संत बोले-कहानी

 *संत बोले-कहानी*


*एक कहानी रोज़-250 (24/12/2020)*


     *संत* नारायण दास अपने कुछ शिष्यों के साथ नगर से गुजर रहे थे। दोपहर हो चली थी। एक शिष्य ने गुरूजी से भोजन हेतु आग्रह किया। संत नारायण दास ने नगर के एक मकान पर दस्तक दी। किसी पुरूष ने द्वार खोला।

"वत्स! आपके यहां आज हमारे तथा हमारे शिष्यों के लिए भोजन का प्रबंध हो सकता है?" संत नारायण दास ने विनम्रता से कहा।

उस पुरूष ने संत तथा उनके साथ आये शिष्यों को अच्छी तरह से देखा। भगवा वस्त्रों से सुसज्जित संतों की टोली पैदल ही गमन कर रही थी।

"क्या आपको पता है महाराज! ये एक नास्तिक का घर है और मैं ईश्वरीय सत्ता और उसे मानने वालों का घोर विरोधी हूं।" उस आदमी ने कहा।

"अर्थात् क्या हमें आपके यहां से भोजन नहीं मिलेगा?" संत ने पूछा।

तीनों शिष्य संतोषावस्था में खड़े थे। वे शांत होकर संत और उस पुरूष का वार्तालाप सुन रहे थे।

"आपको भोजन एक ही शर्त पर मिलेगा?" पुरूष ने कहा।

"कैसी शर्त?" संत ने पूछा।

"यहीं की आपको भी मेरी तरह ईश्वरीय सत्ता को नकारना होगा। यह भगवा चोला उतारकर साधारण वस्त्र पहनने होंगे। सभी तरह के आडम्बर को त्यागना होगा।" पुरूष ने कहा।

संत नारायण दास ध्यान से सुन रहे थे। वे पलटकर अपने शिष्यों को भी देखते जा रहे थे।

"क्या हुआ महाराज? मेरा कहा मानिये और स्वादिष्ट भोजन का तत्काल आनन्द लीजिये।" पुरूष ने कहा।

"ठीक है भाई! जैसी तुम्हारी ईच्छा। किन्तु एक बात तो बताओ?" संत ने आगे पुछा।

"पुछिये महाराज!" पुरूष ने कहा।

"यदि आज तुम दोपहर का भोजन हमें नहीं खिलाते हो तब क्या तुम यह निश्चयपूर्वक कह सकते हो की आगे हमें कोई भोजन नहीं खिलायेगा?" संत ने पूछा।

"अsssअ नहीं! दुनिया में अब भी असंख्य मुर्ख पड़े है जो साधु-संतों के पैरों में अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार बैठे है।" पुरूष ने कहा।

"पुत्र! मैं यह नहीं पूछूंगा कि तुम्हें ईश्वर पर विश्वास क्यों नहीं है? हां किन्तू इतना अवश्य जानना चाहता हूं कि जब कोई तुम्हें ईश्वर को न मानने से नहीं रोकता तब तुम क्यों अन्य को ईश्वर को मानने से रोक रहे हो?" संत ने पूछा।

"क्योँकी यह सब झूठ है, पाखंड है। धर्म के नाम पर बड़े-बड़े व्यवसाय खुल गये है। धनाढ्य लोग देवालयों के नाम पर व्यापार करते है और आम आदमी अंध श्रद्धा में अपनी मेहनत की कमाई व्यर्थ के आडम्बर और संस्कारों पर खर्च कर देता है। वह जीवन भर इनमें बूरी तरह उलझा रहता है।" उस पुरूष ने कहा।

"मुझ प्रसन्नता है कि आज का युवा पारंपरिक रूढ़िवादी सोच को स्वीकार नहीं करता। उसे अपने भविष्य की चिंता है और उसे संवारने में बाधक तत्वों का शत्रु समान दमन करते हुये आगे बढ़ रहा है।" संत बोले।

"यानि की आप स्वीकारते है कि संस्कारों के नाम पर ऐसी कितनी ही कुरीतियां है जिन्हें तथाकथित तात्कालिक प्रबुद्धजनों ने अपने नीजी स्वार्थ के लिए प्रचारित और प्रसारित किया। परिणाम स्वरूप वे चालबाज लोग और भी धनवान हो गये लेकिन गरीब और गरीब होता चला गया।" पुरूष ने कहा।

"मैं तुम्हारी बातों से सहमत हूं किन्तु चातुर्य व्यक्ति ही इस समस्या हेतू पूर्णरूपेण जिम्मेदार है इस बात को मैं स्वीकार नहीं कर सकता। क्योंकी हमारे संस्कार हमें पंगू नहीं संयमित और दृढ़ बनाते है।" संत बोले।

"वह कैसे?" पुरूष ने पूछा।

"इससे पहले मुझे तुम एक प्रश्न का उत्तर दो।" संत ने पूछा।

"पूछिये।" पुरूष बोला।

"तुम पिछली बार अपने पैतृक गांव अथवा अपने बचपन के इष्ट जनों से कब मिले थे?" संत ने पूछा।

"अssss! चार-पांच साल हो गये। जब भी गांव जाने का सोचा कुछ न कुछ जरूरी काम आ गया।" पुरूष ने जवाब दिया।

"अर्थात् पिछले पांच सालों से तुम अपनों से नहीं मिले। वे अपने जिनके बिना तुम कभी एक पल भी नहीं रहा करते थे। बचपन के ऐसे मित्र जिनका साथ तुम्हें संसार का सबसे बड़ा सुख देता था। उनसे मिले आज तुम्हें पुरे पांच साल हो गये।" संत बोले।

"आखिर आप कहना क्या चाहते है?" उस पुरूष ने पूछा।

"इतना ही कि आधुनिकता की दौड़ और वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखते हुये तुम एक कामयाब व्यक्ति अवश्य बन गये किन्तु अपने संस्कार और संस्कृति से दूर हो गये।" संत बोले।

वह पुरूष कुछ पलों के लिए मौन था।

"तीज़-त्यौहार हमारी जड़ों में है। इन्हें पारंपरिक उत्सव और उत्साह के साथ मनाये जाने के पीछे सिर्फ इतना सा कारण है कि इनमें परिवार का हर सदस्य अपने संपूर्ण मनोयोग से संलग्न होता है। प्रत्येक सदस्य एक-दूसरे से स्नेह रखते हुये तीज-त्यौहार का बड़ी बेसब्री से इंतज़ार करता है क्योंकि यही वह समय होता है जब सभी लोग एक साथ होते है।"

"रीति-रीवाज़ और परम्पराएं मानव को शैशवावस्था से सींचकर आतंरिक सुदृढ़ बनाती है, उसे अच्छा परिवेश उपलब्ध कराती है। व्रत-उपवास मानव को संयम और नियम से रहना सिखलाते है। देवालयों की समीपता से मन स्वच्छ और पवित्र बना रहता है। दुषित विचार शंख-नाद और घंटे-घड़ियाल की ध्वनि से समाप्त हो जाते है। भजन-कीर्तन और सत्संग के प्रभाव से संलिप्त जनों के अशोभनीय क्रियाकलापों का अंत हो जाता है। आस्था के प्रति समर्पित मानव स्वयं के अंदर असीम आत्म विश्वास और उत्साह अनुभव करता है जिसके बल पर वह बड़े से बड़ा कार्य करने में समर्थ हो जाता है। यज्ञ, हवन और कथा-प्रवचन मानवीय हृदय में भक्ति रस प्रवाहित करते है जिससे वातावरण दृश्य-श्रृव्य अनुकूल बनता है।" संत ने कहा।

"आज जितने भी छल-प्रपंच और कुकर्म संपादित हो रहे है उसका एक मात्र कारण यही है कि हमने अपने बुजुर्गों से प्राप्त संस्कारों को नयी पीढ़ी में सही ढंग से हस्तांतरित नहीं किया। आज हम अपने बढ़े-बुढ़ों से दूर हो गये है और परिणाम हम सबके सामने है।" संत ने कहा।

संतों की टोली देखकर आसपास के कुछ रहवासी जमा हो गये। वे संत का आशीर्वाद लेने आगे बड़े, यह देखकर संत से बातचीत में संलग्न वह पुरूष घर के अंदर चला गया और दरवाजा बंद कर लिया। संत नारायण-नारायण की जाप करते हुये आगे बढ़ गये।


समाप्त 

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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।


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लेखक--

जितेन्द्र शिवहरे 

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