दूसरी शादी-कहानी

एक कहानी रोज़

 *दूसरी शादी--कहानी*

    कारखाने में खुशबु को देखकर साथी कर्मचारी आश्चर्यचकित थे। अभी कुछ दिनों पहले ही तो उसके पति विनोद का असामयिक निधन हुआ था। सवा महिनें भी नहीं हुये और खुशबु काम पर लौट आई। लाॅकडाउन के कारण पुरे चालिस दिनों के बाद सिलाई कारखाना शुरू हो सका था।

कितनी सुन्दर जोड़ी थी खुशबु और विनोद की। दोनों ने प्रेम विवाह किया था। शादी को दस साल हो चूके थे। कोरोना की चपेट में आये विनोद ने आठ साल की अराध्या और पत्नी खुशबु को भरी जवानी में ही अलविदा कह दिया। पति के इलाज में खुशबु ने अपनी सारी जमा पुंजी खत्म कर दी। ससुराल वालों ने खुशबु को कभी स्वीकार नहीं किया। मायके वाले स्वयं सक्षम न थे। इस कारण खुशबु ने अपना सिलाई का काम पुनः शुरू करने का विचार बना लिया। खुशबु सिलाई कारखाने के मैनेजर भगत से जाकर मिली। आवश्यक औपचारिकता करने के बाद वह अपनी मशीन के पास आकर बैठ गयी। आस-पास बैठे अन्य साथी कर्मचारी उसे सहानुभूति की नज़रों से देख रहे थे। मगर खुशबु की नज़र अपने बायें तरफ की खाली कुर्सी पर जमी थी। यहां मनीष बैठा करता था। शायद आज वह काम पर नहीं आया था। मनीष और खुशबु की आपस में अच्छी दोस्ती थी। पिछले साल मनीष की पत्नी रानी सड़क हादसें में जान गवां चूकी थी। मगर वह ध्यैर्य और साहस की प्रतिमुर्ति था। उसने न केवल खुद को संभाला अपितु अपने दस वर्षीय बेटे अरूण को मां की कमी कभी महसूस नहीं होने दी। पैतृक गांव से मनीष को दूसरी शादी के लिए प्रस्ताव आ रहे थे। मगर मनीष ने हां नहीं की। वह पुरी तन्ययता से अरूण के लालन-पालन में लगा था। खुशबु को मनीष ने बहुत हिम्मत दी। कितनी ही बार वह हाॅस्पीटल में विनोद से मिलने गया। अपने हंसने-हसाने की चिरपरीचित शैली से वह हमेशा सभी का मनोरंजन किया करता। डाॅक्टर्स ने जब विनोद को मृत घोषित किया तब खुशबु की हिम्मत धराशायी हो गयी। अब वह अकेली यह सब कैसे हैन्डिल करेगी? खुशबु बैचेन हो उठी। मनीष ने यहां पुनः उसकी हिम्मत बंधाई। वह कदम-कदम पर खुशबु के साथ नज़र आया। मनीष के प्रोत्साहन से खुशबु ने घर पर भी सिलाई का काम शुरू कर दिया। मनीष उसे रेडीमेड कपड़ों के थान उपलब्ध कराता। जिसे खुशबु देर रात तक मशीन पर सिला करती। मनीष ही उन कपड़ों को बाजार में रेडीमेड व्यापारी के यहां दे आता। 

आज मनीष को अपने बगल में न पाकर खुशबु को अच्छा नहीं लगा। ये उसे क्या हो गया था! कहीं मनीष की उसे आदत तो नहीं हो गयी? पिछले छः महिनों से खुशबु और मनीष साथ-साथ थे। विनोद की तीमारदारी जितनी खुशबु ने की, उतनी ही मदद मनीष ने भी की। विनोद के अंतिम संस्कार से लेकर उसकी अस्थि  विसर्जन और फिर तेरहवीं का नुक्ता-घाटा। सभी क्रियाकलापों में मनीष खुशबु के साथ था। खुशबु विचारमग्न थी।

"रीना! आज मनीष क्यों नहीं आया?" भोजनावकाश के समय खुशबु ने सहकर्मी रीना से पुछ ही लिया।

"पता नहीं! संजय बता रहा था कि आज मनीष के पिताजी गांव से आये है!" रीना बोल रही थी।

'मनीष के पिताजी यूं अचानक क्यों आये होंगे? वो भी तब जब हर तरफ लाॅकडाउन है' खुशबु सोच रही थी।

'मनीष ने कहा था कि उसके माता-पिता उसे दूसरी शादी करने का दबाव बना रहे है। कहीं ऐसा तो नहीं! इस बार भी वे यही प्रस्ताव लेकर आये हो! और हो सकता इस बार मनीष शादी के लिए हां कह दे।'

रीना उसके पास ही बैठी थी। मगर उसकी यहां-वहां की बातों मे खुशबु का ध्यान कम ही था। खुशबु हल्की मुस्कान से उसे हां हूं किया करती। मगर अंदर ही अंदर वह अब भी मनीष के विषय में ही सोच रही थी। एक-एक कर सभी सहारे उससे दुर चले गये। अब अगर मनीष भी उससे दूर चला गया तब उसका क्या होगा? अगर मनीष से इतना ही लगाव था तो उसने मनीष के विवाह प्रस्ताव को स्वीकार क्यों नहीं किया? उसके अंतर्मन में द्वंद चल रहा था। मनीष उसे और अराध्या को स्वीकारने का दंभ भर चूका था। मगर खुशबु ने मनीष की एक न सुनी। वो मनीष का प्रस्ताव कैसे स्वीकार कर लेती? उसके पति का देहांत हुये अभी वक्त़ ही कितना हुआ था! दुनियां वाले क्या कहेंगे? क्या समाज उसे और मनीष को स्वीकार करेगा? अराध्या और अरूण उन दोनों को मम्मी-पापा का दर्जा दे सकेंगे? अपने निजि स्वार्थ के वशीभूत होकर कहीं बच्चों के साथ ये अन्याय तो नहीं होगा? अराध्या छोटी है मगर अरूण! अरूण सब समझने लगा है। वह खुशबु से जब भी मिला, भाग खड़ा हुआ। खुशबु को अपने सम्मुख देखना उसे न जाने क्यों अच्छा नहीं लगता। तब क्या खुशबु की उपस्थिति अपने घर में वह सह सकेगा? कहीं पिता-पुत्र की कलह का कारण खुशबु न बन जाये? इन्हीं विचारों में डुबी खुशबु पुरे दिन कारखाने में अधिक कुछ न बोली। शाम छः बजे कारखाने की छुट्टी हुयी। उसने सोचा क्यों न मनीष के घर चली जाऊं। उसके पिताजी से भी मिलना हो जायेगा। मगर उसकी हिम्मत नहीं हुई। फिर सोचा! फोन पर ही बात कर लेती हूं। उसने मनीष को फोन मिलाया। मनीष के फोन की घण्टी बज रही थी। मगर मनीष फोन नहीं उठा रहा था। अब उसे चिंता होने लगी। मनीष ऐसा कभी नहीं करता था। वह खुशबु का फोन हमेशा उठाता था। क्या हुआ होगा? मनीष ठीक तो है न? कुछ दिनों से वह दोनों मिले भी नहीं थे। उसे मनीष से मिलने की प्रबल इच्छा हो रही थी।

बुझे मन से खुशबु घर पहूंची ही थी कि तब ही अराध्या ने उसे एक लिफाफा लाकर दिया। उसने बताया की यह लिफाफा अभी-अभी मनीष दे गया है।

खुशबु ने बड़ी बेसब्री से वह लिफाफा खोला। उसमें एक पत्र था। खशबु ने पत्र पढ़ना आरंभ किया--


प्रिय खुशबु!


मुझे दुनिया छोड़कर चले जाने का उतना ग़म नहीं है जितना तुम्हें अकेले छोड़कर जाने से दुःखी हूं। जीवन के इस सफ़र में हम दोनों ने साथ-साथ चलने का वादा किया था। मगर अपने वचन को तोड़कर मैंने तुम्हारा साथ बीच रास्ते में ही छोड़ दिया। मैंने तुम्हें धोखा दिया है। तुम मुझे कभी माफ मत करना। मगर मैं तुम्हें जानता हूं। आज नहीं तो कल! तुम मुझे क्षमा कर ही दोगी।

मेरी एक प्रार्थना है। और चाहता हूं कि तुम इसे पुरी करो।

      मनीष बहुत अच्छा व्यक्ति है। जो उसने हमारे लिए किया, उतना तो अपने भी नहीं करते। मैंने उसका दिल टटोला है। तुम दोनों एक-साथ बहुत अच्छे लगोगे। मैंने ही उसे यह प्रस्ताव दिया था। मगर वह नहीं माना। कहता है ये मेरी दोस्ती पर कलंक सिद्ध होगा। मैंने उसे समझाया। पर वह कहता कि खुशबु अगर ऐसा चाहे तब ही वह सोचेगा। 

मैं समझ सकता हूं, तुम क्या सोच रही होगी? मैं तुम्हारा पति होकर एक अन्य पुरूष के साथ तुम्हें जीवन बिताने की सलाह दे रहा हूं! तुम नहीं जानती कि मैंने यह निर्णय अपने दिल पर पत्थर रखकर लिया है। खुशबु! मैंने तुमसे प्रेम किया है और चाहता हूं कि मेरे बाद भी तुम हंसती-खेलती रहो। अकेली औरत का जीवन कैसा व्यतीत होता है इसकी कल्पना मैं कर सकता हूं। मैं नहीं चाहता की मेरे बाद तुम्हें बहुत सी नज़रे बे-वज़ह घूरे। लोग तुम्हें देखकर छिंटाकशी करे। अपने लाभार्थ तुमसे नजदीकी बनाने वाली मैं हर संभावना को खत्म कर देना चाहता हूं। ताकी मेरे न रहने पर भी तुम उसी स्वाभिमान के साथ जीवन जीओ जैसे अब तक जीती आई हो।

मुझे पता है कि मेरे इस निर्णय को समाज में अलग-अलग नज़रीयें से देखा जायेगा। औरत को केवल आवश्यक उपयोग और उपभोग की वस्तु मानकर चलने वाली पुरातन परंपरा को मेरे उक्त निर्णय से जोड़कर देखा जायेगा। लोग तो यह भी कहेंगे कि मैंने अपनी पत्नी को अन्य पुरूष के हवाले कर अपनी नपुंसकता छिपाने की कोशिश की है। मेरा यह निर्णय औरत के हितों और अधिकारों का मज़ाक बनायेगा, मुझे ये भंलि-भांति ज्ञात है। उन सभी संभावनाओं को बल मिलेगा जो स्त्री को एक बिना वेतन की महिला कामगार या घर की नौकरानी समझतें है। जो एक घर का काम खत़्म करने पर दुसरे के घर में काम करने जाती है। मैं ऐसी तमाम तरह की अटकलों की परवाह किये बगैर तुम्हें मनीष की अर्द्धांगिनी बनने की प्रार्थना करता हूं। क्योंकि मेरी नज़र में स्त्री वह नहीं जिसे अन्य पारम्परिक सोच या रीति-रीवाजों में दर्शाया गया है। मेरा मत है कि स्त्री परिवार का सुर्य है जिसके चारों ओर परिवार के सभी सदस्य परिक्रमा लगाते है क्योंकि अपने अंदर सजीवता बनाये रखने के लिए उन्हें सुर्य रूपी गृहलक्ष्मी  की परम आवश्यकता है। स्त्री के बिना आठों पहर की कल्पना नहीं की जा सकती। वह प्रत्येक क्षण घर और बाहर की व्यवस्थाओं की कुशल व्यवस्थापिका है। उसके मार्गदर्शन के बिना पृथ्वी से पाताल तक कोई भी कार्य सफल नहीं माना जा सकता। स्त्री का न्याय संसार में अनुठा और कल्याणकारी है। वह अपने बच्चों को एक समान आंखों से देखती है। वह अपने पति का भी बच्चों की ही तरह ध्यान रखती है। पति की सेवा और उसके सुख-सुविधाओं का जितना ध्यान उसकी पत्नी रख सकती है उतना अन्य कोई नहीं। ससुराल हो या मायका, उसकी पुछ-परख और उपयोगिता दोनों स्थान पर है। क्योंकि वह स्वयं इन दोनों जगह अपनी प्रभावी उपस्थिति से सबका मन जीत लेती है। घर के प्रत्येक कोनें में जब वह पैरों की पायल खनकाते हुये गुजरती है, उस समय कानों में मधुर गीत की तरह पायल की प्रिय धुन असीम सुख का अनुभव कराती है। उसकी मुस्कराहट पर लाखों दिल वाले अपना दिल हार जाते है। उसकी आंखों की गहराइयों के आगे सात समुद्र भी बोने नज़र आते है। यह ऐसी गहरायी है जिसमें जीवन में एक बार हर पुरूष डुबना चाहता है। जब वह बाजार से गुजरती है तब चीनी के समान उसके इर्द-गिर्द मनचले मक्खी जैसे भिनभिनाने लगते है। उसे एक नज़र भर देखने के लिए दीवाने घण्टों नुक्कड़ पर खड़े इंतज़ार करते है।

औरत सुन्दरता की वह सुखद परिकल्पना है जिसे हर पुरूष अपने हृदय मंदिर में बिठाकर प्रतिदिन नियम से पुजता है। पुरूष अपने जीवन का क्षण मात्र भी स्त्री के अस्तित्व के बिना कल्पित नहीं कर सकता। स्त्री उसकी आवश्यकता नहीं वरन स्त्री पुरुष की श्वांस है, हृदय की धड़कन है। जिसके अभाव में मनुष्य अधिक समय तक सजीव नहीं बना रह सकता।


ये मेरे विचार नहीं, ये मनीष के विचार है, खुशबु!

आश्चर्य हुआ न! मुझे भी हुआ था।


जो व्यक्ति औरत के विषय में इतनी ऊंची सोच रखता हो, उसे तुम्हारे शेष जीवन का साथी चुनकर मैंने कोई गल़ती नहीं की है। और यह कृत्य उसके विचारों में ही नहीं अपितु उसके व्यवहार में भी झलकता है जिसे तुमने, मैंने, हम सभी ने देखा है। अतः मेरी मृत्यु के बाद तुम उसे स्वीकार करोगी ऐसी मैं आशा करता हूं।

तुम मनीष को कैसे अपना पति स्वीकार कर सकोगी? अब तुम्हारे समक्ष यह उलझन अवश्य होगी। मैं तुम्हारी यह उलझन भी हल कर देता हूं। मीरा बाई का नाम तुमने सुना होगा। मीरा बाई कुंवर भोजराज से विवाह नहीं करना चाहती थी क्योंकि उन्होंने तो भगवान कृष्ण को अपना पति स्वीकार कर लिया था। उन्हें हर तरह से समझाया गया मगर मीरा बाई नहीं मानी। भगवान कृष्ण की प्रेरणा से मीरा बाई को अनुभुति हुई की वे कुंवर राणा से यह समझकर विवाह करे जैसे कुंवर भोजराज उनके प्रिय कृष्ण ही है। मीरा बाई ने ऐसा ही किया। उन्होंने भोजराज को कृष्ण समझकर ही अपना पति स्वीकार किया।

तुम भी ऐसा ही करो। मनीष की छाया में मेरी प्रतिमुर्ती देखकर उससे विवाह कर लो। देखना सबकुछ कितना सरल हो जायेगा। धीरे-धीरे सब सामान्य हो जायेगा।

मैं सदैव तुम दोनों के साथ रहूंगा।

अपने लिए न सही! मगर अराध्या के लिए तुम मेरी बात मान लोगी, मुझे पुर्ण भरोसा है। उसे भी अरूण जैसा भाई मिल जायेगा। जानता हूं कि अरूण तुमसे दुर-दुर भागता है। मगर कोई बात नहीं। अभी वह बच्चा है। मां की ममता उसे भी एक दिन मना लेगी ऐसा मुझे पुरा भरोसा है।


मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ है!



तुम्हारा

विनोद


खुशबु की आंखें भर आयी थी। अराध्या उसके पास आई। खुशबु ने उसे अपनी सीने से लगा लिया। उसने अपने अंतर्मन में मनीष को बिठाने का संकल्प ले लिया। विनोद के प्रेम का कोई मुल्य नहीं था। उनकी कमी तो सदैव रहेगी। मगर विनोद की अंतिम इच्छा और मनीष के समर्पण का सही मूल्यांकन तब ही होगा जब वह मनीष से विवाह करेगी। उसने स्वंय को मनीष की पत्नी बनने के लिए राज़ी कर लिया। वह कल ही मनीष से मिलकर उसे अपनी दूसरी शादी की सहमती दे देगी।


समाप्त


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प्रमाणीकरण-- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।



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लेखक--

जितेन्द्र शिवहरे 

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