितार्थ सोचते हो। निरंतर कर्म पर विश्वास और अपनो के प्रति अपनत्व की प्रबल भावना तुम्हे और भी अधिक शक्तिशाली बनाती है। रिश्तों में तुम्हारी गहरी आस्था है। कार्य कैसा है, इसकी परवाह करना तुम्हारे स्वभाव में नहीं। नि:स्वार्थी स्वभाव तुम्हारा आकर्षण है। जबकी कुछ मात्र स्वयं को लाभार्थी बनाने के कार्यों में अनवरत लगे है।" मीना बोली। चंदन द्रवित हो उठा। मीना उसे कितना प्रेम करती थी उसे अब आभास हो गया था। वर्षों से वह चंदन की प्रतिक्षा कर रही थी। चंदन स्वयं भी मीना की प्रतीक्षा कर रहा था।
"मगर मीना...अब इतने सालों बाद...?" चंदन बोला।
"हा चन्दन! अभी नहीं तो कभी नहीं। सौभाग्य से हमारा मिलना दौबारा हुआ है। इस अवसर को अब हमें युं ही जाने नहीं देना चाहिये।" मीना बोली। चदंन की दुविधा समाप्त हो चूकी थी। मीना ने उसे अंतरात्मा तक प्रेम किया था जो अन्य कहीं से उसे मिलना सरल नहीं था। चंदन ने अपने अंतरमन की आवाज सुन ली। उसने मीना को अपनी बाइक पर बिठाया। वह मीना को अपने घर ले जाना चाहता था। दोनों के विवाह की प्रथम बातचीत चंदन के घर से ही आरंभ होना थी।
समाप्त
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प्रमाणीकरण-- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।
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लेखक--
जितेन्द्र शिवहरे
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*प्रतीक्षा-कहानी*
*स* ड़क किनारे चंदन अपनी बाइक सुधार रहा था। तब ही वहा से एक कार गुजरी, जो पुनः पलट कर चंदन के पास आकर रूकी। कार के कांच खुले। कार में से एक सुन्दर महिला ने बाहर झाका। देखने से लगा मानो वह महिला चंदन को पहचानती थी। चंदन ने कार की ओर देखा। मीना को देखकर उसके चेहरे पर आश्चर्य के भाव उभर आये।
"कैसे हो चंदन?" कार से उतरकर मीना ने पुछा।
"ठीक हूं।" चंदन ने औपचारिकता वश कहा।
"तुम अभी भी इस बाइक के साथ हो! तुम बिलकुल नहीं बदले?" मीना ने पूछा।
"मुझे यह बाइक पसंद है।" चंदन ने उत्तर दिया। चंदन की स्पष्ट वादिता से मीना परिचित थी। दोनों स्कूल में साथ थे। फिर काॅलेज भी साथ-साथ गये। मगर दोनों ने एक-दुसरे के प्रति प्रेम के भाव कभी उभरने नहीं दिये। मीना एक बहुउद्देशीय कम्पनी में सीए का कार्य करने शहर से बाहर चली गई। जबकी चंदन अधबीच में काॅलेज की पढ़ाई छोड़ इलेक्ट्रीशियन का कार्य करने लगा। मीना आगे और आगे निकलती गयी। मगर चंदन जहां पहले था वहीं आज भी है। मीना ने अपने परिवार के विरोध के बावजूद चंदन से विवाह करने की इच्छा जताई थी। किन्तु स्वयं से अधिक सफल मीना को स्वीकारने में चंदन का स्वाभिमान आड़े आ गया। आज इतने वर्षों के बाद अचानक अपने गृह शहर में मीना को पुनः देखकर चंदन पुरानी यादों से बाहर नहीं आ पा रहा था। चंदन बार-बार कुछ ढुंढ रहा था। उसने कार में ताक-झांक कर देखा। मगर वहां ड्राइवर के अलावा कोई नहीं था। चंदन बचते-बचाते मीना के मस्तक और गले पर नज़र दौड़ा देता। उसे कहीं कोई चिन्ह दिखाई नही दिये। जिससे यह निश्चित हो सके की मीना विवाहित है। चंदन की व्याकुलता मीना भांप चूकी थो। उसे आभास हो गया कि चंदन क्या खोज रहा है?
"तुमने अब तक शादी क्यों नहीं की?" चाय की चुस्कियां लेते हुये मीना ने चंदन से पुछा। पढ़ाई के दिनों में अक्सर सड़क से सटी टी-स्टाॅल पर दोनों चाय पीया करते थे। बहुत सालों के बाद आज पुनः वे चाय पी रहे थे। वह भी एक साथ।
"तुम्हें कैसे पता कि मैंने शादी नहीं की?" चंदन ने पुछा।
"जैसे तुम्हें पता चल गया कि मैंने भी अब तक शादी नहीं की।" मीना ने जवाब दिया।
चंदन का संशय निश्चय में परिवर्तित हो गया था। उसे मन ही मन प्रसन्नता भी थी। मगर अब इस प्रसन्नता का क्या अर्थ? चालिस वर्ष की आयु में पुनः उन्हीं परिस्थितियों को सजीवता से जीना बहुत ही कठिन कार्य था। मीना जहां सफलता के शिखर पर थी, वही चंदन अब भी इलेक्ट्रिसीटी फीटींग का कार्य कर रहा है। अपने चेहरे को बाइक के कांच में देखकर चंदन पुनः गंभीर हो गया।
"चंदन! मुझे पता है कि तुम्हारे और मेरे बीच जो दुरी है वह मात्र हम दोनों के जाॅब को लेकर है। यदि हम दोनों अपने-अपने कार्यों को किनारे रखकर सोचे तब!" मीना बोली।
"सोचने का समय अब कहां है मीना? वह समय अब नहीं। तुम बहुत बेहतर की अधिकारी हो। मुझे अपने आप से कोई शिकायत नही है।" चंदन नपे-तुले वाक्यों में कितना कुछ कह गया।
"निश्चित ही तुम सही हो। मुझे बहुत से प्रस्ताव मिले जो मुझसे भी अधिक सफल थे। किन्तु उन सभी में आगे और आगे बढ़ने की होड़ थी। किसी भी परिस्थिति में उन्हें आगे निकलना था। मुझसे भी आगे।" मीना बोली।
"इसमें गलत क्या है?" चंदन ने पुछा।
"सही और गलत के फेर में मैं उलझना नहीं चाहती थी। इसीलिए किसी को स्वीकार नहीं किया।" मीना बोली।
एक बार फिर पुनः वही स्थिति स्वतः निर्मित हो गयी, जिससे दोनों बहुत पहले गुजर चूके थे। मीना अब भी चाहती थी कि चंदन उसे स्वीकार ले। बालों में सफेदी की चमक चंदन से कुछ न कुछ कह जाती। मीना जानती थी कि अविवाहित चंदन अब भी उसे प्रेम करता है। चाय पीकर दोनों लौटना चाहते थे। किन्तु कोई भी इतनी जल्दी विदा होने को तैयार नहीं था। चंदन दोनों के रिश्तें को लेकर अब भी दुविधा में था जबकी मीना हमेशा की तरह निडर और सुलझी थी। चंदन को अपनाने में उसे कोई परेशानी नहीं थी। मगर वह यह भी जानती थी कि पहल उसे ही करनी होगी।
"चंदन! हम दोनों अकेले-अकेले चल रहे है। आगे का सफर यदि हम मिलकर तय करे तो सफ़र सरलता से कट जायेगा। तुम स्वयं को कम मत आंको।" मीना ने चंदन का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा।
"वे लोग जो किसी भी परिस्थिति में सिर्फ अपना लाभ चाहते है, उनके समतुल्य तुम्हारे नैतिक कर्तव्य अधिक मुल्यवान है। तुम्हारे पास असीम धैर्य और गज़ब का संतोष है। जो उनके पास नहीं। तुम सभी के हितार्थ सोचते हो। निरंतर कर्म पर विश्वास और अपनो के प्रति अपनत्व की प्रबल भावना तुम्हे और भी अधिक शक्तिशाली बनाती है। रिश्तों में तुम्हारी गहरी आस्था है। कार्य कैसा है, इसकी परवाह करना तुम्हारे स्वभाव में नहीं। नि:स्वार्थी स्वभाव तुम्हारा आकर्षण है। जबकी कुछ मात्र स्वयं को लाभार्थी बनाने के कार्यों में अनवरत लगे है।" मीना बोली। चंदन द्रवित हो उठा। मीना उसे कितना प्रेम करती थी उसे अब आभास हो गया था। वर्षों से वह चंदन की प्रतिक्षा कर रही थी। चंदन स्वयं भी मीना की प्रतीक्षा कर रहा था।
"मगर मीना...अब इतने सालों बाद...?" चंदन बोला।
"हा चन्दन! अभी नहीं तो कभी नहीं। सौभाग्य से हमारा मिलना दौबारा हुआ है। इस अवसर को अब हमें युं ही जाने नहीं देना चाहिये।" मीना बोली। चदंन की दुविधा समाप्त हो चूकी थी। मीना ने उसे अंतरात्मा तक प्रेम किया था जो अन्य कहीं से उसे मिलना सरल नहीं था। चंदन ने अपने अंतरमन की आवाज सुन ली। उसने मीना को अपनी बाइक पर बिठाया। वह मीना को अपने घर ले जाना चाहता था। दोनों के विवाह की प्रथम बातचीत चंदन के घर से ही आरंभ होना थी।
समाप्त
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प्रमाणीकरण-- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।
©®सर्वाधिकार सुरक्षित
लेखक--
जितेन्द्र शिवहरे
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