हंवाएं-कहानी

 हवाएं--कहानी (पुनर्जन्म)

    अंजु के लिये मयूर का रिश्ता आया था। इस खबर ने घर में सभी को चौंका दिया। मयूर, अंजु का सबसे अच्छा दोस्त था। अंजु के सभी सुख-दुःख का साथी। अंजु और मयूर की शादी की बात सोच से परे थी। मयुर ने कभी नहीं बताया कि वह अंजु से प्रेम करता है। अंजु स्वंय मयूर को मात्र एक दोस्त मानती थी। अंजु के लिये बहुत से रिश्तें आये। लेकिन जैसे ही उसकी मानसिक बिमारी संज्ञान में आती, वे लोग उल्टे पैर लौट जाते। अंजु का भयावह चिखना-चिल्लाने किसने नहीं सुना! अपनी छोटी बहन नीता और मां सीमा उसके रौद्र रूप को देख चूकी थी। एक दिन पिता शुमेर सिंह तो अंजु के हाथों चोटील भी हुये। अंजू को जब भी दौरे पड़ते तब वह किसी न किसी को घायल करने के प्रयास में रहती। पिछले दिनों उसने अपने घर की छत से कुत्ते के बच्चे को नीचे पृथ्वी पर फेंक दिया। किसी ने चूपके से इस घटना की वीडियों बनाकर वायरल कर दिया। अंजू को बहुत भर्त्सना मिली। पशु अधिकार वालों की प्रताड़ना सहनी पड़ी सो अलग। अंजु की मानसिक बीमारी ने उसे बचा लिया अन्यथा उसे जेल जाना पड़ता।

"मैं उससे प्यार करती हूं। छोड़ दो मुझे। वह मेरा इंतजार कर रहा है। हमे एक होने से कोई रोक नहीं सकता।" यह कहती हुई अंजु घर के साजो सामान बिखेरने लगी। उसे जबरन रस्सी से बांधना पड़ा। सीमा ने इंजेक्शन निकाला और अंजु की कमर में लगा दिया। कुछ ही पलों में शांत होकर वह गहरी नींद में चली गई। अंजु के पागलपन में या तो बेहोशी का इंजेक्शन सहायक होता या फिर मयूर। मयूर को देखते ही अंजु शांत हो जाती। वह दौड़कर उसके सीने से लग जाती। तदपश्चात कुछ क्षणों में अंजु सामान्य हो जाती।

"मयूर एक बार फिर सोच लो। आखिर ये तुम्हारी जिन्दगी का सवाल है।" मयूर की भाभी वंदना बोली।

"भाभी! अच्छी तरह सोच कर ही मैंने यह निर्णय लिया है।" मयूर बोला।

मयूर जानता था कि उसके परिवार वाले अंजु के लिये परेशान थे। अंजु को एक विशेष प्रकार की बिमारी थी। जिसका इलाज बड़े से बडा डाक्टर भी नहीं कर पाया रहा था। अंजु के उपचार में उसके मां-बाप ने कोई कोताही नहीं बरती। जहाँ जो इलाज सुनने में आता वे लोग अंजु को वहां ले जाकर उपचार करवाते। तांत्रिकों के भी खूब चक्कर काटे। किन्तु उसकी बीमारी जस की तस बनी हुई थी। मयूर समझ चूका था कि अंजु का विवाह न होना इसकी प्रमुख वजह थी। यदि उसका विवाह जल्द हो जाये तब हो सकता है वह पुरी तरह ठीक हो जाये! मयूर ने शोध आरंभ किया। अंजु को जब भी दौरा पड़ता वह अपने पुर्व जन्म में पहूंच जाती। अपने पिछले जन्म में वह सुकन्या नाम की युवती थी। जिसे सरपंच का पुत्र हिमेश बहुत प्यार करता था। पति के निधन के बाद तीन-तीन लड़कीयों का पालन कर रही सुमित्रा के लिये बहुत दिनों के बाद खुश खबर आई थी। हिमेश ने स्वयं सुकन्या का हाथ सुमित्रा से मांगा। किन्तु सरंपच भानुप्रकाश इस विवाह के विरुद्ध थे। अतएव उन्होंने हिमेश को स्पष्ट मना कर दिया।

"अपनी बेटी को लेकर कहीं अन्यत्र चली जाओ। तुम्हारे शेष जीवन की सभी व्यवस्था मैं कर दूंगा। अन्यथा की स्थिति में परिणाम गंभीर होंगे।" संध्या के समय भानुप्रकाश सुमित्रा की कुटीयां पर आकर बोले।

"सरपंच साहब! जैसा आप चाहते है वैसा ही होगा।" डरी-सहमी सुमित्रा बोली। भानुप्रकाश की शक्ति से वह परिचित थी। पति हलकू की बीमारी में जमींन-जायदाद बिक चूकी थी। इसके बाद भी हलकू का जीवन केंसर से मुक्त न हो सका। हलकू के निधन के बाद परिवार का भरण-पोषण एक बड़ी समस्या थी। उस पर साहुकार का ब्याज दिनों दिन बड़ता जा रहा था। भानुप्रकाश ने न केवल सुमित्रा की जमीन पुनः वापिस दिलवाई अपितु उसे आर्थिक कर्ज से भी मुक्त किया। बदले में सुमित्रा को अपनी अस़्मत भानुप्रकाश को सौंपनी पड़ी। चौधराइन को जब इस बात का पता लगा तब उसने सुमित्रा को गांव से बाहर निकाल कर ही दम लिया। सुकन्या और दोनों बहने क्रमशः आरती, संगीता बड़ी हो रही थी। वे तीनों अपने परिवार पर बीत रहे हर सुख-दुख को बहुत नजदीक से अनुभव कर रही थी। शहर में एक छोटे से किराये के कमरे में चारों मां-बेटी गुजर बसर करने पर विवश थी। हिमेश शहर आकर छिपते-छुपाते सुकन्या से मिल लिया करता। सुमित्रा सब जानते हुये भी अनजान बनने का स्वांग करती। सरकारी हाॅस्टल में रहकर पढ़ाई करने वाले  संतोष को आरती से प्रेम हो गया। आरती भी उसे प्रेम करने लगी। दोनों समय-समय पर बाहर मिला-जुला करते। जब घर में कोई नहीं रहता तब संतोष यहाँ आकर आरती से मिलता। दोनों में अंतरंग संबंध भी स्थापित हो चुके थे।

"क्या आजीवन तुम आरती का हाथ थामने का वचन देते हो?" घर आये संतोष को चाय का कप हाथ में देती हुई  सुमित्रा बोली।

"जी हां। नौकरी लगते ही मैं आरती से शादी कर लूंगा।" संतोष बोला।

"नहीं। नौकरी के पुर्व ही तुम्हें आरती की मांग भरनी होगी। अन्यथा आज से अपना अलग रास्ता नापो।" सुमित्रा कठोर थी। संतोष चाय पीकर चला गया। आरती अपनी मां से नाराज थी।

"तुम्हें संतोष से ऐसी बातें नहीं करनी थी।" आरती क्रोध में थी।

"नौकरी मिलते ही ये तुम्हें भूल जायेगा। इसीलिए मैंने यह शर्त रखी।" सुमित्रा बोली।

"हां दीदी। जिस तरह हिमेश ने सुकन्या दीदी को भुला दिया।" संगीता बोली। सुकन्या पर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा था। उसे ज्ञात हुआ कि हिमेश केवल अपने यौन सुख के लिये उसका उपयोग करता था। अपने पिता के निर्णय का सम्मान करते हुये उसने अन्यत्र विवाह करने की अभिस्वीकृति प्रदान कर दी थी।

हिमेश की शादी होने जा रही थी। वह सुकन्या को छोड़ किसी दुसरी लड़की से विवाह करने जा रहा था।

"ये तु क्या कह रही है संगीता? तु और हिमेश...?" सुकन्या चौंकी। उसने अंदर से द्वार बंद कर दिया।

"इधर आ। बैठ शांत होकर मुझे पुरी बात बता।" सुकन्या बोली।

"दीदी! वचन दो कि ये बात तुम मां को नहीं बताओगी?" संगीता ने डरते हुये कहा।

"नहीं बताऊंगी! अब जल्दी बता ये सब कब हुआ?" सुकन्या गंभीर थी।

"हिमेश जब भी तुमसे मिलने आता। वह मुझे टक टकी लगाये देखा करता। मैंने कभी गौर नहीं किया। वह मुझे यहां-वहां स्पर्श करता। मैंने उसे भी मन का वहम समझकर भुला दिया।" संगीता बोलते-बोलते रूक गयी।

"आगे बता? क्या किया उसने तेरे साथ?" सुकन्या बोली।

"एक दिन जब घर पर कोई नहीं था तब हिमेश घर आया। मुझे अकेले पाकर उसने मुझसे मीठी-मीठी बातें आरंभ कर दी।" संगीता बोल रही थी।

"वह अब भी मुझे स्पर्श करने की कोशिश कर रहा था। मैं उससे दूर छिंटकी जा रही थी। मगर फिर उसने मेरे कंधें मजबुती से पकड़ लिये। मेरे लिए अब चिखने-चिल्लाना ही एक मात्र विकल्प था।" संगीता भावुक हो गयी।

"संगीता! डरो नहीं। बड़े घरानों में यह सब चलता है। अगर तुम चाहती हो कि तुम्हारी बहन सुकन्या चौधरी परिवार की बहु बने तो तुम्हें यह तो करना ही होगा।" हिमेश ने जाल फेंका। इस जाल में संगीता फंस गयी। सुकन्या और अपने परिवार के सुखद भविष्य के लिये उसने अपनी अस़्मत का सौदा कर दिया।

"ये तुने क्या कर दिया संगीता?" सुकन्या ने संगीता को झंझोंड़ दिया।

संगीता रोने लगी। "मैं उस कमीनें को छोड़ूंगी नहीं। सारी दुनियाँ में उसे बदनाम न कर दिया तो मेरा नाम सुकन्या नहीं।" सुकन्या की आंखों में खुन संवार ऊतर आया था।

"नहीं दी। आप ऐसा कूछ मत करना। वो लोग बहुत खतरनाक है।" संगीता ने विनती की।

तब ही दरवाजे पर सुमित्रा ने दस्तक दी। दोनों ने स्वयं को व्यवस्थित किया। संगीता ने आंसू पोंछ लिये। सुकन्या ने दरवाजा खोला।

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मिशन हाॅस्पीटल। यहां कोई कार्य करना नहीं चाहता था। एक एक कर सभी वार्ड ब्याॅय वहां से नौकरी छोड़ चूके थे। थक हारकर हाॅस्पीटल प्रबंधन कमेटी ने हाॅस्पीटल की रात्रिकालीन सेवायें बंद कर दी। रात में डाॅक्टर और नर्स भी वहां सेवाये देने से कतराते थे।

"ये रहा अस्पताल! भैया यहां ले लो।" मुकेश ने ऑटो वाले से कहा।

"भैया! यहां प्रसव न कराये।" वह ऑटो ड्राइवर गंभीर होकर बोला।

"अरे! तुम देख नहीं रहे। मेरी पत्नी दर्द के मारे कराह रही है। चलो ऑटो वहां लो।" मुकेश के स्वर कड़क थे।

"आप समझते क्यों नहीं। इस अस्पताल में प्रेतों का वास है। यहां जन्म लेने वाला शिशु जीवित नहीं रहता।" ऑटो वाले ने कहा।

पुजा घबरा गई। "मैंने बताया था न आपको! इस हाॅस्पीटल के बारे में! हम यहां नहीं जायेंगे।" वह डरते हुये बोली।

"तुम घबराओ नहीं पुजा! कुछ नही होगा। अब अधिक देर करना उचित नहीं।" मुकेश ने पुजा का धीरज बंधाया।

ऑटो वाले ने हाॅस्पीटल के मुख्य द्वार पर ऑटो लगा दिया। हाॅस्पीटल में डाॅक्टर उपलब्ध नहीं थे। मुकेश ने अधिक फीस का लोभ देकर एक डाॅक्टर को वहां फोन कर बुलवा लिया। पुरे हाॅस्पीटल में सन्नाटा पसरा हुआ था। लेबर रूम में पुजा का प्रसव कार्य आरंभ हुआ। वही की स्थानिय एक नर्स और वह पुरूष डाॅक्टर पुजा को प्रसव कराने में व्यस्त थे। तब ही बिजली गूल हो गयी। जो वहां अक्सर होता था वही हुआ। कुछ देर पश्चात बिजली आई। पुजा ने स्वस्थ शीशु को जो जन्म दिया।

मुकेश अति प्रसन्न था। पुजा भी कुछ सामान्य हो चली थी।

"देखा। तुम व्यर्थ डर रही थी। कुछ नहीं हुआ।" कहते हुये मुकेश दवाइयां देने बाहर चला गया। शिशु जन्म के कुछ घण्टे बड़ आराम से निकल चूके थे।

पुजा बाथरूम से लौटी ही थी कि पालने में शिशु को न पाकर उसके होश उड़ गये। उसने यहां-वहां देखा।

"मुकेश मुकेश" वह चिल्ला रही थी। मुकेश दौड़ता भागता हुआ वहां आया।

"क्या हुआ पुजा?" मुकेश ने पुछा।

"मुकेश! हमारा बच्चा बेड पर नहीं है।" पुजा व्याकुल थी।

"अरे! ऐसे केसे? कहां गया?" मुकेश बेड के आसपास खोजने लगा। तब ही पुजा की नज़र ऊपर छत पर गई। यह वही शिशु था। जो छत की दिवार पर चिपका हुआ था। उसने मुकेश को आंखों के इशारे से छत की ओर देखने को कहा। मुकेश के होश उड़ चूके थे। वह घबरा गया। उसने बाहर नर्स को आवाज लगाई। किन्तु वह प्रसव कराकर घर जा चूकी थी। चौकीदार भांगते हुये वार्ड के अंदय आया।

वह भी इस भयावह दृश्य को देखकर बर गया। वह नवजात शिशु एकाएक कुछ बड़ा होकर दिवार पर इस तरह सरलता से घुटने-घुटने चल रहा था जैसे वह इस तरह चलने का बहुत अभ्यस्त हो।

वह शिशु दिवार पर चिपकी एक छिपकली का पिछा कर रहा था। आखिरकार उसने छिपकली को पकड़ ही लिया। और यह क्या? छिपकली को अपने एक हाथ में पकड़ कर वह उसे खाने लगा। उसके नुकले दांत और रहस्यमयी मुस्कराहट भय उत्पन्न करने वाली थी।

"बाबुजी! आप तुरंत यह वार्ड खाली कर दे और घर चले जाये।" चौकीदार ने समझाया।

"क्या बकवास कर रहा है। हम अपने बच्चें को यहां छोड़कर चले जाये।" मुकेश बोला।

"बाबुजी! अब ये आपका बच्चा नहीं रहा। प्रेतात्मा ने उसके शरीर में प्रवेश कर लिया है। प्रमाण आपके सामने है।" चौकीदार ने बताया। शिशु बड़ी ही तन्मयता से उस छिपकली को खां रहा था। उसके होठ छिपकली के रक्त से लाल हो गये थे। रक्त की कुछ बुंदें नीचे सफेद बेड पर टपक रही थी।

मुकेश समझ गया। अब उसे जल्दी से जल्दी यह वार्ड छोड़ना था। क्योंकि प्रेत भूखा था। और अधिक समय वहां रूकना खतरे से खालो नहीं था। चौकीदार बाहर भागने लगा। तब ही वार्ड का दरवाजा अपने आप बंद हो गया। 

"बचाओ बचाओ!" चौकीदार चिल्लाया। मगर उसकी सुनने वाला वहां कोई नहीं था। शिशु छत की दीवार से सीधे आकाश में उड़ते हुये चौकीदार की छाती पर आ बैठा। चौकीदार घबराहट में वार्ड के अंदर भागा-दौड़ी करने लगा। किन्तु अधिक समय तक वह प्रेतात्मा से भाग नहीं सका। शिशु ने उस चौकीदार के गले पर अपने नुकीले दांत गढ़ा दिये। चौकीदार के रक्त का एक-एक वह अपने अंदर ऊतार रहा था। मुकेश ने अवसर पाकर पुजा का हाथ पकड़ा और द्वार खोलकर बाहर की ओर दौड़  लगा दी।

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     लाल अस्पताल के नाम से मशहूर शहर की बहुत पुरानी जर्जर हो चुकी बिल्डिंग। मुख्य सड़क से लगा यह अस्पताल शहर और आसपास के गांव का निकटतम स्वास्थ्य केन्द्र था। इसके तलघर में पोस्टमार्टम कक्ष था। जहां दिन के समय भी जाने में भय लगता था। भुले भटके मरिज अक्सर अपने रोग के उपचार हेतु तलघर पहूंच जाते। तलघर स्वतः ही एक भुल भुलैया में परिवर्तित हो जाता। मरीज या मरीज के परिजन भुले-भटके अगर तलघर पहूंच जाते, तब बमुश्किल ही निकल पाते। असंख्य असंतुष्ट आत्माओं ने वहां तलघर में अपना निवास बना लिया था। अस्पताल प्रबंधन ने रात्री में तलघर की ओर जाना प्रतिबंधित कर दिया था। इसके बाद भी मरीज के परिजन वहां पहूंच ही जाते। अर्ध रात्रि में सुखराम की डूयूटी पोस्टमार्टम कक्ष के बाहर लगी थी। सुखराम शवों की निगरानी करता था। जब पोस्टमार्टम कक्ष से विभिन्न तरह की आवाजें उसे परेशनान करने लग जाती तब वह शराब के नशे में स्वयं को डुबो लेता। एक वही था जो कई सालों से अकेले ही वहां नौकरी कर रहा था। उसके बहुत से सहकर्मी यहाँ की नौकरी छोड़कर जा चूके थे।

"यार सुखिया! तु यहां रात भर कैसे रूक जाता है।" सुबह-सुबह तलघर में झाडु पोछा करने आये चंदन ने पुछा।

"देख भई चंदन! यह काम उतना भी मुश्किल नहीं  है जितना तुम लोग समझते हो।" सुखराम बोला।

उसकी ड्यूटी खत्म हो चूकी थी। अब वह अस्पताल की यूनिफार्म उतारकर घरेलू वस्त्र पहन रहा था।

"क्या बात करते हो सुखराम काका। यहां लोग दिन में भी आने को डरते है वहां तुम रात भर मुश्तैदी से नौकरी करते हो।" चंदन ने कहा।

"चंदन! यहां अक्सर वो शव आते है जो असमय मौत के शिकार हो जाते है। उनकी इच्छाएं अधुरी रह जाती है। जिसके लिए वे भटकते है।" सुखराम बोला।

"क्या मतलब?" चंदन ने पुछा।

"मतलब यह की यदि इन असतुंष्ट आत्माओ को प्रसन्न कर दे तो यह तुम्हें परेशान नहीं करेंगी।" सुखराम ने बताया।

"देखो! मैं अपने साथ बीड़ी के कुछ बंडल, सिगरेट और शराब अवश्य रखता हूँ। इन सब से ये आत्माएं प्रसन्न रहती है। और मुझे कुछ नहीं करती।" इतना कहकर सुखराम ने पोस्टमार्टम कक्ष का द्वार खोला। चंदन ने जल्दी-जल्दी वहां की साफ-सफाई की और वह बाहर आ गया।  सुखराम ने शवों की गिनती चेक कर पुनः दरवाजे पर ताला लगा दिया। अब से कुछ ही देर बाद डाॅक्टर की टीम आयेगी। जो क्रमशः उपलब्ध शवों का पोस्टमार्टम करेगी।

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संगीता के पैर भारी थे। इस खबर ने सुमित्रा को चिन्ता में डाल दिया। सुकन्या और आरती भी सदमें थी। बिन ब्याही मां संगीता के विषय में चर्चा होने लगी थी। सुमित्रा ने कमर कस ली थी। अब या तो हिमेश संगीता से विवाह करे अथवा वह चौधरी परिवार को पुरी दुनिया के सामने बदनाम कर देगी। सुकन्या कक हिम्मत पाकर सुमित्रा और आरती भी इस जंग को लड़ने को तैयार थी। भानुप्रकाश को यह विदित हो चला था कि संगीता के गर्भ में पल रहा बच्चा हिमेश का ही है। उन्होंने अपने आदमी को सुमित्रा के परिवार को समाप्त करने का आदेश दे दिया। संगीता का प्रसव आरंभ हो चुका था।

"मां आप दोनों यही रहो। मैं संगीता को लेकर मिशन हाॅस्पीटल जा रही हूं।" सुकन्या बोली।

संध्या हो रही थी। ऑटो टैक्सी वाले को बुलाकर सुकन्या  और संगीता उसमें बैठ गयी। सुमित्रा घर पर ही रूक गयी। उसके साथ आरती भी थी। चौधरी के आदमी देर रात वहां पहूंचे। सुमित्रा के घर के बाहर पहूंचकर चौधरी के उन अंगरक्षकों ने सुमित्रा के घर पर ज्वलनशील मिट्टी का तेल छिड़क दिया। अन्य दुसरे आदमी ने माचिस की तिली से घर में आग लगा दी। कुछ ही पलो में आग ने भंयकर रूप ले लिया। घर के अंदर से करूण रूदन की आवाजें आने लगी। सुमित्रा और आरती जीवित ही जलकर भस्म हो गयी।

घोड़ा गाड़ी तीव्र गति से हाॅस्पीटल की ऑर दौड़े जा रही थी। चौधरी के आदमी तांगे के पीछे लग चूके थे। उनकी जीप तांगे के करीब आ चुकी थी। सुकन्या भांप चूकी थी कि कुछ लोग उसका पीछा कर रहे है। संगीता दर्द से कराह रही थी।

"तांगे वाले भैया। जरा जल्दी चलो न।" सुकन्या बोली।

"जी बहन जी।" कहते हुये तांगेवाले चाबुक से घोड़े की पीठ पर वार किया। घोड़ा अपनी संपूर्ण शक्ति से भाग रहा था। हाॅस्पीटल अब कुछ ही दुरी पर था। सड़क सुनसान थी। जीप सवार तांगे के करीब आ चूके थे। जीप में बैठे राजा नामक एक युवक ने तांगे वाले पर पिस्तौल तान दी। घबरा कर उसने तांगा रोकना आंरभ कर दिया। सुकन्या ने युक्ति सोचकर एक जोर की लात तांगे वाले को दे मारी। तांगे वाला कराहते हुये तांगे से निचे जा गिरा। घोड़े की लगाम अब सुकन्या के हाथ में थी। उसने जोर लगा के लगाम खींच दी। घोड़ा हिनहिनाते हुये भागा। जीप पुनः तांगे का पीछा करने लगी। जीप से हवा में फायर किये जाने लगे। एक के बाद एक बहुत से पिस्तौल से फायर किये गये। एक गोली संगीता को जा लगी। वह तडप ऊठी। पिस्तौल की एक गोली घोड़े के पैर में जा लगी। घोड़ा अपना संतुलन खो बैठा। कुछ ही दुरी पर जाकल वह गिर गया। अपने साथ वह तंगे को भी नीचे गिरा बैठा। देखते ही देखते  सड़क पर संगीता और सुकन्या भी आ गिरी। यहां से हाॅस्पीटल साफ-साफ दिख रहा था। सुकन्या ने बाहों की सहायता से संगीता को उठाया। जीप यहाँ आकर रूक गयी। हाॅस्पीटल के आसपास चहल-पहल थी। सो जीप सवार वही रूककर दोनों बहनों समाप्त करने का कोई अन्य तरीके पर विचार करने लगे।

संगीता ने एक कन्या को जन्म दिया। जन्म के तुरंत बाद संगीता ने प्राण छोड़ दिये। सुकन्या की आंखें भीग चूकी थी। वह नवजात कन्या को बाहों में उठा वहां से निकलने की योजना बना रही थी। क्योंकि उसे संदेह था कि चौधरी के आदमी जल्दी ही उस तक पहूंच जायेंगे।

मगर यह क्या! नवजात कन्या अपने नियत स्थान पर नहीं थी। सुकन्या उसे यहां-वहां उसे ढुंढ रही थी। चौधरी के आदमी अस्पताल में दाखिल हो चूके थे। वे उस वार्ड में जा पहूंचे जहाँ सुकन्या थी।

"अब बचकर कहाँ जाओगी?" राजा नाम के युवक ने सुकन्या से कहा।

सुकन्या स्थिर होकर बेड पर लेटी थी। चौधरी के आदमी सुकन्या की तरफ बढ़े। सुकन्या का चेहरा उसी के बालों से ढंका हुआ था। राजा ने सुकन्या के चेहरे से बाल हटाने को जो ही हाथ बढ़ाया, सुकन्या क्रोधित होकर उठ बैठी। उसका चेहरा सामान्य नहीं था। अपितु किसी भयानक चुड़ेल से कम न था। नवजात कन्या जो अब प्रेत बन चूकी थी, उसने सुकन्या के शरीर में प्रवेश कर लिया था। सुकन्या ने राजा का गला पकड़ लिया। उसके शेष साथी सुकन्या पर पिस्तौल से गोली दागने लगे। सुकन्या पर गोलियों का कोई असर नहीं हुआ। उसने राजा के गले पर पकड़ मजबूत कर ली। कुछ ही क्षण में राजा की जीभ बाहर आ गयी। उसकी आंखें फटी की फटी रह गयी। वह मर चूका था। अब शेष आदमियों की बारी थी। वे वहां से भागने के लिये द्वार खोलने का प्रयास करने लगे। किन्तु स्वतः बंद हुये दरवाजे को खोलना उसके वश में न था। एक-एक कर उन सभी पांचों आदमियों को प्राणांत कर ही सुकन्या ने दम लिया।


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  भानुप्रकाश कार ड्राइव कर रहे थे। काम के सिलसिले से उसे दुसरे शहर जाना था। रात होने को आई। दोपहर ही चौधराइन अनिता ने कहा था की कल निकल जाना। क्योंकी रात के समय रास्तें कें जंगलों से निकलना खतरनाक हो सकता है। कुछ दिनों पुर्व ही खबर सुनने आई थी कि माकनपुर गांव से लगे जंगलों में एक अधेड़ आयु के पुरूष की मृत देह बरामद हुई थी। वह अपनी कार से सड़क से गुजर रहा था। उस आदमी की पहचान समाजसेवी मोहन कुमार के रूप में हुई थी। कहा जाता है कि मोहन कुमार ने ट्रेन में कभी किसी समय एक किन्नर का मजाक उड़ाया था। उसने ट्रेन में रूपये मांग रहे एक किन्नर से जोरदार बहस की थी। किन्नर ने भी उसे बहुत भला-बुरा सुनाया। मोहन कुमार अपने ओजस्वी भाषण से यात्रियों को एकमत करने के लिये तैयार कर चूका था। ट्रेन के उस डिब्बे में उस दिन राधे नामक किन्नर को किसी ने भीक्षा नहीं दी। उपर से मोहन कुमार ने ट्रेन की चेन खींचकर अधबीच में ही पुलिस बुलवाकर राधे को अपमानित कर उतरवा दिया। उस दिन राधे को बहुत ठेस लगी। वह पहले ही अपने समुदाय के लोगों से परेशान था। क्योंकी वे उसकी दैनिक न्यूनतम कमाई से नाराज थे। रश्मि मौसी ने उसे आज भी बहुत भला-बुरा कहकर घर से काम पर जाने को कहा था। रूखे मन से वह ट्रेन में रूपये मांगने आया था। उसकी भीख मांगने में दिलचस्पी नहीं थी। अपितु वह तो मेहनत-मजदूरी कर पेट भरने के पक्ष में था। किन्तु आज ट्रेन में उसकी बहुत बेजईज्जती हुई। राधे हताहत था। उसने अगली आने वाली ट्रेन के नीचे आकर आत्महत्या कर ली। राधे की हत्या का कारण मोहन कुमार ही था। इसी कारण राधे की आत्मा ने मोहन कुमार को मौत के घाट उतार दिया। पुलिस इस तथ्य तक पहूंच गयी थी कि जिस-जिस व्यक्ति ने अपने समय में किसी भी किन्नर का अपमान किया है, कोई बुरी आत्मा उसे मृत्यु दण्ड दे रही है। अनिता को डर था कि वह आत्मा भानुप्रकाश को नुकसान पहूंचा सकती थी। क्योंकि अपने बेटे के जन्म के बाद जब किन्नरों की टीम घर पर नेक मांगने आयी थी तब भानुप्रकाश ने उन लोगों को पुरे मोहल्ले के सामने अपमानित किया था। वे लोग दस हजार रूपये नेक मांग रहे थे। और बिजनेस में लाॅस झेल रहे भानुप्रकाश का वैसे ही मुड ऑफ था। किन्तु जब किन्नरों ने हठ किया तब भानुप्रकाश आपा खो बैठा। उसने सभी किन्नरों को धक्के मार कर घर से निकाल दिया। किन्नर की टीम भी हाथा-पाई पर आ गई। तब भानुप्रकाश ने पुलिस को काॅल लगा दिया। पुलिस किन्नरों को पुलिस वैन में बैठाकर पुलिस थाने ले गयी। जहाँ उन्हें पुरी रात लाॅकअप में बितानी पड़ी।

"चौधरी जी! आगे मत जाओ। वही किसी होटल पर रात रूक जाओ।" अनिता फोन पर कह रही थी।

"तुम मेरी चिंता मत करो अनु! दो घण्टे का सफर और है। बस नेपानगर आने ही वाला है।" भानुप्रकाश सरलता से मानने वाला नहीं था।

"भानु! तुम समझ क्यों नहीं रहे। वहां के जंगलों में बुरी आत्मा का वास है। पिछले दिनों ही एक आदमी की वहां मौत हुई है।" अनिता ने याचना की।

"डरने की बात नहीं है अनु! मुझे कुछ नहीं होगा।" भानुप्रकाश ने कहा।

"उस आदमी ने भी एक किन्नर की इन्सल्ट की थी। और वह मारा गया। तुमने भी तो•••" अनिता बोली।

"ओह! तो तुम इस बात से डर रही है। देखो तुम नहीं चाहती न! की मैं आगे जाऊँ? तो नहीं जाता! अब ठीक है।" भानुप्रकाश ने झूठ कह दिया। क्योंकी वह माकनपुर से लगे जंगलों में प्रवेश कर चूका था। रात के सन्नाटे में कार के पहियों की आवाज वातावरण में गूंज रही थी। सड़क पर पेड़ों के पत्तें उड़ रहे थे। यकायक भानुप्रकाश की कार ने अधिक स्पीड स्वतः ही पकड़ ली। वह घबरा गया। वह कार के ब्रेक को पैर से दबाने लगा। किन्तु उसने कार से अपना नियन्त्रण खो दिया था। उसे आभास हो गया था कि कार कोई ओर ही चला रहा था। कार में सुकन्या की आत्मा प्रेवश कर चूकी थी। उसकी बगल वाली सीट पर सुकन्या की आत्मा बैठी थी। सुकन्या का भयानक रूहानी चेहरा देखकर भानुप्रकाश की चीख निकल गयी। वह कार के दरवाजा खोलने का प्रयास कर रहा था। मगर न दरवाजा खुला और न हीं कार रूक पाई। सुकन्या के चेहर पर उसे अपनी मौत दिखाई देने लगी। सुकन्या ने अपना हाथ सुधीर की गर्दन पर रख दिये।

"मुझे छोड़ दो। प्लीज! माफ कर दो। मैंने तुम लोगों के बहुत बुरा किया है। मुझे छोड़ दो•• बचाओsssबचाओsss।" यह भानुप्रकाश के अंतिम शब्द थे। सुकन्या की असंतृप्त आत्मा ने भानुप्रकाश का  प्रणांन्त कर ही दम दिया।

सुबह अनिता अपने पति भानुप्रकाश की लाश के पास बैठकर रो रही थी।

"कितना मना किया था इन्हें! रात में यहाँ से न जाये। मेरी एक न सुनी। और चले गये। ऐहहहssss!" अनिता विलाप कर रही थी।

"भानुप्रकाश कार से कहां जा रहे थे?" पुलिस ऑफिसर अर्जुन ने पुछा।

"बिजनेस के सिलसिले में उनकी एक मिटिंग थी। बुरहानपुर में।" अनिता ने बताया। अनिता के रिश्तेदार भी मौके पर आ चूके थे।

फाॅरेसिंक विभाग के कुछ लोग भानुप्रकाश की लाश के आसपास से प्रमाण जुटा रहे थे। एक पुलिसकर्मी लाश की फोटो खींच रहा था। आसपास भीड़ जमा हो गयी थी। माकनपुर के ग्रामीण भी वहां आ चूके थे। सड़क यातायात सुचारू रहे इसीलिए वहां एक पुलिस कर्मी वाहनों को सुगमतापूर्वक यातायात संकेतों के माध्यम से निकलने के निर्देश दे रहा था। भानुप्रकाश की लाश को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया।

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अंजु ने अपने मुख से सिलसिलेवार यह घटनाक्रम सुनाया। मयुर के साथ शेष पारिवारिक सदस्यों को ज्ञान हो गया कि सुकन्या ने ही अंजु बनकर इस पुनर्जन्म  लिया है। उसकी अधुरी इच्छा अब भी अधुरी थी। अंजु का सड़ा- गला शव आज भी उस मिशन हाॅस्पीटल के शवग्रह में रखा था। उसका दाह संस्कार ही अंजु की मुक्ति थी। किन्तु अब हालात पहले से अधिक बदल गये थे। सुकन्या अब और भी अधिक शक्तिशाली हो चूकी थी। उसकी आत्मा हाॅस्पीटल के पोस्टमार्टम कक्ष में भटक रही थी। अब तक वहां सैकडों मौतें हो चूकी थी। अधिकतर मौतों का कारण हृदयाघात था। शवों की विनाश लीला जो प्रत्यक्ष न देख सका वह मौत के आगोश में चला गया।

"नहीं मयुर! तुम वहां नहीं जाओगे।" अंजु ने चिंता जाहिर करते हुये कहा।

"मेरी फिक्र मत करो अंजु। मुझे कुछ नहीं होगा।" मयुर बोला।

मयुर के इरादे इतने मजबुत थे कि उसके अपनों ने सहमति दे दी। ईश्वर का आशीर्वाद लेकर मयुर हाॅस्पीटल की ओर निकल पड़ा। उसे रात होने से पुर्व ही सुकन्या का शव खोजकर उसे आग के हवाले करना था। रात हो जाने के बाद शवग्रह में अन्य आत्माएं सक्रिय हो जाती थी जिससे वहां उपस्थित मनुष्य का जीवन संकट में पड़ जाता। केवल सुखराम ही था जो वहां रात में ठहरने का साहस रखता था।

"नहीं बाबुजी। मैं यह काम नहीं कर सकता। अरे कौन सुकन्या! कैसी लाश? अब इतने शवों के बीच सुकन्या की लाश कहां मिलेगी? और फिर ये बीस साल पहले की बात है। अगर कोई लाश यहां होगी तो वह अब तक सड़ गल गयी होगी।" सुखराम ने मयुर को बताया।

"देखीये बाबा। मेरा वह लाश ढुंढना बहुत डरूरी है। आप चाहे उतने रूपये मैं आपको दे सकता हूं। ये किसी की जिन्दगी और मौत का सवाल है?" मयुर बोला।

"अरे भाई! ये तुम क्या कह रहे हो मुझे समझ नहीं आ रहा है। तुम कह रहे हो की तुम्हारी मंगेतर अंजु जो पिछले जन्म में सुकन्या थी उसकी लाश यहां शवग्रह में रखी है और वह अंजु को परेशान कर रही है।" सुखराम बोले।

"हां बाबा। जब तक उस लाश के अवशेष अग्नि में भस्म नहीं होंगे तब तक अंजु ठीक नहीं होगी।" मयुर ने बताया।

"तुम्हारी बात मैं समझ रहा हूं। लेकिन यह बहुत खतरनाक है। इसमें तुम्हारी जान भी जा सकती है।" सुखराम ने समझाया।

"अभी कौन सा जी रहा हूं बाबा। रोज-रोज मरने से अच्छा है एक बार में ही मौत आ जाये।" मयुर बोला। सुखराम कुछ पिघल गये। उन्होंने सुकन्या का शव ढूंढना शुरू किया। एक विशेष लोहे की शव पेटीयां जिसमें पुराने शव बहुत पहले रखे जाते था और जो अब प्रयोग से बाहर हो चूकी थी, उन्हें खोलकर देखा जाने लगा। लाशों की सडंध नाक-मुंह में जा रही थी। सांस लेना दुभर हो गया था। किन्तु सुकन्या का शव खोजना था इसलिए मयुर सबकुछ सह रहा था। इधर तेजी से संध्या हो रही थी। शव पेटीयां कुछ खुल जाती तो कुछ जंग लगने के कारण खुल नहीं रही थी। इन्हें एक अलग ही कक्ष में बेतरतीब रख दिया गया था।

"मयुर! मुझे छैनी-हथौड़ी लानी होगी। वरना ये पेटीयां तो खुलने से रही।" सुखराम बोले।

"ठीक है बाबा। आप औजार लेकर आओ। तब तक मैं बाकी की पेटीयां देखता हूं।" यह कहते हुये मयुर एक-एक कर अन्य लोह पेटीयां देखने लगा। उसे आश्चर्य यह हुआ की केवल सुकन्या ही नहीं अन्य कुछ ओर लाशे थी जो पेटी में रखे-रखे सड़ गयी थी। उनकी पेटीयां खुलते ही संबंधीत की आत्मा बाहर निकल आयी। शनैः शनै: रात गहराने लगी। बिजली की वह ट्यूबलाइट जलती और फिर बुझ रही थी। खिड़कीयों की खड़क ने मयुर का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। उसे इल्म हो गया की आत्माएं सक्रिय हो चूकी है। तब ही तो इस तलघर में हवा-पवन ने प्रवेश कर लिया था। वह जल्दी- जल्दी शेष पेटीयो को खोलने की कोशिश करने लगा। लगभग सभी पेटीयां खुल चूकी थी। मात्र एक उस पेटी के।

"मयुर। निकलो यहां से।" सुखराम वहां आते ही चिल्लाया।

"नहीं बाबा। अगर आपको डर लग रहा है तो आप चले जाओञ यहां से। मैं अपना काम पुरा कर के ही आऊंगा।" मयुर बोला।

"देखो! हमने सभी पेटी खोलकर देख ली है। यहां तो सुकन्या के साथ अन्य बहुत सी लाशों के अवशेष पड़े है। अब सुकन्या की पहचान कैसे होगी।" सुखराम बोले।

"बस बाबा। यह पेटी और खुल जाये। उसके बाद हम सभी लाशों को आग में जला देंगे।" मयुर बोला।

"लेकीन इतनी सारी लाशों को जगायेंगे कैसे?" सुखराम ने आश्चर्य से पुछा।

"क्यों? वो मशीन है न!" मयुन बोला।

"लेकिन सभी लाशों को एक-एक कर वहां ले जाना होगा। इससे पहले अगर वे आत्माएं जाग गयी तो वे हमें भी उसी मशीन में जिन्दा जला देंगी।" सुखराम बोले।

"आप बहुत डरते है बाबा। लाइये हथौड़ी। कुछ नहीं होगा।" कहते हुये मयुर ने सुखराम से हथौड़ी ले ली। मयुर लगातार हथौड़ी से पेटी पर वार कर रहा था। वह पेटी के चारों तरफ हथौड़ी चलाने लगा। ताकी जंग लगी पेटी का ढक्कन कुछ ठिला हो जाये। और फिर वह ढक्कन सरलता से खुल जाये। उसने जो सोचा वही हुआ। ढक्कन खुल चूका था। मयुर प्रसन्न था। ढक्कन के नीचे हड्डियों का ढांचा था। पेटी के अंदर कुछ कीड़े-मकोड़े और चीटियां रेंग रही थी।

"मयुर अब विलंब मत करो। मैं इन आत्माओं को अधिक देर तक रोक नहीं सकता।" सुखराम के पास से बीड़ी, शराब और मिठाईयाँ खत्म हो चूकी थी। इनका सेवन वहां उपस्थित आत्माएं कर चूकी थी। मयुर बारी-बारी से लोहे की पेटीयों मे रखे शवों को तलघर से निकाल कर भस्म मशीन के अंदर डाल रहा था। हवाएं अब तुफान में परिवर्तित हो चूकी थी। सुखराम और मयुर बमुश्किल चल पा रहे थे। बुरी आत्माएं नहीं चाहती थी कि ये लोग उनके शवों को जलाये। सुकन्या के शव को मयुर और सुखराम दोनों ने हाथ में उठा लिया। अब केवल उसे ही भस्म मशीन के अंदर डालना था। मगर यह क्या? सुखराम के पैर हवा में तैरते दो हाथों ने पकड़ लिये ताकी वह आगे न जा सके। सुखराम का अंत समय नजदीक था। मयुर ने सुखराम को शव छोड़ने का इशारा किया। सुखराम ने शव छोड़ दिया। मयुर शव को लेकर भागा। मगर इससे पहले की वह ऊपर प्रथम तल तक पहूंच पाता। उसके इर्द-गिर्द वे सभी आत्माएं आ गयी जो वहां वास करती थी। सुकन्या की आत्मा उन सभी आत्माओं से अधिक शक्तिशाली थी। वह आगे आई। उसने मयुर को एक जोरदार तमाचा जड़ दिया। मयुर नीचे आ गिरा। एक के बाद एक सभी आत्माएं मयुर पर प्रहार कर रही थी। मयुर लहुलुहान हो चूका था। उसकी हिम्मत धीरे-धीरे जवाब देने लगी थी। यकायक वहां अंजु आ पहूंजी।

"मयुर, मयुर! ये क्या हो गया?" वह नीचे गिरे पड़े मयुर के पास जाकर विलाप करने लगी।

"तुम यहां क्यों आई?" मयुर बोला।

"मेरी पुर्वजन्म की आत्मा मुझे नहीं मारेगी! यह सोचकर मैं तुम्हारी मदद करने आ गयी।" अंजु बोली। अंजु का अनुमान सही था। सुकन्या की आत्मा अंजु को कुछ नहीं कर रही थी। अपितु अन्य बुरी आत्माओं से भी वह अंजु की रक्षा कर रही थी। अंजु और मयुर ने सुकन्या के शव को भस्म मशीन तक पहूंचा दिया। विद्युत स्वीच ऑन करते ही सभी शव अवशेष धूं-धूं कर जल उठे। वातावरण सामान्य होने लगा था। सुबह होने वाली थी। सुकन्या को मुक्ति मिल चुकी थी। उसकी आत्मा आकाश मार्ग से होते हुये यथास्थान चली गयी। मयुर और अंजु हाथ थामे घर की ओर निकल पड़े।


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समाप्त



प्रमाणीकरण-- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।



©®सर्वाधिकार सुरक्षित

लेखक--जितेन्द्र शिवहरे

इंदौर मध्यप्रदेश 

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