एक कहानी रोज़ - 127
*स्वांग--कहानी*
*"आप* समझने को तैयार क्यों नहीं है। इकलौता बेटा है। बच्चों के ब्याह में मां-बाप क्या कुछ नहीं करते!" समृध्दि बोली।
"देखो समृद्धि! अनुज की पढाई-लिखाई में मैंने आवश्यकता से अधिक किया। उसके लिए सुन्दर लड़की भी खोज ली। अब रही बात उसकी शादी की तो, ये काम अनुज को स्वयं करना होगा।" रमाकांत दृढ़ थे।
"मगर आप ये भी सोचिये। शादी के इतने सारे खर्च वो अकेला कहां से लायेगा?" समृद्धि व्याकुल थी।
"बेरोजगार नहीं है तुम्हारा बेटा। अच्छी-खासी नौकरी है। और फिर जरूरत क्या है इतने सारे ताम-झाम की। सादगी से भी तो विवाह किया जा सकता है?" रमाकांत बोले।
"मगर बिना सहयोग के वह ये सब कैसे करेगा?" समृद्धि बोली।
"जैसे मैंने किया था। भूल गई। हम दोनों की शादी की सभी व्यवस्थाएं अकेले मैंने की थी।" रमाकांत बोले।
"वो ज़माना और था। तब इतनी महंगाई नहीं थी। आज के युग में शादी जैसा बड़ा आयोजन करना कोई छोटी बात नहीं है।" समृद्धि ने कहा।
"ज़माना आज भी वैसा ही है। कल भी शादीयां वैसी ही होती थी जैसी आज हो रही है।" रमाकांत ने सझमाया।
"या तो तुम अपने बेटे को मुझसे कम आंकती हो या तुम्हें उस पर भरोसा नहीं?"
"अरे भई! अठ्ठाइस साल का पढ़ा लिखा होनहार युवा है हमारा बेटा। उसे इतना कम मत आंको। शादी जैसा महत्वपूर्ण कार्य वह स्वयं करे तब उसकी ख्याति और भी अधिक फैलेगी।"
"मगर...?" समृद्धि बोली।
"अगर-मगर कुछ नहीं। उसे एक मौका तो दो। अब अगर उसे सहारा दिया तो आगे बीवी और बच्चों के कार्यों में भी सहयोग मांगता दिखेगा। जो आदमी गृहस्थ जीवन का बोझ अकेले न उठा सके उसे विवाहित होने का अधिकार नहीं।"
"और फिर मान लो। लाखो रूपये खर्च कर हमने उसकी धूम-धाम से शादी करवा भी दी तब भी उससे लाभ क्या? जो रीति-नीति शुरू से चली आ रही है हम उसे ही तो आगे बढ़ायेंगे और कुछ नहीं।"
समृद्धि सोच में पढ़ गई।
"अनुज की शादी माता-पिता के कमाये रूपयों से न होकर स्वयं के अर्जित किये धन से होना न्यायसंगत है। भले ही वो अल्प हो किन्तु उसकी उपज अनुज के भविष्य के लिए शुभ होगी।" रमाकांत बोले।
"अनुज के कितने सारे स्वप्न है, स्वयं की शादी को लेकर। डीजे साउण्ड, बफेट पार्टी और कितना कुछ। यदि ये सब न हो सका तो कितना दुःखी होगा मेरा बेटा?" समृद्धि की आंखें छलक आई।
"ये सब क्षणिक है समृद्धि। इन सबकी चकाचौंध कुछ पलों के लिये खुशी तो दे सकती है किन्तु दीर्घकालीन आनंद नहीं दे सकती।"
"मगर अराध्या के माता-पिता कितनी कुछ तैयारी कर रहे उसकी शादी की। आखिर हमें उनका तो ध्यान रखना होगा।" फिर एक नई चिंता समृद्धि ने परोस दी।
"मेरे अनुसार यदि उन्हें हमारी सम्पन्नता से प्रेम है तब ये संबंध केवल ऊपरी है। आंतरिक संबंध सुविधा नहीं देखता। रही बात अराध्या की। तो उसका सर्वस्व तो अनुज है। शेष सब तो बाद में आता है।" रमाकांत बोले।
"आपकी यही सब बातें मुझे परेशान करती है। अनुज बचपन से आपका शुष्क व्यवहार सहता आया है। अब तो उसे अपने मन की करने देवे।" समृद्धि भावुक थी। "आखिरी ये सब उसका ही तो है।"
"मैं भी यही कह रहा हूं। आखिर यह सब उसका ही तो है। लेकिन हमारे बाद!" रमाकांत ने समृद्धि के स्वर में स्वर मिलाया। "मैं जानता हूं अनुज के साथ मैं बचपन में कुछ कठोर था। किन्तु मेरे हृदय में उसके लिए प्रेम नहीं है, ऐसा कहना उचित नहीं होगा।" रमाकांत ने कहा।
"शायद आपने उसे सच्चा प्यार अब तक नहीं दिया। उसके साथ आपका व्यवहार सदैव आम रहा। अनुज आपके लिए कोई विषेश स्थान नहीं रखता।"
"शायद तुम इसलिए ऐसा कह रही कि मैंने उसे बाहर खेलने-कुदने से रोका नहीं। बाजार की तली-गली चीजे खाने दिया। अनुज के बीमार होने पर उसे अधिक ध्यानाकर्षण नहीं दिया।" रमाकांत ने बताया।
"हां यही सत्य है।" समृद्धि बोली।
"समृद्धि! मैं अनुज को कोमल पुष्प नहीं बनाना चाहता था, जो जल्दी ही मुरझा जाएं! बल्कि मैं चाहता था कि अनुज अंदर से कठोर बने जो हर परिस्थिति को सहन करने में सक्षम हो।"
"बहुत अधिक देखभाल और पर्याप्त संसाधन उपलब्ध होने से बच्चों को जीवन का सही मुल्य समझ में नहीं आता। क्योंकि सुविधाओं के वे आदि हो जाते है। उन्हें लगता है सुख-सुविधा उनका मौलिक अधिकार है।" रमाकांत बोल रहे थे।
"अनुज को यदि मैं पढ़ाई के साथ-साथ नौकरी करने को नहीं कहता तब शायद उसे रूपये की कीमत आज पता नहीं होती। आज तुम्हारा बेटा समर्थ है। सबकुछ कर सकता है। और सबसे अच्छी बात यह है की वह अच्छा-बुरा समझता है। मुझे उस पर पुरा भरोसा है। देखना अपनी शादी वो बेहतर ढंग से करेगा। बिना हमारी मदद लिये। और मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं।" रमाकांत विश्वास से भरे थे।
समृद्धि उदास होकर एक ओर बैठ गयी।
तब तक अनुज बाहर से आ गया।
"मां-बाबुजी! सारी व्यवस्थाएं हो गयी है। आप लोग निश्चिंत रहे।" अनुज उत्साहित था।
"मगर बेटा! इतना सब कैसे होगा?" समृद्धि ने पुछा।
"मां! मेरे पास कुछ सेविंग जमा है और बाॅस ने एडवांस में रूपये देने के लिए स्वंय एप्रोच किया है। आप चिंता न करे, सबकुछ अच्छे से संपन्न हो जायेगा।" कहते हुये अनुज अपने कक्ष में चला गया।
रमाकांत समृद्धि के पास आये। "देखा समृद्धि! हमारे कुछ कहे बगैर ही अनुज सब समझ गया। अब तो खुश हो जाओ।"
रमाकांत बोले।
"हां! आप ठीक ही कहते है।" समृद्धि शांत थी।
"तुम चिंता मत करो। अनुज की शादी में तुम्हें जो-जो करना है वह पुरे मन से करना। बेटे की शादी के लिए कोई कसर बाकी मत रखना। मैं हूं ना!" रमाकांत के स्वर कुछ नरम थे।
"मगर अभी तो आप कह रहे थे... !"
"हां! मैं अब भी वही कह रहा हूं जो कुछ देर पहले कह रहा था।"
"समृद्धि! हम लोग अब बुढ़े हो रहे है। मुझे अपने बेटे पर पुरा विश्वास है। मगर परिस्थितियों पर भरोसा नहीं किया जा सकता।" संवाद के असल उद्देश्य पर रमाकांत आने वाले थे।
"जब तक ये रूपये हमारे पास है हम स्वाभिमान से जी सकते है। बस इसीलिए ये सब नाटक कर रहा हूं। उम्मीद है हमेशा की तरह इस बार भी तुम मुझे समझोगी?" इतना कहकर रमाकांत संध्या विहार को चल पड़े।
"रूकिये जी! मैं भी आती हूं।" समृद्धि पति रमाकांत के स्वांग को समझ चूकी थी। अनुज की शादी के भावि आनंदित क्षणों पर चर्चा करते हुये वो दोनों घर से बाहर निकल पड़े।
समाप्त
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लेखक--
जितेन्द्र शिवहरे
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