तुम मेरे हो (भाग 3-4)

 *तुम मेरे हो-कहानी* 3


*एक कहानी रोज़-233 (04/12/2020)*


       और अब आगे.........


*"ले।"* मानसी ने सिगरेट का पैकेट भूमि के आगे किया।

"नहीं यार!" भूमि बोली।

"क्योँ?" मानसी ने पूछा।

"मैंने सिगरेट पीना छोड़ दी है।" भूमि बोली।

"ऐsssले! कब से?" मानसी ने आगे पूछा।

"कल से?" भूमि बोली।

"मगर क्यो?" मानसी ने पूछा।

"वो दरअसल विशाल को सिगरेट पंसद नहीं है।" भूमि ने बताया।

"अच्छा जी! तो ये सब विशाल के लिए किया जा रहा है।" मानसी ने मज़ाक किया।

"अरे नहीं रे! असल में उसे गुड नाइट किस की आदत है। कल रात जैसे ही मैने उसके गालों पर पप्पी दी, वह दूर छिंटक कर बोला- 'छीं! भूमि! आपके मूंह से सिगरेट की बदबूं आ रही है! मुझे नहीं चाहिते गुड नाइट किस!' और वह सो गया।" भूमि ने बताया।

"ओsssह! तो बात यहां तक आ पहूंची है।" मानसी ने पुनः मज़ाक किये।

"ऐसा कुछ नहीं है। मुझे बस ऐसा लगता है कि कही वो नाराज़ न हो जाये। कहीं फिर से मुझे छोड़कर चला गया तो!" भूमि बोली।

मानसी आंखें फाड़कर भूमि को देख रही थी। स्वयं भूमि के चेहरे के हावभाव बदल गये थे। उसने ये जो कुछ कहा, उस पर उसे स्वयं भरोसा नहीं हुआ। उसे विशाल से इतना लगाव उसे कैसे हो गया? जबकी उसे पता है कि विशाल आज नहीं तो कल अपने घर चला ही जायेगा।

भूमि और मानसी घर लौटी। शाम का वक्त था। फ्लैट परिसर में भीड़ जमा थी। भूमि को संदेह हुआ। उसने स्कूटर मानसी को थमाया और परिसर के अंदर दाखिल हुई। भीड़ को चीरते हुये जब उसने सामने देखा, तो वह शाॅक्ड हुये बिना नहीं रह सकी। विशाली को रस्सियों से बांधकर नीचे बैठा दिया गया था। उसके माथे पर से खून बह रह था। सोसाईटी के लोग वहां जमा थे। बच्चें विशाल का मज़ाक बना रहे थे।

"विशाल! तुम्हारी ये हालत किसने की?" भूमि ने विशाल के पास पहूंचकर पूछा। वह विशाल की रस्सीयां खोलने लगी।

"इस पागल को आपने ही अपने यहा रखा था न? और अब ये हमारे बच्चों को पत्थर मारने लगा है।" सोसाइटी रहवासी सुमंत शर्मा बोले।

"हां! इस पागल के डर से हमारे बच्चे कम्पाउण्ड में भी नही खेल सकते।" मिसेस वर्मा बोली।

"आप लोग फ्रिक न करें। मैंने पागलखाने फोन लगा दिया है। वो लोग इस पागल को लेकर जायेगें।" सोसाइटी सेक्रेट्री मनोहर दूबे बोले।

"मैंने पहले नहीं मारा भूमि। पहले इन बच्चों ने मुझे मारा! तब मैने अपनी सुरक्षा के लिए इन्हें मारा। देखो! मेरे सिर में पत्थर से मारा।" विशाल अपने माथे को दिखाकर बोला।

भूमि ने अपने डुपट्टे से विशाल के माथे को पोंछा।

एम्बुलेंस की ध्वनि सुनाई दी। परिसर के बाहर से कुछ लोग सफेद यूनिफार्म में कम्पाउण्ड में दाखिल हुये।

"खबरदार! जो किसी ने मेरे विशाल को हाथ लगाया तो।" भूमि ने पास खड़े गार्ड की बंदूक छीनकर सम्मुख खड़े सफेद यूनिफार्म धारियों को निशाना बनाते हुये कहा।

"अरे मैडम! ये आप क्या कर रही है?" गार्ड ने कहा।

"चुपचाप वहीं खड़े रहो।" मानसी ने बदूंक की नोंक को हवा में लहराते हुये कहा।

उपस्थित सभी लोग पीछे हटने लगे।

"आप विशाल को पागल को कह रहे है। जबकी इससे बड़े पागल तो आप लोग है। यह सिर्फ बच्चों के साथ खेलना चाहता था। आपके बच्चों ने इसे सताया, इसका मज़ाक बनाया। इस पर पहले हाथ उठाया। बदले में विशाल ने अपना बचाव किया तो क्या गल़त किया? लेकिन इस पर भी इन बच्चों ने पत्थर मारकर विशाल का सिर फोड़ दिया। और आप लोगों ने बजाये विशाल की मरहम पट्टी करने के इसे जानवरों की तरह रस्सी से बांध दिया।" भूमि गुस्सें में बोली।

सोसाइटी के लोग भूमि को आश्चर्यचकित होकर देख रहे थे।

"एक बात कान खोलकर सुन लीजिये, अगर विशाल को कुछ भी हुआ तो मैं आप सभी पर अटेम टू मर्डर का चार्ज लगवा दूंगी।" भूमि क्रोध में थी।

पागलखाने की गाड़ी उल्टे पैर लौट गयी। रहवासियों की भीड़ छटने लगी थी। लोग डर के मारे अपने-अपने फ्लैट में घुस गये। भूमि और मानसी विशाल का हाथ थामे उसे लिफ्ट के रास्ते ऊपर फ्लैट में लेकर आये। विशाल का प्रारंभिक उपचार करने के बाद भूमि ने उसे बेडरेस्ट करने को कहा। विशाल आराम करने लगा।

"अच्छा विशाल! तुमने मुझे उस दिन थप्पड़ क्यों मारा था?" अगली सुबह भूमि ने विशाल से पुछा। आज ऑफिस की छुट्टी थी। भूमि विशाल के सिर के घाव की ड्रेसिंग कर रही थी।

"पता नहीं! मुझे तुम्हारा गाना सुनकर कुछ अजीब सा लगा था। वह एहसास अच्छा नहीं था। बहुत खराब लगा। इसलिए मैंने थप्पड़ मारा।" विशाल ने प्यार से कहा।

"ओsssह! अच्छा विशाल! तुम्हारी कोई गर्लफ्रेंड थी! आई मीन है!" भूमि ने पूछा।

"है न! तुम हो! मानसी दीदी है!" विशाल बोला।

"क्योँ रे! तू मुझे दीदी बोलता है और भूमि को नाम लेकर बोलता है! ऐसा क्यो?" मानसी आते ही बोली। उसने भूमि और विशाल की बातें सुन ली थी। मानसी के हाथों में नाश्ते की पाॅलीथीन थी।

"अरे! तु इतनी सुबह-सुबह यहां?" भूमि ने पूछा।

"हां! आशुतोष भी आया है मेरे साथ!" मानसी बोली।

आशुतोष मानसी के पीछे से निकलकर भूमि के सामने आ गया।

"आओ! बैठो! आशुतोष!" भूमि ने बेड से उठते हुये कहा।

"ओsssह! तो यह है विशाल! जिसके कारण कल इतना बवाल हुआ था।" आशुतोष बोला।

आशुतोष ने विशाल से हाथ मिलाया। दोनों बातें करने लगे।

"बाकी बातें बाद में! सब लोग पहले नाश्ता कर लेते है।" मानसी ने कहा।

भूमि और मानसी प्लेट में नाश्ता रखने लगी। चारों नाश्ता करने लगे।

"मगर आशुतोष तुझसे प्यार करता है भूमि। जो हुआ उसे भुल जा। देख आशुतोष से अच्छा लड़का तुझे कोई दूसरा नहीं मिल सकता।" मानसी बोली। भूमि और मानसी किचन में दोपहर का खाना बना रही थी। बैठक हाॅल में आशुतोष और विशाल आपस भें चर्चारत थे।

"कैसे भूल जाऊं मानसी! आशुतोष झूठ बोलकर मुझे उस रेव पार्टी में ले गया। मुझे नशीली कोल्ड्रींक पीलाकर मेरे साथ जबरदस्ती सैक्शुवशल रिलेशन बनाया। चलो! यह सब मैं भूल भी जाऊं! लेकिन ये कैसे भुल जाऊं कि वह मुझे रैव पार्टी में अकेले छोड़कर भाग गया था।" भूमि बोली।

"परिस्थिति ही कुछ ऐसी थी भूमि। पुलिस की रेड पड़ी थी वहां। और इसके लिए वह तुम्हें कितनी बार साॅरी बोल चुका है और तुमने भी तो उसे माफ कर दिया था, तो अब फिर से वही सब याद करने की क्या जरूरत है?" मानसी ने कहा।

"तुझे नहीं पता मानसी! उन पुलिस वालों ने रात भर मुझे लाॅकअप में बिठाकर रखा। मेरी एक बात नहीं सुनी। बल्की मुझे ऐसा ट्रीट किया जैसे की मैं कोई सेक्स वर्कर हूं?" भूमि की आंखें अब भीग चूकी थी।

"एक लड़की होने के नाते मैं तेरा दुख समझ सकती हूं। लेकिन बीती बातें यादकर तुम सिर्फ अपने आप को तकलीफ दे रही हो। एक बेहतर लाइफ तेरा इंतज़ार कर रही है। वो देख! आशुतोष अब भी तेरा वेट कर रहा है। तु अगर ऐसे ही बहाने-बाजी करती रही तो वह दिन दूर नहीं जब आशुतोष तुझे छोड़कर चला जायेगा।" मानसी ने साफ-साफ कह दिया।

वह आशुतोष के पास पहूंची। आशुतोष भी वहां से विदा लेने को तैयार खड़ा था।

"आशुतोष! आईएम साॅरी! मुझे थोड़ा वक्त़ चाहिये! प्लीज! आई होप यू वील अंडरसेंड।" भूमि ने आशुतोष से कहा। आशुतोष के चेहरे पर हल्की मुस्कान थी। जो उसकी सहमती थी। वह विशाल से बाय बोलकर फ्लैट से बाहर निकल गया। मानसी ने भूमि को गले से लगाया और वह भी वहां से लौट गयी।


क्रमशः ..........

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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।


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जितेन्द्र शिवहरे 

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*तुम मेरे हो-कहानी* 4


*एक कहानी रोज़-234 (05/12/2020)*


अब आगे...........


        *भूमि* और मानसी का रिश्ता एक सच्ची सहेली से भी बढ़कर था। दोनों एक-दुसरे के हृदय की बात फौरन जान लेते थे।

"मानसी! तु मुझे शादी के लिए कहती रहती है! अब तेरी उम्र भी शादी लायक हो गयी है। तुझे नहीं लगता कि अब तक तेरे भी हाथ पीले हो जाने चाहिये थे।" भूमि बोली। मानसी और भूमि ऑफिस जाते हुये चलते स्कूटर पर बैठे बातें कर रहे थे।

"हां तु सही है। मगर कोई अच्छा सा लड़का मिलता ही नहीं, क्या करूँ?" मानसी बोली।

"क्यों हरीश है न? वह कितना प्यार करता है तुझसे?" भूमि बोली। वह स्कूटर राइड कर रही थी।

"क्या हरिश ने तुझे ऐसा कहा?" मानसी ने पुछा।

"नहीं! लेकिन मुझे उसके हाव-भाव और हरकतों से यही लगता है कि वह तुझे बहुत पसंद करता है।" भूमि ने आगे कहा।

"यही तो मुश्किल है भूमि। मुझे इशारों वाली भाषा समझ नहीं आती। मुझे तो स्टेट फाॅरवर्ड लोग पसंद है जो सीधे मुंह पर कह दे।" मानसी बोली।

"अच्छा! तो फिर तुने अनुराग का प्रपोजल क्यों नहीं एक्सेप्ट किया? वह तो बहुत ही स्टेट फाॅरवर्ड है।" भूमि ने पूछा।

"अनुराग! कुछ ज्यादा है स्मार्ट बंदा है। सोचता है उसके जैसा कोई दुसरा नहीं है। बाॅडी-शाॅडी बना ली तो उसे लगा कि है लड़कीयां उसके आगे-पीछे घूमेंगी! मानसी ऐसी लड़कीयों में से नहीं है।" मानसी बोली।

"आखिर तु चाहती क्या है?" भूमि ने सड़क किनारे स्कूटर रोक दी। दोनों स्कूटर से उतर गयी।

"तुझे आज एक बात तो माननी ही पड़ेगी!" भूमि बोली।

"कौनसी बात?" मानसी पे पूछा।

"यह की तुझे अनुराग का स्वभाव पसंद है लेकिन प्यार तू हरीश से करती है। तू चाहती है की अनुराग वाला स्वभाव हरीश अपनाये। मैंने ठीक कहा न!" भूमि बोली।

"हांsss वोsssss!" मानसी ने अटकते हुये सहमती दे दी।

"देख मानसी! यहां पर कोई परफेक्ट नहीं है। हर किसी में कुछ न कुछ कमी है। तुझे हरीश के नाम से भी प्राॅब्लम है! अरे! आजकल तो नाम भी बदलने का ट्रेंड है। और हरीश तुझसे इतना प्यार करता है कि मुझे यकिन तेरी खातिर वह अपना नाम भी बदल लेगा।" मानसी बोली।

"लेकिन भूमि, उसने आज तक मुझे प्रपोज नहीं किया। मैं कैसे मान लूं की वह मुझसे प्यार करता है!" मानसी ने पूछा।

"प्रपोज करने का ठेका क्या सिर्फ लड़कों के पास है? लड़कियां नहीं कर सकती क्या? यार वह शर्मीला है। ऊपर से धार्मिक। वह नहीं कह पायेगा अपने दिल की बात तुझसे। तु ही हरीश को प्रपोज कर दे न! देखना वह मना नहीं करेगा।" भूमि ने बताया।

"ठीक है भूमि। मैं कल ही उसे प्रपोज कर दूंगी। जो होगा देखा जायेगा। अगर हरीश मेरे नसीब में होगा तो मुझे जरूर मिलेगा।" मानसी बोली।

"ये हुई न बात! चल बैठ, ऑफिस को लेट हो रहा है।" भूमि ने कहा।

मानसी का मन हल्का हो चुका था। भूमि ने आज उसकी  सारी दुविधा खत्म कर दी थी। स्कूटर पर बैठे-बैठे वह अपने फोन में वह हरीश की प्रोफाइल देखने लगी। मानसी हरीश के खयालों में खो चूकी थी।

"हरीश! आओ! बैठो!" मानसी बोली।

मानसी ने शहर के प्रसिद्ध गणेश मंदिर में हरीश को मिलने बुलाया। हरीश को देखते ही मानसी खिल उठी।

"मानसी जी! आप और मंदिर! ये चमत्कार कैसे हो गया?" हरीश ने व्यंग्य कसा।

"हां! मैं अगर तुम्हें रैस्टोरेंट या कैफे में बुलाती तो तुम कोई न कोई बहाना बनाकर टाल देते और नहीं आते।इसीलिए तुम्हें मंदिर का बुलाया ताकी तुम कोई बहाना नहीं बना सको।" मानसी बोली।

"अरे वाह! आप तो बहुत बुद्धिमान है! मुझे प्रसन्नता है कि आपने मुझे एक अच्छे और पवित्र स्थान पर मिलने बुलाया।" हरीश बोला।

"मैंने तुम्हें यहां इसलिए बुलाया है कि.......!" मानसी कुछ कह पाती इससे पहले ही हरीश ने उसे रोक दिया।

"रूकिये! रूकिये! अब मंदिर आये है तो सबसे पहले ईश्वर के दर्शन कर ले। बाकी बातें बाद में करेंगे। ठीक है!" हरीश ने कहा।

"ओके।" मानसी बोली।

भगवान गणेश की प्रतिमा के आगे पहूंचकर हरीश ने अपने दोनों हाथ जोड़ लिये। उसने मानसी की तरफ देखा।

"मानसी जी! यह डुपट्टा इस तरह अपने सिर पर रख लेवे। भगवान के सामने स्त्रियां नंगे सिर नहीं आती।" कहते हुये हरीश ने मानसी का डुपट्टा उसके सिर पर ढांक दिया।

मानसी इस अनुभव को कभी नहीं भुल सकती थी। इतनी भक्ति भावना उसके हृदय में पहले कभी नहीं उमड़ी जितनी आज उमड़ रही थी।

"आओ नीचे बैठो। दो पल भगवान से मन ही मन बातें करते है।" हरीश बोला। वह नीचे फर्श पर बैठ गया। मानसी भी उसके पास आलथी-पालथी मारकर नीचे बैठ गयी। हरीश की आंखें बंद थी। मानसी ने अपनी आंखें बंद कर ली। उसके दोनों हाथ श्रध्दा से जुड़ गये। मन ही मन वह भगवान से अपने मन की इच्छा पुर्ण करने की याचना करने लगी।

"हां तो बताईये! आपने मुझे यहाँ क्यों बुलाया?" हरीश ने मानसी से पूछा।

मानसी और हरीश मंदिर के बगल में भक्तजनों के बैठने के लिए रिक्त रखी गयी पत्थर की कुर्सी पर बैठ गये।

"देखीये हरीश! मुझे आपसे सिर्फ इतना कहना था कि मैं आपसे प्यार करती हूं और आपसे शादी करना चाहती हूं। यदि आपको भी मुझसे प्यार है तो मेरा प्रपोजल एक्सेप्ट करे।" मानसी एक सांस में बोल गयी।

"मुझे खुशी है कि आपने अपने हृदय की बात मुझसे कही। मैं स्वयं आपसे यह सब कहना चाहता था मगर साहस नहीं जुटा पा रहा था।" हरीश बोला।

"तो क्या आप और मैं अब शादी कर सकते है?" मानसी ने कौतूहल वश पूछ लिया।

"आप तो मुझसे भी अधिक उतावली है मानसी जी! लेकिन अभी तक आपने मुझसे वह बात नहीं कही जिसके लिए आपने मुझे यहां बुलाया है!" हरीश बोला।

"कौन-सी बात?" मानसी ने पुछा।

"यही की मुझे अपना नाम बदलना पड़ेगा और तुम्हारी तरह एक दम आधुनिक बनना पड़ेगा।" हरीश ने बताया।

"आपने यह कैसे जान लिया?" मानसी ने पूछा।

"हृदय में अगर सच्चा प्रेम हो तो अपने पियतम के मन की बात पता चल ही जाती है।" हरीश बोला।

मानसी आज पहली बार हरीश से नज़र नहीं मिला पा रही थी।

"अरे! ये आपके दोस्त अनुराग है न!" हरीश ने सामने से मंदिर प्रांगण में प्रवेश कर रहे अनुराग को देखते हुये मानसी से पूछा। अनुराग के साथ उसकी नयी गर्लफ्रेंड स्मिता भी थी।

"हां! ये अनुराग ही है। आपको इसके विषय में भी पता है।" मानसी ने पूछ।

"आपकी प्रिय सहेली भूमि ने बताया था।" हरीश बोला।

"ओsss!" मानसी ने कहा।

कुछ ही देर में अनुराग और स्मिता मंदिर से दर्शन कर बाहर परिरस में आ गये।

"आईये मानसी जी। अनुराग से जान-पहचान बढ़ाते है।" कहते हुये हरीश उठ खड़ा हुआ।

"अरे! मगर क्यों?" मानसी ने पूछा।

हरीश ने मानसी की एक न सुनी। वह अनुराग के पास पहूंच गया। हाय-हॅलो के बाद हरीश ने अनुराग से पंजा लड़ाने का आग्रह किया।

"लड़कीयों के सामने आपकी बेईज्ज़ती हो जायेगी पण्डित जी।" अनुराग ने व्यंग्य कसा।

स्मिता हंस रही थी।

"जाने दीजिये हरीश! ये क्या बचपना है।" मानसी ने हरीश का हाथ पकड़कर कहा।

"बेईज्जती मेरी या आपकी?" हरीश ने नहले पर दहला फेंका।

अनुराग बाॅली-बिल्डर था। इसमें कोई संदेह न था कि वह सरलता से हरीश को हरा देगा।

"आईये पंडित जी! यदि आपकी मुझसे हारने की इतनी प्रबल इच्छा हो रही है तो मैं इसे अभी पुरी किये देता हूं।" अनुरान ने हरीश से कहा।

पत्थर की कुर्सीयों पर दोनों आमने-सामने बैठ गये। मानसी को स्वयं पर गुस्सा आ रही थी। न वह हरीश को यहां बुलाती और न ही वह अनुराग से पंचा लड़ाने की जिद करता। आज यदि हरीश हार गया तो उसका यह अपमान वह जिन्दगी भर नहीं भुले सकेगी।

"कमाॅन अनुराग! कमाॅन!" स्मिता अनुराग को चियर कर रही थी।

किन्तू यह क्या? अनुराग के माथे पर पसीने की बूंदे तैरने लगी। हरीश प्रसन्नता की मुद्रा में बैठा था। जैसे उसे अपनी विजय पर तनिक भी संदेह न था। पांच मिनीट के संघर्ष पुर्ण मुकाबले में अंततः जीत हरीश की हुई। अनुराग हार गया। स्मिता के चेहरे पर मासुमियत थी। वह पैर पटकते हुये वहां से चल दी। अनुराग भी उसके पीछे-पीछे चल दिया।

हरीश की विजय पर सबसे ज्यादा खुशी मानसी को हुई। वह दौड़कर हरीश के हृदय से जा लगी।

"मानसी जी! स्वयं पर नियंत्रण रखे। यह मंदिर परिसर है। लोग हमें देख रहे है!" हरीश ने कहा।

"साॅरी! साॅरी! हरीश! मैं बता नहीं सकती कि मुझे कितनी खुशी हो रही है। आज आपने अनुराग का ही घमंड ही नहीं तोड़ा बल्कि मेरा मन भी जीत लिया है।" मानसी प्रसन्नता से बोली।

"क्या अब भी मुझे अपना नाम और पहनावा बदलने की आवश्यकता है मानसी जी?" हरीश ने पूछा।

मानसी चूप हो गयी। वह असमंजस में थी।

"देखो मानसी! मैं तुम्हारे लिए अपना नाम, अपना पहनावा सब बदल सकता हूं लेकिन मेरा प्राकृतिक स्वभाव जीवन भर नहीं बदलेगा। और फिर जब मैं तुम्हारे लिए यह स्वयं को बदल दूंगा तब तुम पर यह दबाव रहेगा कि तुम ही मेरे लिए अपने आपको बदलो। यह क्रम चलता ही रहेगा। और यह हम दोनों को सदैव परेशान करता रहेगा।" हरीश बोला।

मानसी बड़े ध्यान से हरीश की बातें सुन रही थी।

"इससे अच्छा तो यह हो कि हम दोनों जैसे है वैसे ही रहे और एक-दुसरे के सुख-दुख का ध्यान रखे। इससे हमारे मध्य न केवल प्रेम बढ़ेगा बल्कि हम एक-दुसरे का उचित मान-सम्मान भी कर पायेंगे।" हरीश बोला।

चलते-चलते दोनों मंदिर परिसर के बाहर आ गये थे।

"अब चलो! मुझे स्कूटर से मेरे घर तक छोड़ दो।" हरीश ने मानसी से कहा।

"चलिए।" मानसी बोली।

दोनों स्कूटर पर बैठकर वहां से चल दिये।


क्रमशः ........

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जितेन्द्र शिवहरे 

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