घर आयोजन - व्यंग (मालवा का मज़ा)
*एक कहानी/व्यंग रोज़-117*
*घर आयोजन - व्यंग (मालवा का मज़ा)*
*शादी* ब्याह या कोई भी पारिवारिक आयोजन जब घरों में किया जाता है, उसमें कुछ रिश्तेदार ऐसे होते है जिन्हें कोई परवाह ही नहीं होती की आपके यहां क्यां कार्यक्रम है? कार्यक्रम में कितने लोग आये है? आपने कितना खर्चा किया है? आपको कहीं कोई परेशानी तो नहीं है? न ही वो किसी से मिलेगें और न ही किसी का हाल-चाल जानेगें। ये लोग अपनी मस्ती में मस्त रहते है। आपके यहां रिसेप्शन चल रहा हो , तब भी ये आपके बीच नहीं बैठेंगे। आप बुला-बुला के थक जायेगें कि आईये साहब यहां कुर्सी पर बैठ जाईये। मगर नहीं। मजाल है की कोई इन्हें अपनी जगह से एक इंच भी हिला सके। बार- बार बुलाने पर ये खजूवाकर (झुंझलाहट) बोल उठेंगे- "बैठी रिया हूं यार! कई छाती पे चढ़ी जइयों रियों है। तम भी यार नेरा ढूंठ हो।" ऐसा बोलकर थम्म से बैठेगें। मानो मेजबान पर एक और एहसान कर दिया हो।
ये रिश्तेदार आपको कहीं कोने-खोपचे में या आयोजन स्थल के बाहर किसी पेड़ के नीचे, गाड़ी के पीछे सबसे अलग-थलग खड़े मिलेगें। न जाने कौन-सी गोपनीय बातें करते रहेगें? इतना ही नहीं। ये लोग इतना धीरे-धीरे बोलते है की इनकी बातें आप माइक्रोफोन लगाकर भी नहीं सुन नहीं सकते।
अच्छा कुछ रिश्तेदार तो इतने बड़े वाले होते है की शादी समारोह यहां हो रहा होता है और ये पट्ठे एक-दो किलोमीटर दूर अलग ही अपनी खिचड़ी पका रहे होते है। इन्हें तो ये भी पता नहीं होता की हम किसकी शादी में आये है। कई बार तो ये किसी दुसरे की शादी में खाना खा-पीकर आ जाते है। और रूपये का लिफाफा भी दे आते है। फिर आकर बोलते है "मैंने बोला था लड़की के बाप को की थोड़ा व्यवहार भी कमाऔ?
सिर्फ पैसा कमाने से कुछ नही होता। मगर मेरी एक नी सुनी उस भले आदमी ने। और आज देखो, हमारे शिवा कोई नी आया शादी में?"
अच्छा दूसरा दोस्त थोड़ा पढ़-लिखा होता है। वो इसी बात को आगे बढ़ाता है - "हां सई कई तुने भाई। अब ये यही देखो लो, हम तो आये है लेकिन हमारे बीवी-बच्चे आये ही नहीं शादी में। जबकी घर से हम बीवी बच्चों के साथ ही चलकर यहां आये थे।"
नशे में ये इतने धूत रहेंगे की शादी में कहीं दूसरे मेहमान भांप न ले, गेट के बाहर ही एक-दुसरे के मुहं में मुहं घूसेड़ के पुछेगें- "यार देख तो मेरे मुहं से बांस तो नी आ री।"
अच्छा , मुहं से शराब के भपकारे वो दूसरा दोस्त भी छोड़ रहा होता है। लेकिन तब भी वह दूसरा क्या बोलेगा- "नी यार! ज्यादा थोड़ी अई री है। यो ल बाबा इलायची चब्बई ले। ई से बांस को नी आवेगी।"
अब इन्हें खाना-खाने बिठाना भी किसी चुनौती से कम नहीं होता। आपने जैसे ही इन्हें कहा - "आईये खाना खा लिजिए।"
तो ये कहेंगे- "खइयीलेंगा हो। अपण बाद म साथे जिमागां। अपणोंई तो घर है। तम तो दूसरा न के देखों।"
इन सब के बीच- बीच में कोई एक महिला बराबर आपके कान में नश्तर जरूर चूभोती रहेगी। वो बार - बार आपके कान में आकर कहेगीं - "देख रे कालूणा , वा उज्जैन का फूफा जी नीचे नी बैठी सके हो। उनके पांव को एक्सीडेंट हुयोल है। उनके कुर्सी पे जिमई देजे, हो। नी तो वी बापड़ा भुख्खया ही रे जावेगा।" आपकी भुख प्यास का तो किसी कोई ख्याल नहीं है।
जब आप एक दो बार और बिना खाना खाये मेहमान से खाना खाने का आग्रह करेगें तब ये महाराज गुस्से में बोल उठेंगे- "जिमीलेंगा यार! कई तो दियों है। कई एकज बात की रट लगयी राखी है। खाना खइलों, खाना खइलो हूंअं।"
खइयीलूगां खइयीलूगां कर रात के तीन बजा देगें। और खाने में अब बचा क्या? गुलाब जामुन और श्रीखंड खत्म हो गये।
अब रात के तीन बजे ये महाराज चिल्लायेंगे- 'हूंअं! म्हारे तो खाणों ही नी मिलीयों। कई भूखा नंगा है ई लोग। मेहमाण के वास्तें ही खाणों खुटी ग्यों। इत्तों जराक सो खानों बणाओं। ब्याव करिरिय्या है के मजाक करिरिय्या है। म्हनें एक भी गुलाब जामुण चखिईयोज नी अणि खतम हुईग्या। नी म्हारे तो गुलाब जामुण खाणों है। गुलाब जामुण तो म्हारें अबीईच चईये। कई से बी लाव।"
बेचारे मेजबान रात के चार बजे होटल की तरफ भागेंगे। और वो होटल वाला जो सुबह की पहली चाय बना रहा होता है उससे गुलाब जामुन लाकर इन कुपित महाराज को मनाकर खिलायेगें।
कुछ लोग तो शादी से संतुष्ट दिखाई देंगे लेकिन ये लोग कभी संतुष्ट नहीं होगें। जाते जाते भी बोलेंगे- "कई यार मजो नी आयो ह नी। उना भुरा की सादी में इंदौर ग्या था, वां केत्तो मजों आयों थो है नी।"
और कुछ ज्ञानी यहां भी अपना ज्ञान तो जरूर बांटेगे। "देखो भाई लोग ! लड़की वालो की जसी ऐवस्था थी उनाने उसे बढ़ियो ज कियो। थोड़ी-बहुत कमी न तो सभी में री जाये। हां! ऐत्तो तो कऊं की श्रीखंड अच्छो नी बनाओं। फिको फस लग्यों म्हारें तो। ऊर वू लाड़ा के जो कार दी न दहेज म। म्हारे तो ऊ पुरानी लागी री है। तमने देखीयों नी। जीप के पहिईय्या न में कीच्चड़ घुसीयों थो। नयी गाड़ी न के पहिईय्या न में कदी कीच्चड़ घुसे कई। अपणों लाडी को बाप दिनेशियां जबरों खेल खेली ग्यों हैं।"
एक विषेश किस्म के जीव भी आपको इन पारिवारिक कार्यक्रम में मिलेंगे, जो एक गिलास भी इधर से उठाकर उधर नहीं रखेगें मगर आपके पास आकर बार-बार पुछेंगे- "म्हारे लायक कोई काम हो तो बता दीजो हो। शर्माजो मत।"
समाप्त
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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।
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लेखक--
जितेन्द्र शिवहरे
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