एक कहानी रोज़ - 120


*आयोडेक्स - कहानी*


           *रविवार* की सुबह माया की कमर का दर्द और भी अधिक बढ़ गया। कल रात ही उसने रजनीश से कहा था की उसकी कमर पर आयोडेक्स मल दे। मगर रजनीश अपने मोबाइल में ऐसे खोये थे की माया की बात सुनी-अनसुनी करते रहे। कुछ देर बाद वे घोड़े बेचकर सो भी गये। मजबुरन माया ने पेन किलर टेबलेट ली और वह भी सौ गयी। सुहब सबसे पहले उसे ही उठना था। मगर आज चाहकर भी वह बिस्तर से उठ नहीं पा रही थी। कमर का दर्द आज उसकी जान लेने पर ऊतारू था। किन्तु बिस्तर से उठना उसकी मजबुरी थी। सुहब-सुबह बाबुजी को चाय नहीं मिली तो सासु मां के कोप का भाजन उसे ही बनना होगा। और फिर शुरू होगी दिन-भर चलने वाली किचकिच। हिम्मत कर माया ने बिस्तर छोड़ना ही उचित समझा। स्नान आदि से निवृत्त होकर उसने पुजाघर में जाकर सर्वप्रथम पुजा की। उसके बाद रसोईघर में जा घुसी। वहां से जल्दी बाहर निकल पाना आज संभव नहीं था। क्योंकी आज रविवार था और आज सभी सदस्यों की मनपसंद चीजें बनायी जानी थी। माया किचन में काम करते हुये बार-बार अपनी कमर सहला रही थी।

तब ही सासु मां नें आवाज़ लगायी-

"अरे बहु! अंदर से आयोडेक्स की शीशी तो ला दे जरा।"

"जी मां जी।" माया ने कहा। उसने गैस की लौ कम की और आयोडेक्स की शीशी लेने अपने बेडरूम में चली गयी। उसने ड्राज में से आयोडेक्स बाम निकाला और ड्राईंग रूम में बैठी अपनी सास को लाकर दे दिया। सासु ने मां ने तुरंत बाम निकाला और अपने पति के घुटनों पर मलना आरंभ कर दिया। ससुर की आंखे बंद थी। वे अपने घुटनों की मालिश पर आनंद का अनुभव कर रहे थे। कुछ समय के बाद ससुर जी ने सासु मां की कमर पर वही बाम मला। सासु मां प्रसन्न होकर बाम लगवा रही थी। रसोईघर से माया यह सब देख रही थी। काश! कोई उसकी भी कमर पर बाम मल देता तो उसे भी इस दर्द की कराहना से थोड़ा छुटकारा मिला जाता। माया ने अपने बेटे बिट्टु से भी कहा था कि उसकी कमर पर आयोडेक्स मल दे। लेकिन उसे तो अपने दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलने जाने की इतनी जल्दी थी कि "आकर लगा दुंगा मां" कहता हुआ घर से बाहर निकल गया। जल्दी-जल्दी में उसने नाश्ता तक नहीं किया। अब माया की सारी उम्मीद लाजवंती पर टिकी थी। अब वह लाजवंती से ही कहेगी की उसकी कमर पर बाम मल दे। मगर होनी को कुछ और ही मंजुर था। लाजवंती ने फोन पर कह दिया की आज वह काम पर नहीं आ सकेगी। उसके बेटे की तबीयत खराब है। 'यह दुःख भी आज ही आना था।' वह सोचने लगी। अब उसका पुरा दिन कैसे निकलेगा? किससे कहे? कहां जाए? कमर का दर्द कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था। दर्द के मारे उसका किसी काम में मन नहीं लग रहा था। किचन में काम करते हुये कभी-कभी बर्तन उसके हाथ से छुट जाते। जो नीचे फर्श पर गिरकर भयंकर गर्जना करते। इस आवाज़ से भी परिवार के सदस्यों को कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता। आज अगर उसकी अपनी बेटी होती तो निश्चित ही आज उसे इतनी पीड़ा सहनी नहीं पड़ती। वह अधिकार से अपनी बेटी को बाम मलने का कह देती। उसकी बेटी भी खुशी-खुशी अपनी मां की कमर पर आयोडेक्स मल देती। मगर अफसोस। बिट्टू के हो जाने के बाद तो जैसे रजनीश की सभी मुरादे पुरी हो गयी थी। मां-बाबुजी भी दूसरी संतान नहीं चाहते थे। अततः माया की बेटी की मां बनने की अभिलाषा पुरी नहीं हो सकी।

बाबूजी और रजनीश नाश्ता कर रहे थे। माया नाश्ता परोसदारी कर रही थी। मां जी यकायक उठी और अपनी बहु का हाथ पकड़कर उसे बेडरूम की ओर ले गयीं।

"लेट जा बहू।" माया की सास पलंग के पास पहूंचते ही माया से बोली।

"लेकिन मां जी...क्यों!" माया के गले में शब्द अटक गये।

"मुझे सब पता है बहू! सास-बहु होने से पहले हम दोनों एक औरत है। और औरत ही औरत का दर्द नहीं समझेंगी तो फिर कौन समझेंगा? हम दोनों में कितने ही मतभेद और कहासुनी हो लेकिन इन सबके बाद भी हमें एक-दुसरे के सुख-दुःख का खयाल तो रखना चाहिए न।" मां जी ने कहा।

माया बिना कुछ कहे बिस्तर पर लेट गयी। उसकी सास माया की कमर पर आयोडेक्स मलने लगी। माया को आज युं लगा जैसे की वह अपने मायके में अपनी मां के हाथों से कमर पर आयोडेक्स की मालिश करवा रही हो। कमर दर्द तो अब भी था मगर अब उस दर्द को अनुभव करने वाली वह अकेली नहीं थी।


समाप्त 

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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।


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लेखक--

जितेन्द्र शिवहरे 

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