बदलाव-लघुकहानी

   एक कहानी रोज़-125 (16/08/2020)


  *बदलाव-लघुकहानी*


         *हमेशा* हंसता-खेलता हुआ रिषभ शादी के छः महिने बाद ही मुरझा गया था। उसने अपने वैवाहिक जीवन की जो कल्पना की थी वह हकीकत से कोसो दूर थी। घर में आये दिन के लड़ाई-झगड़ों ने उसका सुख-चैन छीन लिया था। उसकी हालत किसी से छिपी नहीं थी। बहुत दिनों के बाद वह अपने पड़ोसी रामधारी के पास बैठा था। रामधारी शादि-शुदा जीवन में बड़ा लम्बा अनुभव रखते थे। रामधारी और उनकी पत्नी के बीच अंतर्कलह को देख-सुन कर रिषभ बड़ा हुआ था। रामधारी की अपने परिवार में बहुत चलती थी। उसकी आज्ञा के बिना घर में पत्ता तक नहीं हिलता था। उसकी पत्नी रीना हर समय रामधारी के आगे-पीछे सेवार्थ तत्पर दिखाई देती थी। जो विवाह के इतने वर्षों बाद भी एक सेविका ही थी।

रामधारी की ही भांति मोहल्ले के अन्य वरिष्ठ विवाहित पुरूष भी अपनी बीवी को परिवार की एक सेविका ही समझते आये थे। उन सभी की धर्म पत्नियां अपने-अपने पति को परमेश्वर का ही अंश समझती आ रही थी। अपने आसपास विवाहित महिलाओं के गऊ समान व्यवहार को देखकर रिषभ मान चुका था की उसकी धर्मपत्नी भी इसी समान व्यवहार वाली होगी जैसे वह अपने मोहल्ले में देखता और सुनता आया था।

रिषभ का दुःख और उसके चेहरे पर निराशा के भाव रामधारी भांप चुके थे। वे बोले - "रिषभ! समय के साथ परिस्थितियां बदलती है और उसे स्वीकारने में ही भलाई है।"

"लेकिन ये सब मेरे ही साथ क्यों! मुझे वह सब क्यों नहीं मिला जो आपको या दुसरे पुर्व शादी-शुदा पुरूषों को परम्परागत अधिकार है?" रिषभ बिलख पड़ा।

"वर्तमान युग पर जितना पुरुषों का अधिकार है उतना ही महिलाओं का भी है। बदलती परिस्थितियों में महिलाओं की आवाज़ दबाना संभव नहीं है।" रामधारी बोले।

"तब क्या अब पुरूषों को उनकी मनमानी सहनी होगी?" रिषभ बोला।

"पुरूष अगर मनमानी करेगा तो महिलाओं को मनमानी करने से नहीं रोका जा सकता।" रामधारी बोले।

"लेकिन इससे तो वे हमसे आगे निकलकर हम पर ही हुकुमत करेंगी।" रिषभ बोला।

"नहीं! ऐसा आवश्यक नहीं है। सम्मान दोगे तो सम्मान मिलेगा और अपमान करोगे तो अपमान मिलेगा। अर्थात जैसी क्रिया होगी वैसी ही प्रतिक्रिया।" रामधारी बोले।

"तब क्या इस अशांति का कोई हल नहीं है?" रिषभ ने पुछा।

"अवश्य है।" रामधारी बोले।

"वह क्या?" रिषभ ने पुछा।

"अपना अभिमान त्यागकर अपनी पत्नी के मित्र बनों। उसके सुख-दुख में अपना समय व्यय करो। पत्नी की पंसद-नापसंद का खयाल रखोगे तो घर में क्लेश नहीं होगा।" रामधारी बोले।

"अरे वाह! इससे तो जोरू का गुलाम कहलायेंगे और फिर मां और बहन के तानों से कौन बचायेगा?" रिषभ क्रोध में आकर बोला।

"मां से कहो की अपनी बेटी की शादी कर उसे तुरंत घर से विदा करे। और आप भी भजन कीर्तन में मन लगाये। जब बहू गुस्सा करे तो मां को घर से बाहर टहलने भेज दो और जब मां का पारा सातवें आसमान पर हो तब बहू से कहो की पड़ोसन के पास चली जाये या बाज़ार घुम आये अथवा कुछ खरिद्दारी ही कर लाये।" रामधारी बोले।

"लेकिन ऐसी व्यवस्था करेगा कौन?" रिषभ ने पुछा।

"तुम और कौन! जब तुम घर पर नहीं हो तब अपने पिता को उक्त व्यवस्था का दायित्व सौंप सकते हो।" रामधारी बोले।

"क्या यह काम करेगा?" रिषभ ने पुछा।

"अवश्य करेगा। एक बात और! अपनी पत्नी को दोस्तों के समक्ष कभी मत डांटो। थोड़ी तारीफ करना भी सिखों। अपने व्यापार-व्यवसाय में उसकी राय लो। भले ही उस पर अमल मत करो। मगर ऑफिस की चर्चा में पत्नी को सम्मिलित करने से उसका आप पर विश्वास और प्यार दोनों ही बढ़ेगा।" रामधारी ने बताया।

रिषभ को आभास हो गया कि अब उसे अपने अंदर बड़े भारी बदलाव लाने होंगे जिससे की उसकी ग्रहस्थी सुखपूर्वक चलती रहे। वह उठकर जाने लगा।

"रिषभ!" रामधारी ने आवाज़ लगायी।

रिषभ ने पलटकर देखा।

"सुनो! अपनी इज्जत अपने हाथ है। तुम पत्नि के गाल पर थप्पड़ मारकर अपनी मर्दानगी सिद्ध कर सकते हो। मगर यदि उसने सबके सामने तुम्हारे गाल पर थप्पड़ जड़ दिया तब क्या करोगे? ऐसी परिस्थिति तो और भी अधिक कष्टकारक होगी। इसलिए अपने क्रोध पर नियंत्रण रखना सीखो। सम्मान दो और सम्मान लो। समझे।" रामधारी ने आगे बताया।

"समझ गया अंकल! आपकी सीख मैं हमेशा याद रखूंगा।" रिषभ हल्की मुस्कान बिखेरकर अपने घर की और चल दिया।


समाप्त 

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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।


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लेखक--

जितेन्द्र शिवहरे 

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