किराये का कमरा

 एक कहानी रोज़--102 (25/07/2020)

*किराये का कमरा-संस्मरण*

     *एक* सज्जन पुरूष जिनकी आयु लगभग पचास-पचपन की रही होगी, अपनी बाइक से उतरकर सीधे हम लोगों के पास आ गये। मैं अपने मित्र के पिताजी के साथ बैठा हुआ था। शाम का समय मैं अक्सर वहां जाया करता था। मित्र और उसके पिजाती से मेरी खूब बनती थी। नगर के मुख्य के चौराहे से लगी रिंग-रोड पर उनका दो मंजिला मकान था। नीचे वे स्वयं रहते थे और ऊपर के कुछ कक्ष किराये पर दे रखे थे। उन्हीं के आगंन पर कुर्सियां बिछाकर हम लोग यहां-वहां की बातें कर टाइम पास कर रहे थे। वे सज्जन भी एक कक्ष किराये पर लेने के उद्देश्य से आये थे। उन्हें देखने से सम्पन्नता झलक रही थी। फिर मात्र एक कमरा उन्हें किराये पर क्यों चाहिये था? यह हम सभी के लिए कौतुहल का विषय बनता जा रहा था। उन्होंने बताया की पास ही उनकी एक निजी स्कूल थी जिसके वे स्वामी है। असल बात बताने से वे कतरा रहे थे। क्योंकी हम चार-पांच लोगों की नज़रे उन्हीं सज्जन पर जमीं थी। आखिरकार उन्हें बताना ही पड़ा की उन्हें वह कमरा क्यों चाहिये। दरअसल किराए का कक्ष वे अपनी जन्म दात्री मां के लिए मांग रहे थे। हम सभी का मुंह फटा-सा रहा गया। यह किसी महान आश्चर्य से कम न था। मित्र के पिताजी ने पुछा की माताजी यहां अकेली कैसी रहेंगी? तब सज्जन बोले की वे अपनी माताजी की सभी व्यवस्थाएं करना सुनिश्चित कर देंगे।

बीच-बीच में उनके मोबाइल पर फोन भी आ रहे थे। फोन पर की गयी कुछ बातें हमारे कानों में भी पड़ी। ये उन सज्जन की धर्मपत्नी ही थी जो बार-बार उन सज्जन से फोन पर अपनी बुढ़ी सास के लिए किराये के कक्ष की उपलब्धता सुनिश्चित किये जाने की जानकारी ले रही थी।

सज्जन अधीर हुये जा रहे थे। किन्तु मित्र के पिताजी भी कम न थे। व्यंग्य बाण चलाना तो कोई उनसे सीखे। उन्होंने एक के बाद एक कई शब्द भेदी बाण छोड़कर सज्जन को हताहद कर दिया। किन्तु अपनी तीव्र मांग पुर्ती के आगे सज्जन सबकुछ सह गये। उन्होंने कक्ष हासिल करने के बदले यहां तक कह दिया की मात्र दिन से लेकर रात होने तक ही उनकी मां यहाँ रहेंगी। रात को वे उन्हें अपने साथ ले जाया करेंगे। रात भर वो उन्हीं के साथ रहेगी। पौ फटते ही वे अपनी मां को मित्र के पिताजी के कमरे में जमा करवा देंगे। यह क्रम चलता रहेगा। भोजन और नाश्ते की व्यवस्था वो शहर के नामचीन होटल से करवायेंगे। मांजी को नहलाने-धुलाने तथा साफ-सफाई के लिए वे एक बाई की नियुक्ति कर देंगे। वे कमरे का किराया अधिक और अग्रिम देने को भी तैयार थे। उनकी प्रबल अभिलाषा के आगे मित्र के पिताजी तैयार भी जाते किन्तु मित्र ने उन्हें ऐसा करने से रोका। मित्र की मां भी वहां आ पहूंची थी जिन्होंने कक्ष न देने की वकालत कर दी। उस दिन यदि मित्र के पिताजी वह कमरा उन सज्जन को किराये पर दे देते तो हो सकता था की ये चलन बन जाता। और वे लोग जो अपने बुढ़े माता-पिता को वृद्ध आश्रम भेजने का सोच रहे थे किन्तु समाज के डर से ऐसा नहीं कर पा रहे थे, उनके लिए किराये का कमरा, वृध्द आश्रम का विकल्प बनकर उभरता। धीरे-धीरे यह एक ऐसी व्यवस्था बन जाती जिसे स्वीकार किये जाने में बच्चों को कोई ऐतराज नहीं होता। फिर तो गली-गली और मोहल्ले-मोहल्ले ऐसे बहुत से वृद्ध आश्रम खुल जाते। जहां बुढ़े माता-पिता एक कमरे में अपना शेष जीवन काटते हुये नज़र आते।

वैसे यदि ऐसा कहीं हो भी रहा हो तो मेरी जानकारी में नहीं है।


समाप्त 

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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।


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लेखक--

जितेन्द्र शिवहरे 

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