रिश्तें कैसे-कैसे-कहानी
*रिश्तें कैसे-कैसे-कहानी*
*एक कहानी रोज़-259* (08/01/2021)
*विभा* ने किया ही क्या था, जिसके कारण समाज उसे स्वीकार नहीं कर पा रहा था? उसका दोष मात्र इतना था कि विवाहिता होते हुये उसने अश्विन से प्रेम किया। क्या हुआ यदि वह दो बच्चों की मां थी? प्रेम तो कभी भी, किसी से भी, कहीँ भी हो सकता है। विभा यही विचार कर स्वंय के निर्णय को सही स्वीकार लेती। पति रामभरोसे सरल, शांत संकोची स्वभाव के थे। न विभा ने और न ही बच्चों ने अपने पिता का क्रोध कभी देखा था। अश्विन को बच्चों ने भी अपना लिया था। क्योंकि जितना प्रेम बच्चों को रामभरोसे से मिला उतना अश्विन भी दे रहा रहा था। रामभरोसे सदैव कामकाज में व्यस्त रहा। घर बार के विषय वह अनभिज्ञ था। जब विभा ने अपनी गृहस्थी में अश्विन को प्रवेश दिया तब भी रामभरोसे ने आशानुरूप इसका विरोध नहीं किया। अश्विन ने रामभरोसे को उसके ही घर से बेदखल कर दिया और स्वयं दो पले-पलाये बच्चों का पिता बन बैठा। पास-पड़ोस में इस अनोखे परिवार को लेकर बहुत कानाफूंसी होती। रहवासियों ने विभा से दुरी बना ली। वे नहीं चाहते थे की विभा का चाल-चलन उनके परिवार के भावि व्यवहार को प्रभावित करे। अश्विन अब गृह स्वामी था। विभा सामाजिक भेदभावी व्यवहार को सहजता से सह रही थी। रामभरोसे को छोड़ उसने अपना सर्वस्व अश्विन को मान लिया था। स्कूल में बच्चों के पिता का नाम रामभरोसे ही प्रचलन में था और रहवासी भी जानते थे कि बबलू और चिन्टू का वास्तविक पिता रामभरोसे ही है। इसलिए भी विभा ने रामभरोसे को घर में कभी-कभार आने-जाने की स्वीकृति दे रखी थी। अश्विन को इस बात से कोई ऐतराज नहीं था। लम्बे समय से स्वयं के विवाह की बांट जोह रहे अश्विन ने विभा को अपना जीवनसाथी बनाना अधिक सरल लगा। विभा और रामभरोसे के बीच आये दिन की अनबन से अश्विन परिचित था। प्रथम विवाह से असंतुष्ट विभा उसके लिये आसान शिकार थी। अश्विन और रामभरोसे अक्सर साथ में खाना खाने बैठते। वह भी विभा के हाथों से बना हुआ। बच्चें बड़े हो रहे थे। उन्हें यह सब तब तक ही अच्छा लगा जब तक लोगों ने उनके कान भरना शुरू नहीं करे दिये। हिन्दी फिल्म का 'मेरे दो-दो बाप' हिट डाॅयलाॅग बोलकर बच्चें उन दोनों भाईयों को चिढ़ाने लगे। जिनसे बबलू और चिन्टू नाराज हो जाते। वे चिढ़चिढ़े भी हो गये थे। विभा ने उन दोनों को समझाने का बहुत प्रयास किया। उसने अश्विन से भी मदद मांगी। किन्तू बाल मन को समझाने इतना सरल कार्य नहीं था। मोहल्ले में यही एक अनोखा परिवार नहीं था बल्कि विनय और उसका परिवार भी आकर्षण का केंद्र बना हुआ था। विनय जिस स्त्री को अपनी विवाहिता पत्नी बताता था वह सुनिता स्वयं एक जवान विवाह योग्य बेटी नीतू की मां थी। सुनिता परित्यक्तगता थी अथवा विधवा, ये बात उसने कभी विनय को नहीं बताई। विनय ने भी ज्यादा पुछ-परख किये बगैर सुनिता को अपना लिया था। विनय ने अपना घर तो बसा लिया किन्तु वह अपने छोटे भाई नीरज के लिये चिंतित था। वह जानता था कि नीरज उसी की तरह कम पढ़ा-लिखा है। उस पर ड्राइवरी पेशा , जिसे समाज में अधिक महत्वपूर्ण नहीं माना जाता। विनय की तरह नीरज का विवाह भी तय आयु में नहीं हो सकेगा। नीरज कुछ नाराज भी था। उसे अपने भैया का यूं अचानक विवाह कर लेना सहन नहीं हो रहा था। क्योंकि विनय ने नीरज को वादा किया था की दोनों एक साथ विवाह गठबंधन में बंधेंगे। विनय अपने छोटे भाई की नाराजगी जानता था। उसने अपनी पत्नी के सम्मुख जो मांग रखी उससे सुनिता चौंक उठी।
"क्या? नीतू की शादी तुम्हारे बेटे नीरज के साथ? तुम ऐसा सोच भी कैसे सकते हो?" सुनिता तिलमिला उठी।
"जरा ठण्डे दिमाग से विचार करो। कुछ समय के बाद मुझे उत्तर देना।" विनय कहकर चला गया। नीतू का सुनिता के अलावा अन्य कोई नहीं था। नीतू का भविष्य कैसा होगा? यह सोच-सोचकर वह आधी हुई जा रही थी। रह रहकर विनय का प्रस्ताव उसे विचार करने पर विवश कर रहा था। 'एक ही घर में दोनो मां-बेटी यदि देवरानी-जेठानी बनकर रहे तो इसमें बुरा क्या है?' सुनिता सोच रही थी। 'नीतू हमेशा मेरे साथ ही रहेगी। मुझे विनय को इस शादी के लिये हां कह देनी चाहिये। मगर नीतू क्या इसके लिये राजी होगी?'
"मां-मां" नीतू ने सुनिता को जगाया।
सुनिता ने मन को कठोर किया। और वह सब नीतू से कह सुनाया।
"मां। तुम मेरे लिये जो सोचोगी उसमें मेरा भला ही छुपा होगा।" नीतू ने सहमती दे दी। नीतू शादी कर अपनी मां की देवरानी बन गई। कुल मिलाकर सभी प्रसन्न थे।
समाप्त
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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।
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लेखक--
जितेन्द्र शिवहरे
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