फ्री की अभिलाषा-कहानी

        एक कहानी रोज़ 

    *फ्री की अभिलाषा--कहानी*

          *लाॅकडाउन* के बीच नगर में कुछ लोग भोजन के पैकेट बांट रहे थे। उन लोगों के आसपास मोहल्लें के लोग भीड़ इकठ्ठा कर पैकेट लेने की हौड़ मचा रहे थे। भोजन वितरण में लगा एक व्यक्ति अपनी वैन में बैठे-बैठे चिल्ला रहा था- 'जो लोग सक्षम है वे भोजन के पैकेट न ले। और हो सके तो हमें सुखा राशन डोनेट करे। ताकी हम वास्तविक आवश्यकता वाले लोगों तक भोजन पहूंचा सके।' उसके अलांउस का भीड़ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। दस वर्षीय चिन्टु हर रोज़ अपने घर की छत से यह नज़ारा देखा करता। उसका मन भी करता की फ्री में बंट रहे भोजन के पैकेट लेकर आये। मगर दादाजी की अनुमति नहीं थी। उन्होंने प्रत्येक सदस्यों को घर से बाहर नहीं जाने की सख़्त हिदायत दे रखी थी।

"मगर दादाजी! वो हमारे पड़ोस का राजु तो हर रोज़ फ्री का खाना लेकर आता है।" चिन्टु अपने दादाजी से बोला। वह घर के बाहर भोजन का पैकेट लाने के पीछे अपनी दलील देने लगा।

"जो राजु करता है, क्या जरूरी है वह तुम भी करो?" दादाजी ने चिंटु से कहा।

चिन्टु की दादी भी दादा-पोते की बातों में सम्मिलित हो गयी।

"सुनिये जी। अगर एक-दो भोजन के पैकट हम भी ले आये तो इसमें कौन-सा बड़ा पाप जायेगा?" चिन्टु की दादी ने कहा।

"हां बाबूजी! पुरा मोहल्ले के लोग फ्री का खाना रहे है।एक हम ही है जो साहुकार बनकर बैठे है।" चिन्टु की मां भी बहस में कुद पड़ी।

"वो पड़ोस की काकीजी! उनके यहां कौनसी-सी कमी है। मगर लड़-झगड़ कर हर रोज़ पुरे परिवार का खाना ले आती है।" दादी बोली।

"और हां बाबूजी! वो आपके दोस्त! अनिरूद्ध चौधरी जी! उन्होंने तो म्युनिसिपल वालों को फोन कर अपने घर सुखा राशन मंगाया था। कल ही उनके यहां महिने भर का राशन आया है। वो भी बिल्कुल फ्री।" चिन्टु के पिता भी फ्री का राशन के लिए बैचेन हुये जा रहे थे। मगर दादाजी की मनाही के आगे सभी चुप थे। चिन्टु की फरमाइश को आधार बनाकर आज सभी ने दादाजी के सम्मुख विद्रोह कर दिया था।

"जो लोग समर्थ होते हुये भी फ्री का भोजन और राशन हथियाने का काम करते है, तुम लोग ही बताओ! क्या यह सही है?" दादाजी ने पुछा।

"ये सही नहीं है दादाजी!" चिन्टु बोला।

"हां! इसीलिए कह रहा हूं कि फ्री में कुछ पाने की सोच नहीं होनी चाहिए।"

"भोजन के पैकेट ले आने के स्थान पर यदि तुम उन लोगों को अपने यहां से कुछ सुखा राशन आदि का सहयोग करने को कहते तो सोचो कितनी अच्छी बात होती। हो सकता था कि तुम्हारे इस प्रयास से कुछ लोग प्रभावित होते और वे भी डोनेट करने आगे आते?"

"राजू! अगर तुम खाने का पैकेट ले भी आते तो उसका करते क्या? क्योँकी तुम तो खाना खा चूके हो। हम सब भी खाना खा चूके है। फिर उनका यहां क्या उपयोग होता?" दादाजी ने पुछा।

"जितना खा सकता, खा लेता और बाकी फेंक देता।" चिन्टु ने कहा।

"यही तो! जब हम वो खाना खा ही नहीं सकते तब उसे यहां क्यों लाये? फेंकने के लिए? यह यो भोजन का अपमान हुआ न!"

"सरकार गरीब और बेसहारा लोगों के लिए खाना वितरण करने का परमार्थ कर रही है। हम यदि इस पुनित कार्य में सहयोग नहीं कर सकते तो इसका अनुचित लाभ लेकर इस कार्य में बाधा तो उत्पन्न न करे।"

दादाजी बोले।

सभी ध्यान से सुन रहे थे।

"प्रायः लोग घर में अलग-अलग फोन नम्बरों से फोन कर अधिक से अधिक राशन प्राप्ती के प्रयास कर रहे है। उनके ऐसा करने पर सरकार असमंजस में है! किसे राशन पहूंचाये किसे नहीं? यही कारण है की वास्तविक हक़दारों तक भोजन नहीं पहूंच पाता। क्योंकि हम जैसे लोग उन गरीबों का भोजन पहले ही हथियां चूके होते है।" दादादी बोले।

"समर्थ लोग गरीब बनकर उनका हक़ का अन्न खाने से परहेज नहीं करते मगर उनके हितार्थ कुछ करने आगे भी नहीं आते। संकट के इस समय हम सभी को न केवल फ्री के लाभ पाने की सोच को बदलना होगा बल्कि देश हित में अपना योगदान भी करना होगा। तब ही इस महामारी से हम मिलकर उबर पायेंगे।" दादादी ने अपनी बात पुरी कर दी।

चिन्टु की दादी शर्मिंदा थी। चिन्टु के पिता और मां दोनों इस बात से प्रसन्न से थे कि अब तक उन्होंने कोई सरकारी सहायता नहीं ली थी। क्योंकि वे समर्थ थे। उन्होंने देश हित में अपना योगदान देने का मन बना लिया था।


समाप्त

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प्रमाणीकरण-- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।



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लेखक--

जितेन्द्र शिवहरे 

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