एक कहानी रोज़-128


      *कंगन-लघुकथा*

      

       *सोने* के कंगन किसके लिये बनाये? इस बात पर घर में शीत युद्ध चल रहा था। नई नवेली बहू जिद पर अड़ी हुई थी। बिट्टों को किसी भी मूल्य पर कंगन चाहिए थे। दरअसल घर में प्रत्येक छः माह के उपरांत कुछ न कुछ खरिदने की परंपरा थी। परिवार सदस्य प्रत्येक छः माह की अपनी-अपनी बचत राशी से कुछ न कुछ खरिदा करते। जिससे घर में लगभग सभी तरह के संसाधन उपलब्ध हो गये थे। अब आभूषणों की बारी थी। बिट्टों की सास कलावती ने बड़े बेटे अशोक को दबी आवाज़ में बहुत पहले कंगन हेतु प्रार्थना की थी। किन्तु घर के आवश्यक खर्चों के आगे उसकी एक न चली। उसने अधिक जोर भी नहीं दिया। अब जब बिट्टों उनके घर में नयी सदस्या थी तब उसकी प्राथमिकता पहले थी। अनुरोध अपनी पत्नी बिट्टों को समझाने में असफल रहा था। संयुक्त परिवार की एक महत्वपूर्ण बैठक में स्वर्ण कंगन खरिदने का बजट पहले ही पास किया जा चूका था। बिट्टों प्रसन्न थी। स्वर्ण चूड़ियां तो उसके फास पुर्व से थी। सोने के कंगन मिलते ही सोने पे सुहागा हो जायेगा। परिवार सदस्य बिट्टों के लिये प्रसन्न अवश्य थे किन्तु कलावती के लिये दुःखी भी थे। कलावती ने कभी कुछ नहीं मांगा। एक जोड़ कंगन मांगे थे, वह भी उसे नयी बहु की मांग के आगे त्यागने पड़ गये थे।

"अनुरोध! तु ज्यादा चिंता मत कर! कंगन बहु को ही मिलना चाहिए। मुझे अब किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। मेरे वास्तविक गहनें तो तुम लोग ही हो। फिर मुझे अब कितना जीना है। सबकुछ तो तम लोगों का ही है।" कलावती ये कहकर जा चूकी थी। बिट्टों यह सुनकर सोचने पर विवश हो गयी। 

'मां जी ने जो कहा वह कितना सही है। उन्होंने कंगन मुझे दिलवाने का निर्णय कितनी सरलता से ले लिया। और यह भी कहा कि उनका सबकुछ हमारा है। निश्चित ही उनका सर्वस्व हमारा है, फिर हमारा कुछ उनका क्यों नहीं हो सकता?'

बिट्टों विचार कर रही ही थी की उसकी सास कलावती सम्मुख आ खड़ी हुई। बिट्टों को संदेह हो गया कि उसकी सास उसके पास क्यों आई है।

"मां जी! इससे पहले की आप अपना निर्णय मुझे सुनाये, मेरा फैसला सुन ले।" वह कलावती से बोली।

कलावती स्तब्ध थी।

"मां जी! मुझे कंगन नहीं चाहिए। कंगन की वास्तविक अधिकारी आप है।" बिट्टों बोली।

"मगर बहु•••" कलावती बोलने ही वाली थी।

"अगर-मगर कुछ नहीं मां जी। आप इस घर की बड़ी बहू है। घर की छोटी बहु नये कंगन पहने और बड़ी बहू के हाथ खाली हो, क्या यह अच्छा लगेगा?" बिट्टों बोली।

कलावती ने बिट्टों को हृदय से लगा लिया। नयी बहू ने वह कर दिखाया था जो बहुत बड़े हृदय वाली ही कर सकती थी।


समाप्त

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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।


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लेखक--

जितेन्द्र शिवहरे 

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