*शालीन-कहानी*
*एक कहानी रोज़-135* (28/08/2020)
*घर* की बड़ी बेटी रिया। उसने सामाजिक सुरक्षा और हमेशा अपने इर्द-गिर्द बनी रहने वाली तमाम शंकाओं, अटकलों को खत्म कर दुसरी शादी करना ही उचित समझा। दुर्भाग्य से दुसरी शादी भी अधिक समय तक नहीं चली। कुछ ही वर्षो में रिया के पति का असामयिक निधन उसे भीतर तक हीला गया। इस कारण जीवन से उसका मोह भी कम होता चला गया। मगर बेटी रति के खातिर रिया ने जीवन को समुचित तरीकों से जीने का निर्णय लिया। रिया के मायके में उसकी शेष चारों बहनें भी जवानी की दहलीज पर आ चूकी थी। माता-पिता को सदैव उनकी सुरक्षा की चिंता लगी रहती। पिता आशाराम मेहनत-मजदूरी करते थे जिसमें उनकी पत्नी रमा पुरा-पुरा सहयोग किया करती थी। एक छोटे भाई को मिलाकर कुल सात सदस्यों का भरा पुरा परिवार था। बहनों ने आपसी सहमति से पिता के कामकाज में हाथ बंटाना शुरू किया क्योंकी माता-पिता की न्यूनतम आय से परिवार का गुजर बसर बमुश्किल से हो पा रहा था। मजदुरी के साथ-साथ चारों बहनें पढ़ाई-लिखाई में भी अव्वल थी। सरकारी स्कूल आते-जाते समय बहुत से युवा उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने के न-न प्रयास किया करते। रिया के बाद अब घर की बड़ी बेटी पुनम थी। उसने कई बार मनचलों की उपेक्षा की। लेकिन उन्हीं मनचलों में से जब अशोक बहुत सभझाने पर नहीं माना तब पुनम ने बीच सड़क उसका हाथ पकड़ लिया।
"देख! ये प्यार-व्यार मुझे समझ नहीं आता। मैं शादी में विश्वास रखती हूं। बोल! करेगा मुझसे शादी? आज और अभी। चल! अपने घर ले चल मुझे। वहीं चलकर तेरे मां-बाप से मिलकर हम दोनों की शादी की बात पक्की कर लेते है।" पुनम बोल रही थी।
"अरे नहीं! शादी! नहीं! ये नहीं हो सकता। छोड़ मुझे! जाने दे।" अशोक घबराहट में बोला। वह पुनम से अपना हाथ छुड़वाने की कोशिश कर रहा था। मगर बलिष्ठ पुनम की ज़ोरदार पकड़ के आगे उसकी सारी ताकत जवाब दे गयी।
"ऐसे नहीं! कान पकड़कर उठक-बैठक कर! अगर आज के बाद तुने अपनी शक्ल भी दिखाई तो तेरे घर आकर सारे मोहल्ले के सामने तुझे थप्पड़ों से मारूंगी। समझा!" पुनम अब गुस्से में थी।
मरता क्या न करता। अशोक को कान पकड़कर उठक-बैठक लगानी पड़ी। दुर खड़े अशोक के दोस्त यह देखकर सहम गय। उस दिन से पुनम और उसकी बहनों के आसपास कोई फटकता नहीं था। पुनम की वीरता और अपनी शालिनता बनाये रखने के लिए दुनियां से भिड़ जाने वाली वह अपनी छोटी बहनों के लिए एक आदर्श थी। वे उसी के नक्शे कदम पर चल रही थी। आशाराम की बेटीयों पर उसके माता-पिता के साथ-साथ सारे मोहल्ले के रहवासियों को गर्व था। इतनी गरीबी में रहकर भी पढ़ाई के प्रति उनकी लगन से सभी प्रभावित थे। उस पर वे चारों बहनें मेहनत मजदुरी भी करती थी। इतना ही नहीं, वे भले ही निर्धनता रेखा से नीचे जीवन जीने पर बाध्य थी किन्तु अपने जीवन से उन्हें कभी किसी ने शिकायत करते न देखा न सुना। और सबसे बड़ी बात यह थी की उन सभी बहनों ने अपने चाल-चलन पर कभी कोई आंच नहीं आने दी। रहवासी एरिये के नवयुवक भी कोशिशें करते लेकिन मजाल था की ये लड़कीयां उनके झुठे प्रेम जाल में फंस पाती। बड़ी बहन रिया के उच्च आदर्शों पर शेष सभी बहनें चल रही थी। रिया मायके से दुर रहकर भी अकेले ही अपनी बेटी को पाल-पोस रही थी। विवाह के रिश्तें उसके लिए अब भी आ रहे थे किन्तु अब उसने तिसरा विवाह नहीं करने का संकल्प ले लिया था। वह अब अपना संपूर्ण ध्यान अपनी बेटी की परवरिश में देना चाहती थी। उसके उच्च आदर्शों से पड़ोसी भी प्रसन्न थे। वे लोग रिया का न केवल यथोचित मान-सम्मान करते थे अपितु अपनी बेटीयों को रिया सरीखे गुणों को अपनाने और जीवन की सभी समस्याओं को अपनी कार्यकुशलता से हल करने का सुझाव भी दिया करते। यही कारण था कि रिया के घर पर मोहल्ले की युवतियों और महिलाओं का तांता लगा रहता। जहां वे मेहंदी, कुकिंग, कढ़ाई-बुनाई और कपड़ा सिलाई आदि कार्यों में समय बिताती थी। जिससे उन महिलाओं को अनेक प्रकार के हुनर सीखने के साथ-साथ अतिरिक्त आमदनी भी प्राप्त करने के अवसर सरलता से प्राप्त हो रहे थे।
समाप्त
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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।
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जितेन्द्र शिवहरे
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