बुढ़ापे की लाठी--लघुकथा

 

       *बुढ़ापे की लाठी--लघुकथा*

    *बुढ़े* पिता की देखभाल के लिए बाई रखने की सहमती परिवार में बन चूकी थी। शंभुनाथ सेवानिवृत्त थे। तीनों बेटों को सुव्यवस्थित जीवन देकर ढलती आयु और ढेरों बीमारियां लेकर पलंग पर जीवन का आखिरी समय काटने पर विवश थे। कुछ दिनों से शंभूनाथ बाथरूम तक नहीं जा पा रहे थे। उनका शयनकक्ष बदबू से नहा रहा था। दोनों बेटे और बहुये प्रतिदिन की इस दुर्गन्ध से परेशान हो गये। बड़े बेटे तन्मय और मंझले विशेष ने पिता शंभूनाथ की उचित देखभाल के लिये अखबार में बाई के लिये विज्ञापन दे दिया। दोनों बहुयें स्मृति और लक्ष्मी की भी सहमति थी। बस अब छोटे बेटे केवल की रजामंदी जानना थी। जो आवश्यक थी। तीनों भाईयों में सबसे छोटे भाई केवल की सलाह सर्वाधिक महत्वपूर्ण थी। वह सरकारी उच्च पद पर था। उस पर पिता का लाड़ला भी। केवल का जल्दी ही यहां ट्रांसफर यहां होने वाला था। परिवार को विश्ववास था की अत्यधिक व्यस्त और बैसाखी का सहारा लेकर चलने वाला केवल उनके इस विचार पर सहमती अवश्य दे देगा।

पिता शंभूनाथ की देखभाल के लिये अखबार में बाई के लिये विज्ञापन देखकर केवल मौन था। उसे याद आया कि शंभूनाथ ने किस प्रकार उसे नौकरी पर चढ़ाने के लिये अनगिनत प्रयास किये थे। पोलियो की चपेट में आकर एक पैर से लचक कर चलने वाला केवल घर से बाहर निकलने में भी संकोच करता। शंभूनाथ ने न केवल उसके अंदर स्वयं के प्रति विश्वास जगाया अपितू उसे प्रतियोगी परिक्षाओं में बैठने हेतु प्रेरित किया। राज्य के बाहर हो या शहर दर शहर, शंभूनाथ केवल को परिक्षा दिलवाने ले जाते। कभी पीठ पर बैठाते तो कभी स्वयं चलने के उत्साह भरते। रात में केवल के पैरों की मालिश भी करते। पिता का स्वयं के प्रति समपर्ण को देखकर केवल और भी अधिक मेहनत से पढ़ाई करता। पिता-पुत्र की संयुक्त मेहनत रंग लाई। केवल वाणिज्य कर अधिकारी के रूप चयनित हुआ। पांच सालों के बाद गृह जिले में केवल का तबादला हुआ था। पिता के शयनकक्ष में जाते ही केवल की आंखे नम हो गयी। पिता-पुत्र परस्पर गले मिलकर बहुत आनंदित थे। फिर वही हुआ जिसका सभी को डर था। केवल ने संपूर्ण परिवार सदस्यों के मध्य घोषणा कर दी। वह किसी बाहरी व्यक्ति की सेवायें अपने पिता शंभूनाथ हेतु नहीं लेगा। उसने यह भी कहा कि तीन बहुयें और तीन बेटों के होते पिता किसी बाई पर आश्रित रहे यह उचित नहीं है। यदि घर की बहुयें अपने ससुर की सेवा नहीं करना चाहती तो कोई बात नहीं। किन्तु बेटों को तो अपना कर्त्तव्य निभाना चाहिए। क्योंकि शंभूनाथ ने तीनों बेटों में कभी कोई अंतर नहीं समझा। सम्मुख खड़े दोनों बेटों को मौन देखकर केवल ने अपना निर्णय सुना दिया। कोई करे न करे किन्तु पिता के जीवन के आखिरी क्षणों वह शंभूनाथ की सेवा करेगा। यह उसका अधिकार भी है और कर्तव्य भी। जिसे वह किसी बाहरी व्यक्ति से सांक्षा नहीं करेगा। शंभूनाथ पलंग पर से ही केवल को देख रहे थे। उनके चेहरे पर हल्की मुस्कान थी और आंखे भीग चूकी थी। जो फसल शंभूनाथ ने बोई थी वह केवल के रूप में सामने खड़ी होकर लहलहा रही थी।



समाप्त 

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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।


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लेखक--

जितेन्द्र शिवहरे 

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