व्यवहार-कहानी
एक कहानी रोज़
व्यवहार--कहानी*
*गु* प्ता परिवार में सास-बहू के छोटे-छोटे झगड़े विकराल रूप ले चुके थे। अमन और वैदही के विवाह को मात्र एक वर्ष हुआ था। झगड़ा इतना बड़ गया कि दोनों ने कुटुंब न्यायालय में तलाक की अर्जी दाखिल कर दी। श्याम नगर के बच्चें-बच्चें के मुख पर गुप्ता परिवार के किस्सें थे। घर के मुखिया हनुमान प्रसाद मौन थे। वे न अपनी पत्नी हेमलता से कुछ कहते और न ही बहु वैदेही को कुछ समझाते। चक्की के दो पाटों में अमन पिस रहा था। सास और बहु दोनों को यह लगता कि अमन उनके साथ नहीं है। न हेमलता समझने को तैयार थी और न ही वैदेही शांति प्रस्ताव को स्वीकार कर रही थी। सभी रिश्तेदारों ने जब हथियार डाल दिए तब हनुमान प्रसाद ने अपने स्तर पर प्रयास आरंभ किये। बैठक हाॅल पर हनुमान प्रसाद और हेमलता बैठे थे। गृहक्लेश का सुनकर गुप्ता परिवार की बेटी भारती अपने माता-पिता का ध्येर्य बढ़ाने आई हुई थी। भारती का दस वर्षीय बेटा सुमित वहीं नीचे फर्श पर बैठा गेन्द से खेल रहा था। वह अपने सम्मुख की दीवार पर गेंद को फेंकता और दिवार से टकराने के बाद वापिस आई गेंद को पकड़ने यहां-वहां हाथ फैलाता। गेंद को पकड़ने में कभी वह सफल होता तो कभी असफल। हनुमान प्रसाद अपने नाती के इस खेल को ध्यान से देख रहे थे।
"भारती! ये गेंद दीवार से टकरा कर पुनः फेंकी गई दिशा में ही क्यों वापिस आती है?" हनुमान प्रसाद ने पुछा। भारती अपने से कम पढ़े-लिखे पिता को समझाने लगी।
"पापा! हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। यह सुनिश्चित है।" भारती बोली।
"ठीक मानव व्यवहार के समान। हम जैसा व्यवहार करते है ,अच्छा या बुरा वैसा ही लौट कर आता है।" हनुमान प्रसाद ने प्रकृति की निश्चितता बताई।
हेमलता को आरंभ से ही लगता था कि उसके पति हनुमान प्रसाद अपनी बहु का ही पक्ष लेते है। क्योंकि उन्होंने वैदेही को कभी कुछ नहीं कहा। वैदेही को अपने ससुर से कोई परेशानी नहीं थी। पति अमन भी उससे बहुत प्रेम करते थे। वह हेमलता के व्यवहार से अधिक परेशान थी। ठीक वैसे ही जैसे हेमलता को परेशानी थी वैदेही के व्यवहार से। वैदेही को ससुराल में हनुमान प्रसाद का स्नेह मिलता रहा। इससे उसे कुछ दिन और ससुराल में व्यतीत करने में आंशिक राहत अवश्य मिल जाया करती थी। वैदेही उन्हें अपना पिता ही समझती। संपूर्ण घर में एक वे ही थे जो उसकी मनो भावना को समझते थे। स्नेह से भरा हाथ जब वे वैदेही के सिर पर रखते तब वैदेही को अपने पिता की कमी अनुभव नहीं होती। हनुमान प्रसाद ने वैदेही को उसकी ईच्छानुसार कपड़े पहनने की स्वतंत्रता दे रखी थी। वह किसी भी समय घर से बाहर आ-जा सकती थी। शापिंग के लिए उसके हाथ में पर्याप्त राशी की उपलब्धता सुनिश्चित करना अमन का जिम्मेदारी थी। अमन अपने पिता का कहना कभी अस्वीकार नहीं करता। चाहते हुये भी वह वैदेही की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप नहीं कर सका। काम के बाद वैदेही दोपहर की नींद ले सकती थी। कोई भी सदस्य उसकी निन्द्रा में विघ्न नहीं डाल सकता था। क्योंकि वैदेही के दोपहर विश्राम में मुखिया हनुमान प्रसाद की सहमती थी। हेमलता 'कांटों तो खुन नहीं' वाली परिस्थिति से प्रतिदिन गुजरती। अंततः वह पल आ ही गया जब हेमलता का धैर्य जवाब दे गया।
"आखिर आपने बहु को इतना सिर क्यों चढ़ा रखा है?" हेमलता तेश में आ गई थी।
"इससे पुर्व की मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूं, तुम मुझे एक बात बताओ?" हनुमान प्रसाद बोले।
"पुछो।" हेमलता बोली।
"भारती के ससुराल पक्ष से क्या तुम संतुष्ट हो?" हनुमान प्रसाद ने हेमलता की दुखती नस पर हाथ रख दिया। भारती के विवाह को बारह वर्ष हो चुके थे। पुर्व से समृर्ध्द उसके ससुराल को दान-दहेज देने में हेमलता ने कोई कंजूसी नहीं की थी। भारती के पति विराट और ससुर भगवान सिंह कट्टर व्यवसायी थे। भारती और उसके बेटे सुमित के लिए दोनों के पास समय नहीं रहता। शिकायत करने पर भारती की सास ने उसे परिवार के परंपरागत व्यवसाय में दखल न देने की नसीहत दे दी। उसने भी आरंभ से यही सब देखा था। सो भारती को भी इसी परिवेश में जीवन व्यतीत करना होगा। भारती स्वयं को एक वस्तु मान चूकी थी। जिसे मात्र उपयोगार्थ घर में रखा जाता है। उसकी भावनाएं और इच्छाओं की किसी को परवाह नहीं थी। थक हार कर भारती ने इसे अपनी नियती स्वीकार ली। हेमलता ने दामाद विराट को भारती पर ध्यान देने की कई बार प्रार्थना की किन्तु सब बे-असर सिद्ध हुई। हनुमान प्रसाद के समझाने पर वहां अक्सर क्लेश उत्पन्न हो जाता। फलतः उन्होंने अपनी बेटी के यहां आना-जाना कम कर दिया।
"जब तक तुम अपनी बहू को बेटी नहीं मानोगी तब तक अन्य कोई तुम्हारी बेटी को अपनी बेटी क्यों कर स्वीकार करेगा?" हनुमान प्रसाद अपनी पत्नी को समझा रहे थे।
हेमलता विचारणीय अवस्था में थी।
हनुमान प्रसाद ने यह भी विचार व्यक्त किये कि बहु को बेटी समझ कर डांटा जाए तो वह सर्वत्र सहने को सहर्ष सहमत होगी। जबरदस्ती करना कार्य को बिगाड़ देगा। समय बदल रहा है। आजकल विवाहित युगल त्वरित क्रोधित हो जाते है। सास-ससुर को उन्हें अपनी सगी संतान समान व्यवहार देने की परम आवश्यकता है। अपनत्व की भावना विकसित होना समय की आवश्यकता है।
हेमलता के बाद हनुमान प्रसाद ने अपनी बहु वैदेही को समझाया। उनके विचार थे- 'अच्छा या बुरा मानव नहीं होता अपितु व्यक्ति के व्यवहार से उसके चरित्र का चित्रण किया जाता है।' हनुमान प्रसाद अपनी बहु के लिए अच्छे थे, जबकी उनकी पत्नी के लिए बुरे है। यहां वे अच्छे-बुरे नहीं है। उनके दोनों के प्रति व्यवहार से एक ही व्यक्ति की दो अलग-अलग छायाप्रतियां बनी है। प्रत्येक व्यक्ति यह अपेक्षा करता है कि हर कोई उसके अनुसार चले। और जब यह नहीं होता तब क्लेश उत्पन्न होना स्वाभाविक है। हम स्वयं अपने मन के आधीन होकर कार्य करते है। जब हम अपने मन को ही अपने अनुसार नहीं चला सकते तब यह आशा क्यों रखते है कि अन्य कोई व्यक्ति हमारे कहे अनुसार चले? इन सबका सीधा सरल उपाय यह है कि पहले आप किसी के हो जाओ। देखना आज नहीं तो कल वो भी आपका हो जायेगा। आपका आत्मसमर्पण पाकर भी यदि वह आपका नहीं हुआ तब यह स्वीकार करने में विलंब न करना कि वह आपका कभी था ही नहीं।
मनुष्य झुठे अभिमान के बल पर अपना सबकुछ खोने से भी बाज नही आता। यहा तक की एक समान परिस्थिति का परिणाम भुगत रहे अन्य लोगों के अनुभव से भी वह कुछ नहीं सिखता। परिवारिक या अन्य किसी भी समस्या का हल संसार के किसी न्यायालय के पास नहीं है। यह तो मनुष्य के लिए और भी अधिक कष्टदायक है। अपेक्षाओं को समाप्त कर अन्य की अपेक्षाओं पर खरा उतरने का प्रयास करना अधिक लाभप्रद सिद्ध होगा। वैदेही को अपने ससुर के स्नेह का उचित प्रतिउत्तर देना था। सो मन को मार झुठ-मुठ ही उनके बताये मार्ग पर चलने लगी। उसने अपने ससुराल को अपना मायका स्वीकार करने का छलावा क्या किया, धीरे-धीरे उसके व्यवहार में आश्चर्यजनक परिवर्तन आया। 'बुजुर्ग सास-ससुर कब तक रहेंगे? उनके बाद तो स्वतंत्रता स्वतः ही मिल जायेगी। कुछ समय ससुराल की बहु बनकर निकालना कोई बड़ा कार्य नहीं है।' फिर क्या था? वैदेही के क्रियाकलाप लगभग बदल गये। अब वह पारम्परिक साड़ी में नज़र आने लगी। सास-ससुर के पैर छूकर दिन की शुरुआत करने वाली वैदेही घर में अपना सम्मानजनक स्थान प्राप्त करने में सफल रही। घर में सभी को उसकी इतनी आदत हो गई कि एक दिन भी परिवारिक सदस्यों का कार्य उसके बिना चल नहीं सकता था। पास-पड़ोसी जो कल तक वैदेही की बुराई कर हेमलता पर व्यंग कसा करते थे , वे अब वैदेही की प्रशंसा करते थकते नहीं थे। अमन तो वैदेही का दीवाना हो गया था। अपने विवाह पुर्व प्रेमी अमन को पुनः प्राप्त कर वैदेही प्रसन्न थी। उसे अब किसी से कोई शिकायत नहीं थी। वैदेही के पैर भारी है यह सुनकर हेमलता का झुठा क्रोध भी जाता रहा। आज वह बाजार गई है, अपनी बहु वैदेही के जापे का अग्रिम किराना सामान खरिदने के लिए।
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समाप्त
प्रमाणीकरण-- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।
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लेखक -
जितेंद्र शिवहरे (शिक्षक)
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