सांझा उपन्यास भाग-6
(जितेन्द्र शिवहरे इंदौर मध्यप्रदेश )
रूद्रांश के सीने में बदले की आग भड़क रही थी। वह हर किमत पर अपनी प्रेमिका मोहिनी के हत्यारें को दण्ड देना चाहता था। उसे पता था कि मोहिनी का हत्यारा कोई ओर नहीं उसके अपने पिता सुजान सिंह ही है। रुद्रांश ने अपना मन कठोर कर लिया और वह चल पड़ा कोठी की ओर अपने पिता को मृत्यू दण्ड देने के लिए।
'एक पिता अपनी संतान के लिए इतना निर्दयी और कठोर कैसे हो सकता है। जिसने अपने बेटे की खुशी की परवाह नहीं की। उन्हें पता था मोहिनी के शरीर में उनके बेटे रूद्रांश के प्राण बसते है, इसके बाद भी उन्होंने मोहिनी पर बुरी नज़र रखी। इस पर भी उनका मन नहीं भरा तो उन्होंने मोहिनी को जान से मरवा दिया। इतना घिनोना और नीच कर्म करने वाला उसका पिता हो ही नहीं सकता।' तुफान वेग की संवारी करता हुआ रूद्रांश सोच रहा था। उसे अपने आज संसार में सबसे बड़े शत्रु दिखाईषदे रहे थे। जिन्हें वो सख़्त से सख्त सज़ा देना चाहता था।
'मेरी मां जिसने अपने पति सुजान सिंह को पति परमेश्वर समझा। उन्हें देवता की तरह पुजा! उसके त्याग और समर्पण को पिता ने कभी समझा ही नहीं। वो अपनी पत्नी के सामने ही अन्य गैर महिला से नाजायज़ संबंध बनाने निकल पड़ते थे। मां बेचारी यह सोचकर की राजे-रजवाड़ों में यह सब आम बात है, सुजान सिंह की गल़ती, उनके हर जुर्म को माफ करती जा रही थी।'
'लेकिन अब नहीं! अब मैं अन्य किसी ओर महिला की अस्मत लुटने नहीं दूंगा। सुजान सिंह के प्राण लेकर वह अपनी मां और प्रेमिका मोहिनी की जान का बदला लेगा।' रूद्रांश कोठी के पास पहूंच चुका था। पहरेदार चौकन्ने हो गये। उन्हें किसी के कदमों की आवाज़ सुनाई देने लगी। दोनों पहरेदार कोठी के मुख्य दरवाजे से बाहर झांकने लगे। दोनों ही पहरेदार इसे अपना वहम समझकर तम्बाखू मलने में व्यस्त हो जये।
रूद्रांश कुछ कदम आगे बढ़ा। अब रूद्रांश कोठी के अंदर प्रेवश कर गया। रूद्रांश जब तक स्वयं चाहे, वह किसी को दिखाई नहीं दे सकता था। और ईच्छानुसार दिखाई भी दे सकता था। कोठी के बाहर पेहरदारों को वह दिखाई नही दिया। रूद्रांश बेखौफ़ कोठी के अंदर दाखिल हो गया। कोठी के अंदर सन्नाटा पसरा था। रात गहरा चूकी थी। कोठी के अंदर की मशालें जल रही थी। नौकर-चाकर अपना-अपना काम निपटाकर सोने की तैयारी में थे। रूद्रांश की नज़रें अपने पिता को ढुंढ रही थी। तब ही उसे ऊपर के माले के एक कमरें से किसी युवती के चिखने-चिल्लाने की आवाज़ सुनायी दी। रूद्रांश समझ गया की अवश्य ही उसके पिता ऊपर अपने कमरे में किसी युवती की इज्जत लुट रहे है। उसकी आंखों में खुन उतर आया। मारे क्रोध के उसका चेहरा लाल पड़ गया। सुजान सिंह की यह हरकत आग में घी डालने जैसी साबित हुई। रूद्रांश अब तेजी से अपने फिता के कमरे के द्वार पर पहूंचा। वहां उसने अपनी तिलिस्मी शक्तियों के बल पर दरवाजा खोले बिना ही अंदर झांका। उसे अपने पिता सुजान सिंह एक खुबसूरत नवयुवती से जबरदस्ती करते हुये साफ दिखाई दे रहे थे। वह युवती रोते हुये दया की भीख मांग रही थी। किन्तु वासना में बुरी तरह झुलस रहे सुजान सिंह उस लड़की की साड़ी का पल्रु अपनी ओर खींचते जा जा रहे थे। जिससे वह युवती गोलाकार घुमन पर विवश थी। धीरे-धीरे उसके शरीर से साड़ी का कपड़ा कम होता जा रहा था। वह अपने दोनों हाथ जोड़कर ईश्वर से अपनी इज्जत बचाने की प्रार्थना कर रही थी। तब ही उस युवती ने अपने शरीर के अंदर एक अजीब सी शक्ती अनुभव की। और यह क्या! सुजान सिंह लगातार उसकी साड़ी का पल्लू खींच रहा था, मगर साड़ी थी की कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी। मानो स्वयं भगवान कृष्ण आकाश से अपनी बहन द्रोपदी की रक्षा कर रहे हो! सुजान सिंह लगातार युवती की साड़ी अपनी ओर खींचते-खींचते थक गया। वह कुछ समय सुस्ताने वहीं पास रखी एक कुर्सी पर बैठ गया। सुजान सिंह हांफ रहा था। वह युवती जिसका नाम अरुणा था, वह अब एकदम शांत थी। जैसे अब उसे किसी ने बहुत सारी हिम्मत दे दी हो। वह मंद ही मंद मुस्कुराने लगी। यह देखकर सुजान सिंह का क्रोध बड़ गया। वह कुर्सी से उठना चाहता था ताकी अरुणा को थप्पड़ जड़ सके। लेकिन वह अपनी कुर्सी से उठ नहीं पा रहा था। अगले ही पल वह उस कुर्सी सहित हवा में उड़ने लगा। सुजान सिंह की घिग्घी बंध गयी। वह डर के मारे कांपने लगा था। अरुणा का रूप भी परिवर्तित होने लगा। उसने अपने बाल खोल दिया जो हवा में उड़ रहे थे। अरूणा अब बे-तहाशा हंसने लगी। उसके दांत काफी लम्बे और चमकदार हो गये। अरूणा के पीछे लाल रंग का प्रकाश निकल रहा था जिसकी रोशनी से सारा कमरा नहा गया था। उसकी हंसी सुजान सिंह के कानों को भेद रही थी। वह कभी कुर्सी पकड़ता तो कभी अपने कानों को। यकायक वह जमींन पर आ गिरा। एक जोरदार धड़ाम की ध्वनि सुनाई दी।
डर से कांप रहा सुजान सिंह बड़ी मुश्किल से डरते-डरते अपनी आंखें खोलकर सामने देखने लगा। उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। उस कमरे में एक-एक कर वे सभी लड़कीयां और औरतें उपस्थित होने लगी जिसे भुतकाल में सुजान सिंह ने कभी बर्बाद किया था। इन सभी औरतों की आत्माओं का आव्हान रूद्रांश ने अपनी शक्तियों से किया था। असंतृप्त आत्माएं रूद्रांश के बुलाने पर आ गयी। उन्हें अपने शत्रु सुजान सिंह से बदला लेने का अवसर रूद्रांश ने उपलब्ध कराया जिसे वे सभी ने हाथों से जाने नहीं देना चाहती थी।
इन औरतों में रूपा भी थी। रूपा के कदम लड़खड़ा रहे थे। वह जानती थी एक तो गर्भावस्था उर उस सुजान सिंह द्वारा बलात्कार का शिकार हो जाने पर उसके ससुराल वाले रूपा को नहीं अपनायेंगे। उसने अपनी जान देने का विचार कर लिया था। गांव के बाहर किसी खेत के नजदीक आम के पेड़ से साड़ी का फंदा बनाकर वह झूल गयी। रूपा के साथ ही उसके अजन्मे बच्चे का भी निधन हो गया। रूपा की आत्मा किसी तरह सुजान सिंह से बदला लेना चाहती थी। और ये अवसर उसे मिल ही गया। रूद्रांश के आव्हान पर वह भी आ खड़ी हुयी, सुजानसिंह से बदला लेने के लिए।
सुजान सिंह के सम्मुख खड़ी उन औरतो की आत्माएं सुजान सिंह को बदले की भावना से देख रही थी। उन सभी के चेहरे पर भंयकर क्रोध दाखाई दे रहा था जिसकी धधकती आग जल्दी से जल्दी सुजानसिंह को जलाकर भस्म कर देना चाहती थी। सुजान सिंह को अपना काल साफ-साफ दिखाई देने लगा।
तब ही वह रोते हुये उन आत्माओं से अपने प्राणों की भीख मांगने लगा।
"मुझे छोड़ दो! आगे से मैं किसी औरत को परेशान नहीं करूंगा। मैं अपने सारे बुरे काम छोड़ दुंगा। सिर्फ एक बार मुझे जीवनदान दे दो।" सुजान सिंह बोला।
उसकी याचना पर सभी औरतें जोर-जोर से हंसने लगी। उन सभी का भयानक अट्टाहस सुनकर सुजान सिंह के कान फटने को आतुर थे।
"तुझे तो बड़ा आनन्द आता है न, औरतों की इज्जत लुटकर! आज हम सभी तुझसे अपनी मौत का बदला लेकर रहेंगे।" रूपा रूपी आत्मा बोली।
"सही कहा रूपा! आज इसे हमारे हर एक आसुं का हिसाब देना होगा!" कजरी बोल उठी।
"तो इसके लिए कौन सी सज़ा मुकरर की है तुम लोगों ने?" सपना ने पुछा।
"वही! जिसके बल पर सुजान सिंह आज तक अपनी हैवानियत दिखाता आया है।" रूपा बोली।
"मैं कुछ समझी नहीं?" सपना ने पुछा।
"मतलब ये की इसे अपनी मर्दानगी पर बड़ा घमण्ड है। आज हम भी देखते है कि ये कितना बड़ा मर्द है।" रूपा ने बताया।
"तो तुम्हारा मतलब है कि....?" सपना बोलते-बोलते रूक गयी।
"हां! तुमने सही समझा। दुनियां के इतिहास में पहली बार होगा जब आठ औरतों की आत्माएं किसी जीवित पुरूष का बलात्कार करेंगी।" इतना कहकर रूपा हंसने लगी।
"बिलकुल सही सज़ा है इस मानव रूपी दानव के लिए। बारी-बारी से इसे हमें संतुष्ट करना होगा और तब तक करना होगा जब तक की इसके प्राण पखेरू नहीं उड़ जाते।" कजरी ने कहा।
"नहीं! तुम चाहों तो मुझे अभी जान से मार दो। लेकिन मुझे इतनी निर्दयी मौत तो न दो।" सुजान सिंह गिड़गिड़ाते हुये बोला।
"क्यों? हम तो तुझे तेरी ही मनपसंद मौत दे रहे है। बहुत किश्मत वाला है तु! हां हां हां।" रूपा हंसने लगी।
"नहीं... नहीं... नहीं... छोड़... दो! मुझे जाने दो। बचाओ! बचाओ! बचाओ! आsssह नहींssss!" सुजान सिंह लगातार चीख रहा था। मगर उसकी मदद करने वाला वहां कोई नहीं था। रूपा सुजानसिंह की छाती पर बैठ गयी। उसके बाद कजरी फिर सपना ..... आरती... पुजा....भानुमति...सुनीता.....रानु....और अंत में सरिता। इन भी ने सुजानसिंह के प्राणांत तक समागम किया। जिस मर्दाना ताकत और वहसीपन के बलबुते सुजानसिंह सैकड़ों औरतों की काया से खेल चुका था वहीं पुरषत्व खर्च करते हुये उसकी मौत का समय नजदीक आ पहूंचा।
सुजानसिंह अपनी आखरी सांसे गिन रहा था। सबकुछ शांत हो चुका था। सभी आत्माएं वहां से जा चुकी थी और अरुणा भी। अब वहां केवल सुजान सिंह था और रूद्रांश की आत्मा। रूद्रांश प्रसन्न था। उसने आज अपनी प्रिय मोहिनी के हत्यारे से बदला दे लिया था। वह धीरे-धीरे सुजान सिंह के पास गया। यह क्या! अभी तक सुजानसिंह की सांसे चल रही थी। वह बेसुध होकर कुछ बड़ बड़ा रहा था।
"मेरा बेटा! रूद्रांश! कहां चला गया। अब मेरी मौत के बाद मेरे शरीर को कौन आग देगा? हाय! बेटे तु जहां कहीं हो चले आ! अंतिम समय में पिता को उसका बेटा ही मुखाग्नि देता है। अब मेरा उध्दार कैसे होगा? मरने के बाद भी मेरी आत्मा भुत बनकर भटकती रहेगी। ओहहहह! मैंने कितना बुरा किया...मुझे मेरे पापों की सज़ा तो मिलनी ही। और अब न जाने कब तक मेरी आत्मा भटकती रहेगी.... हाय!" सुजान सिंह अकेले ही बड़-बड़ा रहा था।
तब ही सुजान सिंह ने देखा की उसका बेटा रूद्रांश ठीक उसके सम्मुख खड़ा है। मगर वह सोच रहा था कि यह कैसे हो सकता है। उसका बेटा और मोहिनी तो मर चुके थे, फिर रूद्रांश कैसे जीवित बच गया? ये अगर जीवैत नहीं है तब क्या ये रूद्रांश की आत्मा है?
"हां सुजानसिंह! तुम सही सोच रहे हो। ये मेरी आत्मा ही है। मेरा शरीर तो तुमने माय माय डाला था।।लेकिन तुम मेरी आत्मा को नहीं मार पाये। और अब मेरी यही शक्तिशाली आत्मा तुम्हारे प्राण लेगी।" रूद्रांश अपने पिता के विचारो को सुनकर बोला।
"मेरे बेटे! क्या तु एक बेटा होकर अपने बाप को मारेगा?" सुजान सिंह ने रूद्रांश से पुछा।
"जब तुम एक बाप होकर अपने बेटे को मार सकते हो तो मैं एक बेटा होकर अपने बाप को क्यों नहीं मार सकता?" रूद्रांश ने अपने पिता की बात का जवाब दिया।
"नहीं बेटे! मैंने तुझे नहीं मरवाया।" सुजानसिंह बोला।
"तुम अपने आपको बचाने के लिए मुझसे झुठ बोल रहे हो?" रूद्रांश ने कठोर होकर कहा।
"नहीं बेटा। मौत के मुहाने पर खड़ा होकर मैं झुठ नहीं बोलूंगा। मैंने तुम्हें नहीं मरवाया।" सुजानसिंह रोते-रोते बोला।
रूद्रांश को आभास हो चुका था कि उसके पिता झुठ नहीं बोल रहे है। मगर यदि सुजानसिंह सिंह ने रूद्रांश और मोहिनी को मारने की कोशिश नहीं की तो फिर वो आदमी कौन थे जो उन दोनों को उस दिन जान से मारने आये थे?
रूद्रांश सोच ही रहा था की इतने में सुजान सिंह के प्राण पखेरू उड़ गये। कुछ ही पल के बाद उसका शरीर निर्जीव पुरी तरह पड़ गया। सुजानसिंह दुनिया से जा चुका था।
रूद्रांश अपने पिता के अंतिम पछतावे को सुन चुका था। पछतावे की आग में उसके पिता की आत्मा न जाने अब कब तक जलती रहेगी यह स्वयं वह खुद भी नहीं जानता था।
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मोहिनी उपचार के बाद बिल्कुल ठीक हो चुकी थी। उसके पिता बहादुर अपनी बेटी के जीवित बच जाने पर प्रसन्न थे। मोहिनी की देखभाल में वे कोई कोताही नहीं बरते थे। इसके लिए उन्होंने अपनी विधवा भाभी से मदद मांगी। सुमित्रा के पति आशाराम कबीले में आगजनी की घटना के दौरान जलकर मर चुके थे। तब ही से सुमित्रा को बहादुर ने अपने साथ रख लिया। सुमित्रा और मोहिनी के बीच मां-बेटी सरीखा संबंध स्थापित हो चुका था। एक रोज़ सुबह-सुबह मोहिनी को उल्टियाँ होने लगी। पिता बहादुर कुछ कबीलों वालों को इकठ्ठा कर नये स्थान की खोज करने गये हुये थे जहां जीवित बचे लोग मिलकर रह सके और शेष लोग मिलकर अपना कुनबा बढ़ाएं।
मोहिनी जान चुकी थी की उसके गर्भ में रूद्रांश का शिशु पल रहा है। यह बात सुमित्रा भी जान चुकी थी। मोहिनी अपनी बड़ी मां से प्रार्थना कर रही थी कि उसकी कुंवारी मां बनने की खब़र वो उसके पिता बहादुर को न बताये। इससे उन्हें और भी अधिक पीड़ा होगी। और क्रोध में वो कुछ भी उल्टा-सीधा कदम उठा सकते है जो कबोले वालों के हित में नहीं होगा।
"लेकिन बेटी! एक न एक दिन तो बहादुर को सब पता चल ही जायेगा।" सुमित्रा ने मोहिनी से कहा।
"तब तक कोई न कोई रास्ता अवश्य निकल जायेगा बड़ी मां। और वैसे भी मुझे यकिन है की मेरा रूद्रांश अभी भी जिन्दा है। वह मुझे अवश्य मिलेगा।" मोहिनी ने कहा।
"लेकिन बेटी...!" सुमित्रा बोलना चाहती थी लेकिन मोहिनी ने उसे रोक दिया।
"लेकिन-वेकिन कुछ नहीं बड़ी मां! आप किसी को कूछ नहीं बतायेंगी की मैं रूद्रांश के बच्चें की मां बनने वाली हूं।" मोहिनी ने सुमित्रा से कहा।
"ठीक है बेटी! तु अगर यही चाहती है और रूद्रांश पर तुझे इतना ही भरोसा है तो मैं किसी को कुछ नहीं बताऊंगी।" सुमित्रा ने कहा।
मोहिनी प्रसन्न होकर अपनी बड़ी मां के गले लग गयी।
सुमित्रा को मोहिनी की जिद के आगे झुकना पड़ा। लेकिन इन दोनों को पता नहीं था कि जिस बात को छिपाने की दोनों योजना बना रहे थे वो बात द्वार पर खड़े बहादुर ने सुन ली थी।
'उस दुश्मन की औलाद ने आखिर अपनी दुश्मनी निकाल ही ली। और वो भी मेरी बेटी के साथ। उसे तो मैंने मार ही डाला। और अब उसके खानदान को भी मैं ही खत्म करूंगा।' बहादुर मन ही मन बड़-बड़ा रहा था।
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अपने पिता को मौत के घाट उतारकर रूद्रांश को अपने शरीर की याद आयी। वह हवा से भी तेज गति से तांत्रिक बाबा की गुफा की ओर उड़ चला। पिता सुजान सिंह के मुख से सच्चाई सुनकर वह शर्मिंदा था। जब उसके पिता ने उसे नहीं मरवाया तब उसे और मोहिनी को जान से मारने की कोशिश करने वाले कौन लोग थे? रुद्रांश को किसी बहुत बड़े षडयंत्र की बूं आ रही थी। तब ही वह तांत्रिक बाबा की गुफा के मुहाने पर पहूंच गया। वह जल्दी से जल्दी गुफा के अंदर प्रेवश करना चाहता था ताकी वह अपने शरीर को सही सलामत देख सके।
गुफा के अंदर का दृश्य देखकर उसके होश उड़ गये। तांत्रिक बाबा शैतान की मुर्ति के सामने बैठा हुआ नीचे पृथ्वी पर लेटी एक लाश की खाल उतार रहा था। पास ही एक बड़ा कटरो रखा था जिसमें खून भरा था। जिस शव के शरीर से वह तांत्रिक बाबा खाल उतार रहा था, उसका चेहरा देखकर रूद्रांश की आत्मा सिहर उठी। यह रूद्रांश का शरीर ही था। रूद्रांश घबरा गया। वह दौड़ते-भागते हुये तांत्रिक बाबा के पास पहूंचा।
"बाबा! बाबा! बाबा! ये आप क्या कर रहे है? मेरे ही शरीर से खिल उतार रहे है। अब मैं पुनर्जीवित कैसे हो सकूंगा।?" रूद्रांश की आत्मा तांत्रिक बाबा से बोली।
अचानक रूद्रांश के यूं सामने आ जाने से तांत्रिक बाबा भी घबरा गया। लेकिन स्वयं को संभालते हुये उसने स्थिति को भी संभालने की कोशिश की।
"रूद्रांश! घबराओ नहीं। तुम्हारा सिर्फ शरीर खत्म हुआ है। आत्मा नहीं। आत्मा अमर है और वह भी शक्तिशाली आत्मा।" तांत्रिक बाबा बोले।
"लेकिन बाबा! ये सरासर धोखा है। आपने कहा था सात दिनों के बाद आप मेरा शरीर मुझे लौटा दोगे।" रूद्रांश बिगड़ते हुये बोला।
"हम तांत्रिक है। शैतान के पुजारी। हमारी रग-रग में छल और कपट भरा है। अच्छा होगा की तुम अब अपने शरीर को भुल जाओ।" तांत्रिक बाबा ने रूद्रांश से कहा।
"धोखेबाज! मैं तुझे नहीं छोड़ूंगा। रूक जा! तुझे अभी सबक सिखाता हूं।" यह कहते हुये रूद्रांश तांत्रिक बाबा पर प्रहार करने दौड़ा।
इससे पहले की रूद्रांश तांत्रिक बाबा को कुछ हानि पहूंचा पाता, तांत्रिक बाबा ने अपना एक हाथ को हवा में घुमा दिया। उनके हाथ से निकलती ज्लाला ने रूद्रांश को जला दिया। वह दूर जा गिरा।
"बेवकुफ न बन बच्चें। तेरे पास जो शक्तियां है वह मैंने ही तुझे दी है। इनका मुझ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।" तांत्रिक बाबा बोले।
रूद्रांश बुरी तरह झुलस चुका था। उसे यकिन हो गया था की वह तांत्रिक बाबा का कुछ नहीं बिगाड़ सकता। अब वह तांत्रिक का गुलाम है। सो जैसा वह नाच नचायेगा रूद्रांश को वैसा ही नाचना होगा। तांत्रिक बाबा ने उसे समझाया की जो काम वह इंसानी शरीर से नहीं कर सकता था, वे सारे काम वह आत्मा बनकर बड़ी आसानी से कर सकता है। और वैसे भी जिन इंसानों ने उसे और मोहिनी को जान से मारकर एक-दुसरे से जुदा किया था वो अब भी जिंदा है। रूद्रांश को उनसे मोहिनी की जान का बदला हर हाल में लेना होगा। तांत्रिक बाबा ने बताया की उसे और मोहिनी को मारने में कबीले के सरदार बहादुर का भी हाथ है। अंतः रुद्रांश को बहादुर से बदला लेना चाहिए।
रूद्रांश की आत्मा को एक नया लक्ष्य मिल गया था। अब वह बहादुर से बदला लेने के लिए कबीले की ओर उड़ चला।
कबीले में कुछ झोपड़ीयां बनी हुयी थी। आगजनी से बचे-कुचे लोगों ने नये स्थान को अपना रहवास बना लिया था। सायंकाल का समय हो चला था। कबीले के बीचों बीच आग सुलग रही थी जिसका प्रकाश समूचे टेंट नुमा झोपड़ीयों को प्रकाश उपलब्ध करा रहा था। ये आग जंगली जानवरों को कबीले के पास आने रोकने का काम भी करती है।
मोहिनी रात का खाना बना रही थी। सुमित्रा और बहादुर एक-दुसरे से बात करने में व्यस्त थे।
"भाभी! क्या ये सच है की मोहिनी रूद्रांश के बच्चें की मां बनने वाली है?"
"देवर सा! वो...आपको कैसे.... पता चला?" सुमित्रा ने पुछा।
"मैंने तुम्हारी और मोहिनी की कल रात की सभी बातें सुन ली थी।" बहादुर ने बताया।
"हां देवर सा! ये सच है। मोहिनी गर्भ से है। तीन माह का बच्चा है उसकी पेट में।" सुमित्रा ने बताया।
"ओहहह! ये नहीं होना चाहिए था। ये कैसे हो गया? क्यों हो गया?" बहादुर अफसोस प्रकट कर रहा था।
"देवर सा! इतने व्याकुल क्यों हो?" सुमित्रा ने पुछा।
"उस साले रूद्रांश को मैंने अपने आदमियों से मरवा दिया , अच्छा होता अगर ये मोहिनी भी मर जाती।" बहादुर गुस्से में बोला।
"क्या! तुमने ही रूद्रांश और मोहिनी को मरवाने की कोशिश की थी।" सुमित्रा बोली।
"हां! लेकिन वह सांप तो मर गया लेकिन उसका सपोला मोहिनी के गर्भ में पल रहा है। उसे भी मारना आवश्यक है।" बहादुर बोला।
"तब क्या तुम मोहिनी का गर्भ गिराना चाहते है?" सुमित्रा ने पुछा।
"हां! और ये काम तुम्हें ही करना होगा। यह लो। ये औषधी मोहिनी के खाने में मिला देना। कल शाम तक सब ठीक हो जायेगा?" बहादुर ने कहा।
"लेकिन देवर सा!" सुमित्रा ने संकोच किया।
"अगर-मगर कुछ नहीं। जैसा कहता हूं वैसा करो। समझी।" ऐसा कहता हुआ बहादुर टेंट से निकल गया।
मोहिनी के पैरों तले जमींन खीसक गयी। उसने अपने पिता बहादुर और बड़ी मां सुमित्रा की सारी बातें सुन ली।
'कोई पिता इतना निर्दयी कैसे हो सकता है जो अपनी बेटी को ही मार दे। और अब ये पापी मेरे अजन्मे बच्चे को भी मारना चाहता है। नहीं! मैं ये नहीं होने दुंगी। जिसने मेरे रूद्रांश को मुझसे दूर किया है मैं उसे इसका दण्ड अवश्य दूंगी। लेकिन सबसे पहले मुझे अपने होने वाले बच्चें को बचाना है। रूद्रांश की एक यही आखिरी तो निशानी है मेरे पास।'
मोहिनी ने निश्चय किया की वह घर से भागकर कहीं दूर चली जायेगी। जिससे की उसके बच्चे को कोई हानी नहीं पहंचा सके। उसी रात उसने अपना कुछ जरूरी सामान बांधा और आधी रात में कबीले से चुपचाप किसी को बिना बताये ही वह जंगल की ओर चल पड़ी। चलते-चलते वह वन में बहुत अंदर तक जा पहूंची थी। तब ही उसके कान में नदि के बहते हुये पानी का कलरव सुनाई दिया। अंधरी रात में नदि पार करना खतरनाक था। अतः उसने रात वहीं नदि किनारे बिताने का निश्चय किया। सुबह होते ही वह नदि और पर्वत पार कर अपने पिता की पहूंच से बहुत दूर चली जायेगी। जिससे की उसे और उसके बच्चें की जान को कोई खतरा नहीं रहे।
इधर जब सुमित्रा ने देखा की मोहिनी घर के अंदर नहीं है तब उसने इस बात की सुचना तुरंत बहादुर को दी। उसने बहादुर को बताया भोजन की थाली वैसे ही रखी है। मोहिनी ने भोजन खाया ही नही। बहादुर को अनुमान लगाते देर न लगी की हो न हो मोहिनी को खाने में जहर मिलाने वाली बात का पता चल गया था। इसीलिए वह घर से भाग गयी है।
"जायेगी कहाँ? उसे तो मैं ढुंढ ही लुंगा। आज अगर मुझे मोहिनी को भी जान से मारना पड़ा तो मैं अपने इरादों डिगूगा नहीं।" बहादुर ने कहा। हाथों में भाला उठाकर वह कबीले के बीचों बीच आ गया। उसने अपने साथियों को जगाया।
"कबीलें वालों! सब लोग यहां आओ।" बहादुर ने दहाड़ मारते हुये कहा।
"क्या बात है सरदार! इतनी रात में हमें क्यों जगाया?" रतन ने पुछि।
चार-पांच पुरूष और महिलाएं भी वहां आ पहूंची।
"कबीले वालो! मोहिनी अपने कक्ष में नहीं है। मुझे लगता है उसका किसी ने अपहरण कर लिया है। हमें तुरंत उसे ढुंढने जाना होगा।" बहादुर दहाड़ा।
"ठीक है सरदार! हम जंगल का चप्पा-चप्पा छान मारेंगे और मोहिनी को हर हाल में ढुंढ निकालेंगे।" रतन ने जोश में कहा।
"और जिस किसी भी ने मोहिनी का अपहरण किया है उसे परलोक पहूंचाकर ही दम लेंगे।" धीरू बीच में बोल उठा।
"हां हां हां हम मोहिनी के अपरहणकर्ता को जान से मार देंगे।" शेष कबीले वाले एक साथ बोले। उन सभी के हाथों में जलती हुयी मशाले लहरा रही थी।
"सभी को हमारे साथ आने की जरूरत नहीं है। आधे लोग यहां रूककर औरतों और बच्चों की सुरक्षा करेंगे। आधे लोग मेरे साथ चलेंगे।" बहादुर बोला।
"ठीक है सरदार जैसा आप कहोगे हम वैसा ही करेंगे।" रतन बोला।
"ठीक है। मेरे साथ चलने वाले सब लोग अपने-अपने हथियार संभाल लो। रतन तुम अपने साथ तेल और कुछ मशालें रख लो। धीरू तुम कुछ खाने-पीने की चीजें अपने साथ रख लो। कौन जाने कब तक लौटना होगा।"
बहादुर बोला।
"ठीक सरदार।" रतन और धीरू एक स्वर में बोले।
वे दोनों सरदार बहादुर के कहे अनुसार सामान जुटाने में लग गये।
"बहादुर! मोहिनी तुम्हारी बेटी है और उसके गर्भ में एक नन्हीं सी जान पल रही है। उसे न मारना।" सुमित्रा ने बहादुर के पास आकर कहा।
"भाभी! मर्दों के कामकाज में औरतों को दखल देने की मनाही है। मोहिनी ने जो किया है उसका दण्ड तो उसे मिलकर रहेगा। अच्छा होगा तुम उसकी मां बनने की कोशिश न करो तो। हूंअं!" कहता हुआ बहादुर अपने साथियों को लेकर जंगल की ओर कुच कर गया।
जलती मशालें रास्ता दिखा रही थी जिसके प्रकाश में बहादुर, रतन, धीरू, भीभा और रामपाल घने जंगल को चीरते हुये आगे बढ़े चले रहे थे। जगंल झींगूर की आवाजों से गुंजायमान था। जंगली जानवर भी शिकार को निकले थे। किन्तु जलती मशाल की आग को देखकर वे कबीले के लोगों से दुर ही रहते।
जंगल के बहुत अंदर आ जाने के बाद भी मोहिनी का कोई सुराग हाथ नहीं लगा था। सरदार बहादुर ने सभी से कहा-
"देखो! इस तरह से हम मोहिनी को ढुंढ नहीं पायेंगे। अच्छा होगा की हम पांचों अलग-अलग दिशा में जाकर उसे ढुंढे।"
"सही कहा सरदार! हम ऐसा ही करते है।" रतन बोला।
"ठीक है। ये लो। ये शंख तुम सब अपने-अपने पास रख लो। मोहिनी का कहीं कुछ भी पता चले तो ये शंख बजा देना। या किसी परेशानी में पड़ जाओ तब भी इस शंख को बजा देना। हम सभी तुरंत उस शंख की ध्वनी वाले स्थान पर पहूंच जायेंगे।" बहादुर ने अपने कंधे पर टंगे झोले में से पांचों को एक-एक शंख देते हुये कहा।
"अच्छा सरदार! हम सभी इसी पेड़ के पास आकर मिलेंगे।" धीरू बोला।
"ठीक है धीरू! अब सब लोग जंगल की अलग-अलग दिशाओं में बिखर जाओ। मोहिनी को किसी भी हालत में ढूंढ़कर लाना है।" बहादुर ने जोश में कहा।
"जय भवानी!" रतन बोला।
"जय भवानी!" शेष सभी ने एक साथ उच्चारित किया।
पांचों लोग घने वन में अंदर और अंदर की ओर चलते चले गये। बहुत देर तक ढुंढने पर भी उन्हें मोहिनी का कहीं कोई अता-पता नहीं मिला।
बहादुर के कानों में नदि के बहते हुये जल की ध्वनी सुनाई दी। उसे आशा की एक किरण दिखाई दी।
'हो सकता है मोहिनी नदि के आसपास ही मिल जाए! क्योंकि रात के समय नदि पार करना बहुत खतरनाक होता है। यदि मोहिनी यहां आई होगी तो उसे नदि पार करने के लिए रात गुजरने का इंतज़ार करना होगा।' बहादुर ये सोच रहा था। वह खुश होकर आगे बड़ा ही था की उसने जो दृश्य देखा वह शरीर कपकंपा देने वाला था। समाने एक जीता-जागता बाघ खड़ा था। जो उसे ही घूर रहा था। और गुर्रा भी रहा था। बहादुर का गला सुख गया क्योंकि उसके हाथों में जलती मशाल की लौ धीमी पड़ने लगी थी। आग के बुझते ही वह बाघ बहादुर पर हमला कर सकता था।
इससे पहले की वह शंख बजा पाता एक जोरो का प्रकाश उसकी आंखें चुंधिया गया। पल भर को उसे अपनी आंखें बंद करनी पड़ी। उसने जब दौबारा आंखें खोलकर सामने देखा तो उसे यकीन नहीं हुआ। वहां कोई बाघ नहीं था। न हीं बाघ के गुर्राने की आवाज़ आ रही थी। बहादुर के शरीर में सिरहन पैदा होने लगी। उसके अंदर डर के भाव उभरने लगे थे। वह दबे पांव आगे बड़ा। उसे आभास हुआ की उसके पीछे कोई खड़ा है। वह तुरंत पलटा। लेकिन वहां कोई नहीं था। पेड़ों के पत्तें जमींन पर गिरे पड़े थे जिस पर चलने की आहट वातावरण को और भी अधिक डरावना बना रही थी। बहादुर तब बुरी तरह डर गया जब उसने अपने सिर के ऊपर कुछ काले सायें उड़ते हुये देखे। ये परछाईयां हीं..हीं..हीं..की तीखी और तेज ध्वनि निकालकर जोर-जोर से हंस रही थी। मानों वे सब बहादुर का मखौल उड़ा रही हो।
बहादुर अपने कुल देवता को याद करने लगा। उसके पसीने छूट गये थे। वह धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहता था लेकिन उसके पैर बहादुर की बात नहीं मान रहे है। बहादुर वहीं जड़ हो चुका थे। वह जी-जान से कोशिशें
मङ कर रहा था अपने दोनों पैर जमींन से उठाने की। मगर वह हिल भी नहीं पा रहा था। उसने अपने कंधें पर लटके थैले में से शंख निकाला। उसे मुंह में लगाकर जोर से फूंक मारी। उसकी ध्वनि से स्वयं बहादुर के कान फट पड़े। यह शंख की ध्वनी न होकर किसी चुड़ैल की चीखेन-चिल्लाने की आवाज़ थी। इस आवाज़ को सुनते ही बहादुर ने शंख दूर फेंक दिया। और अगले पल जो हुआ वह और भी अधिक खतरनाक और डरावना था। देखते ही देखते बहादुर के सामने काला लिबास पहने कुछ चुड़ैल आ खड़ी हुयी। उनकी नाक नुकीली थी और चेहरे पर पैने सफेद दांत चमक रहे थे। उनकी आंखे अंदर की और धंसी थी जो लाल रोशनी बिखेरकर उन्हें और भी अधिक डरावना बना रही थी।
"हमें यहां किसने पुकारा? बताओ! जिसने भी हमें यहां बुलाया है उसके खून से हम अपनी प्यास बुझायेगीं। हा.. हा.. हा...।" एक चुड़ैल ने कहा और जोरो की हंसी हंसने लगी।
"नहीं मैंने किसी को नहीं बुलाया।" बहादुर डरते हुये बोला।
"तु झुठ बोलता है। तुने ही शंख बजाकर हमें बुलाया है और अब तु ही हमारा भोजन बनेगा। हा... हा... हा...।" एक अन्य चुड़ैल बोल पड़ी।
"मुझे माफ कर दो। मुझे जाने दो। मैंने शंख आप लोगों के लिए नहीं बजाया था। मैं तो अपने साथियों से बिछड़ गया था। उन्हें ही बुलाने के लिए मैंने शंख बजाया था। क्योंकी मैं यहां जंगल मे फंस गया हूं।" बहादुर ने बताता।
"तु तब नहीं फंसा है, तुझे जान बुझकर फंसाया गया है।" एक चुड़ैल बोली।
"मुझे किसने फंसाया?" बहादुर ने पुछा।
"वो देख। वो सामने खड़ा है।" दुसरी चुडैले बोली।
बहादुर अपनी दायें तरफ देखने लगा। वहां कोई शख्स खड़ा था। बहादुर उसे पहचाने की कोशिश करने लगा।
"अरे! ये... तो... ये.... ये..!" बहादुर बोलते-बोलते अटक गया।
"हां! तुने सही समझा! मैं रूद्रांश ही हूं। जिसे तुने मार दिया था।" रूद्रांश गुस्से में बोला।
"मुझे माफ कर दो रूद्रांश। मेरी भुल हो गयी जो मैंने तुम्हारे और मोहिनी के पवित्र प्रेम को नहीं समझा। मुझे प्रायश्चित करने का मौका दो।" बहादुर याचना कर बोला।
"अब तुझे प्रायश्चित करने की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकी तेरी मौत ही मेरे बदले का सही प्रायश्चित होगी।" रूद्रांश ने कहा।
"नहीं! नहीं! मुझे छोड़ दो। हे कुलदेवता मेरी रक्षा करो। कोई तो मुझे बचाओ।" बहादुर रोने-चीखने लगा।
पहली चुड़ैल बहादुर के पास और पास आती गयी। उसने अपने नुकीले दांत बहादुर की गर्दन में धंसा दिये। देखते ही देखते दुसरी, तीसरी और चौथी चुड़ैल भी बहादुर पर टूट पड़ी। बहादुर के शरीर से सारा रक्त पीकर और उसके शरीर से अपनी भुख मिटाकर वे सभी चुड़ैल आकाश में उड़ गयी। रूद्रांश भी उड़ चला।
इधर भूख-प्यास व्याकुल मोहिनी नदि पार करने से पहले ही नदि किनारे चक्कर खाकर गीर पड़ी। सुबह हो चुकी थी। वहीं पास ही एक गुफा में एक महात्मा तपस्या में लीन थे। जिनकी धर्मपत्नी सुबह-सुबह पुजन हेतु वन से फुल चुनने आयी हुई थी। ब्राह्मण की पत्नी की नज़र पृथ्वी पर बेसुध पड़ी मोहिनी पर पड़ी। उसने अपनी एक अन्य सेविका का पुकारा। दोनों ने अपने हाथों का सहारा देकर मोहिनी को अपने साथ गुफा में पहूंचाया। उसे चारपाई पर लेटाकर चेहरे पर पानी छिड़का। होश आने पर मोहिनी से उसके विषय में जानना चाहा। मोहिनी ने ब्राह्मणी को अपनी पिछली सारी बातें विस्तार से बता दी। ब्राह्मणी ने मोहिनी की गर्भवस्था को देखकर उसे अपने ही यहां रहने का लिए मना लिया।
समय तेजी से गुजर रहा था। नौ महिने के अंतराल के बाद मोहिनी ने ब्राह्मण की गुफा में ही एक स्वस्थ्य शिशु को जन्म दिया।
रूद्रांश तांत्रिक बाबा की गुफा में पहूंच गया। वहां जो दृश्य उसने देखा वह उसे विचलित कर गया। तीन औरतें जो अपने-अपने हाथ में बच्चा लिये खड़ी थी, इन्हीं तीन औरतों में एक औरत मोहिनी भी थी। जिसके हाथ में रूद्रांश का बच्चा था। जिसे बलि देने के उद्देश्य से तांत्रिक बाबा अपनी गुफा में लेकर आया था।
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