*एक कहानी रोज़-141 (03/09/2020)


*स्वभाव का मूल्य-कहानी*

       

        *स्वाति* को रिश्तेदारों के सामने अपने पिता का मां के द्वारा किया गया अपमान सहन नहीं हो रहा था। केटरिंग वाले को श्यामलाल पचास मेहमानों की रसोई बढ़ाने का ऑर्डर दे आये थे, वो भी सुमन से पुछे बिना। अब कैटरिंग वाले को कुछ धन अधिक देना होगा। जबकी सुमन का विचार था की तय मेहमानों की संख्या से पचास-साहठ मेहमानों की रसोई तो हलवाई बिना बोले ही अधिक बनाता है ताकि ऐन वक्त़ पर खाना कम न पड़े। लेकिन श्यामलाल के पचास लोगों की रसोई बढ़ाने का बोलकर आ जाने से कैटरींग वाला इतने मेहमानों की रसोई का खर्चा अलग से जोड़कर लेगा। इसी बात पर क्रोध में सुमन यह भुल गयी की स्वाति को हल्दी लगने लगी है और मेहमानों का आना-जाना शुरू हो गया था। ऐसे में उसे श्यामलाल को सबके सामने युं डांटना नहीं था। स्वाति को चिढ़ इस बात की थी कि यदि उसके पापा भी तेज़ आवाज़ में उसकी मां का विरोध कर देते तो सुमन उसके पिता पर इतना नहीं चिल्लाती। मगर नहीं। वे चुपचाप सिर झुकाये मां की डांट सुनते रहे। स्वाति को अब अपने पिता का मौन खलने लगता था। दोनों बहने पुर्व में ही शादी कर अपने-अपने मायके में सेटल हो चूकी थी। और अब स्वाति के ससुराल चले जाने के बाद उनके पिता का क्या होगा? उनका ख़याल कौन रखेगा? उसे अपनी मां सुमन पर जरा भी विश्वास न था कि वह उसके पिता का समुचित ख्याल रखेगी।

"पापा! आप ममा से इतना डरते क्यों है?" देर रात घर की छत पर स्वाति ने अपने पिता से पुछ ही लिया।

"नहीं बेटा जी! मैं तुम्हारी मां से डरता नहीं हूं। दरअसल मैं सुमन से बहुत प्रेम करता हूं। बस इसलिए उसे कुछ कह नहीं पाता।" श्यामलाल ने कहा।

"ये कैसा प्रेम है पापा! जो आप तो मां से करते है लेकिन मां आपसे नहीं।" स्वाति ने आश्चर्य से पुछा।

"ये तुमसे किसने कहा की सुमन मुझसे प्रेम नहीं करती?"  श्यामलाल ने पुछा।

"ये बात कहने की नहीं है पापा! समझने की है। सबको सब दिखता है पापा। आपका मां के प्रति समर्पण, त्याग और आपका कर्तव्य। सब दिखता है लेकिन मां का आपके प्रति घृणा का भाव, बात-बात पर आपको डांटना, ललकारना! क्या यही प्रेम है?" स्वाति ने घृणित भाव से कहा।

"तुमने अपनी मां की दुत्कार और लड़ाई-झगड़े तो देखे है लेकिन उसकी महानता नहीं देखी।" श्यामलाल बोले।

"मां और महान! ओहहह कमाॅन पापा! मैं कोई दुध पीती बच्ची नहीं हूं जो आखों देखी बात को स्वीकार न करूं।" स्वाति बोली।

"बेटी! तुम आकाश में ये असंख्य सितारे देख रही हो?" श्यामलाल ने आसमान की ओर सिर उठाकर कर कहा। "और यह चांद! हम सभी को लगता है कि इस विशाल गगन में चांद से चमकदार दुसरा सितारा नहीं है। लेकिन हमेशा जैसा दिखता है वैसा होता नहीं। आकाश में कई ऐसे तारे है जो चांद से भी अधिक चमकदार है। लेकिन वो हमसे और चांद से इतनी अधिक दुरी पर है की हमें चांद ही सबसे अधिक चमकदार दिखाई देता है।" श्यामलाल बोले।

"आपका कहने का अर्थ ये है कि मैं मां की चमक यानी की उनकी अच्छाई नहीं देख पा रही हूं क्योंकी आपकी अच्छाइयाँ उन पर हावी है। या मैं आपके ज्यादा करीब हूं और मां से उतनी ही दूर।" स्वाति बोली।

"एकदम सही। अब तुम्हे मेरी बात समझ में आयी।" श्यामलाल प्रसन्न होकर बोले।

"क्या पापा! ये बात तो कोई हाई स्कूल पढ़ने वाला स्टूडेंट भी बता देगा। लेकिन बात यहां अच्छाई और बुरायी की नहीं है। बात है मान-सम्मान की। मां दुसरी औरतों की तरह क्यों नहीं है? वे हर समय आपका उपहास और आपकी कमीयां गिनाने में क्यों लगी रहती है जबकी हमारे आसपास की महिलाएं अपने पति को भगवान से कम नहीं समझती।" स्वाति ने तर्क दिये।

"तुम वह सब देख रही हो जो तुम्हें सुमन दिखा रही है! तुमने वह सब नहीं देखा जिसे सुमन ने तुम तीनों बहनों से छिपाया है।" श्यामलाल बोले।

"क्या छिपाया है मां ने पापा! आज आपको सबकुछ सच-सच बताना ही होगा। प्लीज पापा!" स्वाति ने प्रार्थना की।

"तुम्हारी मां और मेरा प्रेम विवाह था। गांव से भागकर हम लोग शहर आ गये थे। लेकिन तुम्हारे पिता ने हमें ढुंढ ही लिया। उन्होंने मेरे कनपट्टी पर बंदूक तान दी थी। ये तुम्हारी मां ही थी जिसने अपने पिता की बंदूक की गोली जो उन्होंने मेरी जान लेने के लिए चलायी थी, स्वयं झेल ली। कमाल की वीरांगना है तुम्हारी मां। छाती में गोली खाकर भी अपने पिता से मुझे बचाने के लिए मेरे आगे खड़ी रही। मजाल था की मेरे ससुर या उनके आदमी मुझे छु भी पाते। जब वह बेहोश होकर नीचे गिरी तब सुमन के पिता की ममता जागी और वे उसे हाॅस्पीटल ले गये। तीन दिनों के बाद होश में आयी सुमन अब भी मुझे तलाश रही थी। अंततः सुमन के पिता को हमारी शादी के लिए राजी होना पड़ा।" श्यामलाल बोले।

स्वाति आश्चर्य से यह सब सुन रही थी।

"इतना ही नहीं! सड़क दुर्घटना में जब मेरा पैर फ्रेक्चर हो गया था, तब पुरे छः महिने तक उसने मेरी दिन-रात सेवा की। वो आज भी रात में उठ-उठकर मेरे पैरों की मालिश करती है। उसे लगता है कि मुझे पता नहीं चलता। लेकिन मुझे सब पता रहता है। और मैं भी कि कहीं उसे ये पता न चले की मुझे पता है, कि वह देर रात तक मेरी सेवा करती है, सबकुछ जानते हुये भी अनजान बनने का नाटक करता रहता हूं।" श्यामलाल बोले।

"पापा! क्या ये सब सच है?" स्वाति ने पुछा।

"हां बेटी! यही सच है। मेरे पास सुमन की महानता सिद्ध करने के इतने सारे किस्से है कि सुनाने बैठू तो सुबह हो जाये।" श्यामलाल बोले।

"मगर पापा....।" स्वाति को अब भी संतुष्टी की तलाश थी।

"स्वाति! बेटा हम किसी की बात को तो ठीक कर सकते है मगर उसके स्वभाव को नहीं। हर व्यक्ति का जन्मजात कुछ न कुछ स्वभाव होता है जिसे मरते दम तक वह त्याग नहीं पाता। और फिर बेटी! सुमन ने जितना मेरे लिए किया है उसके बदले यदि सारी उम्र भी उसकी डांट खा लूं तो भी ये घाटे का सौदा नहीं है।" श्यामलाल हंसते हुये बोले।

"पापा! जितनी ग्रेट ममा है उससे कहीं अधिक ग्रेट आप है। मैं सचमुच में लकी हुं कि आप मुझे डैडी के रूप में मिले।" स्वाति बोली।

"मी टू बेटी! मी टू।" श्यामलाल ने स्वाति को गले से लगा लिया।

"अब दोनों बाप-बेटी सारी रात बातें ही करते रहेंगे या सोना भी है। कल सुबह मंडप की तैयारी करना है।" सुमन छत कर आते ही बोली।

"हां! हां! चलो। चलो!" श्यामलाल तुरंत बोल पड़े।

स्वाति मुस्कुरा रही थी। वह दौड़कर अपनी मां सुमन के गले लग गयी।

"मैंने तुम दोनों की सारी बातें सुन ली है। मुझे एहसास है की कहीं न कहीं मेरी भी गलती है। कोशिश करूंगी की आगे से श्याम जी को मेरी वजह से कोई परेशानी न हो।" सुमन की आवाज़ में कठोरता के साथ आत्मग्लानि भी झलक रही थी। श्यामलाल और स्वाति एक-दूजे को देखकर मुस्कुरा रहे थे। स्वाति को अब भरोसा हो चला था कि उसे अपने पिता की देखभाल की चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। उसकी मां सुमन पिता श्यामलाल का बख़ूबी ध्यान रखेगी और उसके पिता स्वाति की मां सुमन का।


समाप्त 

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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।


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लेखक--

जितेन्द्र शिवहरे 

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