तुझ संग प्रित लगाई-कहानी

      तुझ संग प्रीत लगाई- कहानी

शबाना अपने दस साल के भाई अली के साथ दुनियां और अपनी जिन्दगी में एकदम अकेली रह गयी थी। उपद्रव का मंजर उसे भुलाये नहीं भूलता था। आपसी रंजिश और साम्प्रदायिक दंगों में शबाना के माता-पिता बलि का बकरा बने और निर्दोष होकर भी जान से हाथ गंवा बैठे। शबाना अपनों में भी परायी हो गयी थी। पुलिस का जब तब मुंह उठाकर घर चले आना उसे परेशान करने लगा था। मजबुरन अपने भाई अली को साथ लेकर वह दूसरे शहर में जा बसी। इंदौर आकर वो नौकरी करने लगी। अली की शेष पढ़ाई भी उसने यहीं जारी रखी। अली खून की कमी से होने वाली बीमारी से परेशान था। हर माह उसे खून की आवश्यकता होती थी। सरकारी दवाखाने में इंतजाम न होता तब शबाना सोशल मीडिया पर अपने भाई अली के लिए रक्त की फरियाद करती। जैसे-तैसे उसने शहर में एक वर्ष निकाला। मुआब्जे के रूपये मिलने पर जल्द ही उसने शरह में अपना एक मकान खरीद लिया। कलेक्टर ऑफिस में टाईपिस्ट की अनुकम्पा नौकरी भी मिल गयी।

एक दिन हाॅस्पीटल से फोन आया कि अली उनके यहां एडमिट है। शबाना दौड़ते हुये हाॅस्पीटल पहूंची। अली ठीक था। उसे ब्लड चढ़ाया जा रहा था। स्कूल से लौटते वक्त़ अली रास्तें में बेहोश होकर गिर पड़ा था।

"लेकिन वो नौजवान कौन था अली!" शबाना ने अली से पुछा।

"पता नहीं आपा! लेकीन वो भाईजान बहुत अच्छे थे। मुझे खुब हंसाया और कहा की जब भी मुझे उनकी जरूरत पड़े इस नम्बर पर फोन लगा दे। वे आ जायेंगे।" अली ने कहा और एक कागज शबाना के आगे किया।

कागज पर नाम और मोबाइल नम्बर लिखा था।

शबाना ने फोन लगाकर उस युवक को शुक्रिया कहना चाहा। लेकिन युवक ने फोन नहीं उठाया। तीन महिने बाद वह युवक पुनः अली से मिला। अली अब इतना दक्ष्य हो गया था कि स्वयं ही हाॅस्पीटल पहूंचकर अपना ट्रीटमेंट करवा लेता। उसे अपनी आपा शबाना की व्यस्तता का पता था। शबाना को पता चला कि एक बार फिर उसी युवक ने अली को अपना खून दिया है जिसने तीन महिने पहले खून देकर अली की जान बचाई थी। शबाना उत्सुक थी, उस युवक से मिलने के लिए। पहली बार युवक ने शबाना का फोन उठाया। शबाना चाहती थी कि वह युवक से मिलकर उसका शुक्रिया अदा करे। युवक मान गया। छुट्टी के दिन शहर के नेहरू पार्क में शबाना अपने भाई अली को साथ लेकर उस युवक से मिलने पहूंची। युवक जाना-पहचाना था। शबाना के चेहरे के भाव बदल गये। वह गुस्से में आ गयी। गिरीश वही युवक था जो उस उपद्रव में सम्मिलित था। जिसके कारण शबाना के माता-पिता की जान गयी थी।

"मैं जानता हूं, जो हुआ उसमें तुमने बहुत कुछ खोया है। लेकिन मेरा यकिन करो इस बात का मुझे भी उतना ही दुःख है जितना की तुम्हें है।" गिरीश बोला।

शबाना ने मुंह फेर लिया। वह गिरीश से बात नहीं करना चाहती थी। अली जरूर गिरीश के पास खड़ा था। वह गिरीश और शबाना के बीच सुलह कराना चाहता था।

"देखीये। हमें आपसे कोई बात नहीं करनी। अली! चलो यहां से!" शबाना ने अली का हाथ पकड़ लिया।

"अगर आपने अपने मां-बाप को खोया है तो मैंने भी अपने भाई को खोया है। बिल्कुल अली की ही तरह तो था वह। मासूम और निर्दोष।" गिरीश ने ऊंचे स्वर में कहा।

शबाना के लौटते पैर थम गये। वह गिरीश की तरफ पीठ कर खड़ी थी।

"इस उपद्रव में सबने कुछ न कुछ खोया है शबाना। लेकिन इस दुःख के साथ सारी जिन्दगी तो नहीं गुजारी जा सकती।" गिरीश बोला। वह शबाना के ठीक सामाने आ खड़ा हुआ।

"अब देखो न! तुम्हें सरकारी मदद भी मिली और नौकरी भी। मुझे सिर्फ आश्वासन के सिवाये कुछ नहीं मिला। और तो और दंगाई बोलकर मुझे नौकरी से भी निकाल दिया गया।" गिरीश के स्वर धीमें थे।

"बदले की भावना में बदला लेना वाले भी झुलसते है गिरीश।" शबाना बोली।

"सही कहा। यह ऐसी आग है जो किसी को नहीं छोड़ती।" गिरीश बोला।

"लेकिन भाईजान ऐसा कब होता रहेगा? कब तक बेकसूर लोग दंगाईयों की सूली पर चढ़ते रहेंगे? क्या ये आग कभी नहीं बुझेगी?" अली पूछ बैठा।

"साम्प्रदायिकता की ये आग एक न एक दिन जरूर बुझेगी। हम सभी को मिलकर सद्भाव के लिए कुछ न कुछ करना होगा। तब ही सबकुछ पहले जैसा होगा। वह  समय याद करो जब हमारे बुजुर्ग एक साथ मिलकर रहा करते थे।" गिरीश बोला।

"यह सब इतना आसान नहीं है।" शबाना बोली।

"जानता हूं। मगर उतना मुश्किल भी नहीं है।" गिरीश बोला।

"मैं बतलाऊं! इस मुद्दे का हल है मेरे पास।" अली बोला।

"क्या?" शबाना और गिरीश ने एक साथ पूछा।

तीनों नीचे गार्डन की घास पर बैठ गये थे।

"आप दोनों शादी कर लो।" अली बोला।

"किससे?" गिरीश ने पुछा।

"एक-दुसरे से!" अली ने कहा।

"अली! बकवास मत कर!" शबाना चिढ़ते हुये बोली।

"सोचिये, आपसी भाईचारे की इससे बड़ी मिशाल क्या होगी? जिन्होंने दंगों में अपनों को खोया वहीं एक-दुसरे के हमसफ़र बनेंगे?" अली बोला।

"अली! तु बहुत छोटा है। यह संभव नहीं है।" गिरीश बोला।

"मेरी उम्र भले ही छोटी है भाईजान! लेकिन बात इतनी बड़ी कही जिसे बड़े-बड़े लोग नहीं कह सकते।" अली बोला।

गिरीश का मुंह फटा की फटा रह गया। वह सोचने पर विवश था।

"बात में दम तो है।" गिरीश बोला।

"आप भी क्या बच्चें की बात में आ गये।" शबाना बोली।

"देखो शबाना! मैं जानता हूं ऐसा करना बहुत कठिन है लेकिन इस वक्त़ इससे बढ़ियां उपाय कोई दूसरा नहीं हो सकता।" गिरीश बोला।

"नासमझों की तरह बातें न करो गिरीश! यह फैसला तुम्हारी और मेरी निजी जिन्दगी पर कितना बुरा प्रभाव डालेगा उसका भी तो सोचो।" शबाना बोली। वह खड़ी हो गयी।

"जानता हूं। हमारे धर्म अलग-अलग है और हमारे अपने ही हमें एक नहीं होने देंगे। लेकिन...लेकिन शांति और आपसी भाईचारे के लिए यह बहुत जरूरी है। मैं तैयार हूं तुम अपना बोलो।" गिरीश बोला। उसने अपना हाथ शबाना की तरफ बढ़ा दिया।

शबाना गिरीश को एक टक देख रही थी। अली उत्सुकता से शबाना के निर्णय की प्रतिक्षा में था।

"गिरीश! लेकिन....!" शबाना बोलते हुये अटक रही थी।

"मैं जानता हूं शाबाना! तुम्हारी चिंता क्या है? जिस तरह तुम अपने ईमान की पक्की और निडर लड़की हो उसी तरह मैं भी अपने नियम और वचन का पक्का हूं। मैं मरते दम तक तुम्हारा हाथ नहीं छोडूंगा, ये वचन देता हूं।" गिरीश ने बोला।

शबाना ने गिरीश के हाथों में अपना हाथ दे दिया। अली दोनों से लिपट गया।

तीनों प्रसन्न होकर पार्क से बाहर निकले। शबाना बाइक की पिछली सीट पर बैठ गयी। अली दोनों के बीच बैठा था। गिरीश ने शहर की नीलकंठ होटल की ओर अपनी बाइक दौड़ा दी। शबाना और अली के साथ गिरीश का ये पहला लंच था। बाइक कुछ ही पलों में अदृश्य हो गयी।


समाप्त 

-------------------------

प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।


©®सर्वाधिकार सुरक्षित

लेखक--

जितेन्द्र शिवहरे 

177, इंदिरा एकता नगर पूर्व रिंग रोड मुसाखेड़ी इंदौर मध्यप्रदेश

मोबाइल नम्बर

7746842533

8770870151

Jshivhare2015@gmail.com Myshivhare2018@gmail.com


टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

हरे कांच की चूड़ियां {कहानी} ✍️ जितेंद्र शिवहरे

लव मैरिज- कहानी

तुम, मैं और तुम (कहानी)