I am in love- कहानी

 आई एम इन लव--कहानी


"मैंने सुना कि तुने विजय को अपने घर बुलाया है?" कविता ने अपनी सहेली रंजिता से पुछा।

"हां! सही सुना है तुने। मैं भी देखना चाहती हूं कि विजय कितना बहादुर है?" रंजिता के स्वर कुछ कठोर थे।

"तू पागल है क्या? अपने भाई के विषय में तो सोच! संतोष कितने गुस्सेल स्वभाव का है। दोनों का सामना हुआ तो निश्चित ही खुन-खराबा होगा?" कविता ने चिंता जताई।

"अच्छा है कविता। दोनों को कुछ सबक तो लगेगा। विजय को प्यार का भुत संवार है और मेरे भाई संतोष को अपनी ताकत का घमण्ड है।" रंजिता बोली।

"ये सब तुझे मज़ाक लग रहा है क्या? ये कितना खतरनाक है? और फिर संतोष•••।"

"तुझे संतोष की बड़ी परवाह हो रही है!" कविता को बीच में टोकते हुये हुये रंजिता बोली।

"अsss वोssss!" कविता के मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे।

"देख कविता! तु मेरी सबसे अच्छी सहेली है। संतोष के चक्कर में अपना समय बर्बाद मत कर। वो तेरे लायक नहीं है। उससे कहीं अच्छे लड़के तुझे मिल जायेंगे।" रंजिता ने कहा।

"हम दोनों परस्पर प्यार करते है रंजिता।" कविता बोली।

"चार दिन में सारा प्यार का नशा हवा जायेगा। सच्चाई का सामना तुम नहीं कर पाओगी कविता। सच मुझे पता है क्योंकि संतोष मेरा सगा भाई है। मैं उसे अच्छे से जानती हूं।" रंजिता बोली।

"तु अपने भाई की बुराई कर रही है क्योंकि वो विजय तुझे प्यार करने लगा है, इसलिए न!" कविता अब गुस्से में आ गयी।

"ना ही मुझे विजय में रूचि है और न ही मैं संतोष से कोई स्नेह रखती हूं।" रंचिता कुछ पल शांत होकर बोली।

"कविता! संतोष तीन बहनों में एक लौता भाई है। हट्टा-कट्टा और गबरू जवान। मगर काम के नाम पर कुछ नहीं करता। पहले मां-बाप की कमाई पर पलता था और अब हम बहने उसके शौक़ पुरा कर रही है।" रंजिता बोली।

"शादी के बाद संतोष जरूर सुधर जायेगा।" कविता बोली।

"उसके पास कोई कुबेर का खजाना नहीं है जो बैठकर खाता रहेगा। संतोष के पास जो मोटरसाइकिल है, जिस पर बैठकर वो तुझे घुमाता है वो भी हम बहनों की मेहनत की कमाई से आई है।" रंजिता बोली।

कविता कुछ पल शांत थी। चलते-चलते दोनों बस स्टाॅप पर आ चुके थे। बिड़ला ज्वेलर्स पर दोनों काम करती थी, वही से घर लौट रही थी।

बस आकर उन दोनों के सम्मुख खड़ी हो गयी। कविता और रंजिता दोनों बस में चढ़ गयी। रिक्त सिट नहीं होने पर दोनों बस में खड़ी थी। बस चल पड़ी।

"ये सोचकर संतोंष को बाइक दिलावायी थी कि घर के छोटे-मोटे कामों में उससे मदद मिलेगी। मगर साहब जादे ने बाइक पर ऐसा अतिक्रमण किया है की मज़ाल है! उसकी बाइक कभी घर या हमारे किसी काम आई हो?" रंजिता बोली।

"इस पर मुंहफट इतना है कि बिना गाली-गलौच और मुंहजोरी के तो बात ही नहीं करता। ये भी नहीं की घर में तीन-तीन जवान बहनें है! कुछ तो जुबान को लगाम दे। मगर नहीं। पता नहीं किस बात का घमण्ड है उसे।" 

बस अपनी गति से दौड़े जा रही थी। अगले स्टाॅप पर  कुछ संवेरियां उतरी। बैठक की कुछ सीटें खाली हुई। कविता और रंचिता उन रिक्त सीट्स तुरंत लपकी। कंधे पर लटके हैण्ड बैग्स को अपनी गोद में रखकर रंजिता ने पानी की बाॅटल से पानी पीया। कविता ने भी दो घुंट पानी पी लिया।

"हम बहनों का न सही मगर जिन मां-बांप ने उसे जन्म दिया कम से कम उनका तो लिहाज करे! मगर अपने जन्म दाता से भी सीधे मुंह वह बात नहीं करता। हर समय मरने-मारने की धौंस देता रहता है। सच बताऊं कविता! उस दिन जब छोटी बहन प्रिया पर संतोष ने हाथ उठाया न! हम सभी डर गये थे उससे। संतोष की हिसंक प्रवृत्ति अब बड़ने लगी है। कौन जाने कब किस पर हाथ उठा दे।"

रंजिता बोली।

"लेकिन सुना था वह कुछ काम करने लगा था।" कविता ने पुछा।

"काम। हूंsssअं। शहर के छुटभैया नेताओं के साथ घुमता-फिरता है। वो लोग जो कुछ खिला-पिला देते है उसके लिए बहुत है। परिवार जाये भाड़ में, उसकी बला से।" रंजिता बोली।

"और वो उसका स्टेज डेकोरेशन वाले काम का क्या हुआ?" कविता ने पुछा।

"तुझे सब पता है फिर भी मुझी से पुछ रही है।" रंजिता ने चिढ़ते हुये कहा।

"संतोष मुझे सारी बातें कहां बताता है।" कविता ने निराशा व्यक्त की।

"ये कैसा प्यार है तुम दोनों के बीच। उसे तेरी हर बात की खब़र है मगर तुझे उसके बारे में कुछ भी पता नहीं है?" रंजिता बोली।

"हां! यही सच है।" कविता बोली।

"इसीलिए तो कह रही हूं! उसे सिर्फ हुक्म देना आता है। प्यार निभाना उसके बस की बात नहीं। उसे भुलकर किसी अच्छे लड़के को अपना जीवनसाथी बनाने के विषय में सोच।" रंजिता बोली।

"अब ये मुमकिन नहीं है रंजिता। अब यदि मैं उससे दुर गयी तो निश्चित ही वह खुद को नुकसान पहुंचा लेगा।" कविता बोली।

"ऐसा कुछ नहीं होगा। और यदि होता भी है तो होने दे। एक-दो पापी संसार से कम से हो जाये तो अच्छा ही है।" रंजिता बोली।

बस स्टाॅप आ चूका था। कविता और रंजिता बस से उतर गयीं। कविता को आज कुछ अनिष्ट का संदेह था। यही सोचकर वह अपने घर न जाकर रंजिता के साथ उसके घर चली गयी। विजय वहां पहले से आ चुका था। संतोष वहां नहीं था। रंजिता की बहन श्रुति और तमन्ना भी काम से लौट चूकी थी। उनके पिता छगन राय अभी-अभी बाजार से सब्जी आदि लेकर लौटे थे। मां शिवानी की हाथों की बनी चाय विजय पी चूका था।

"बेटी! ये विजय तुमसे मिलने आये है?" शिवानी ने अपनी बेटी रंजिता से कहा।

"जानती हूं मां।" कहते हुये रंजिता घर के बैठक हाॅल में आ गयी। कविता दिवार घड़ी की ओर देख रही थी। वैसे संतोष का कोई विशेष समय घर आने और जाने का नहीं होता था। वह कभी-भी आ धमकता था। कविता के साथ रंजिता भी कुछ डरी हुई थी।

"बोलिये विजय जी! आप क्या कहना चाहते है?" रंजिता ने कहा।

"रंजिता! मैं यह बात तुमसे तिसरी बार कह रहा हूं।" विजय बोला।

कविता के पास आकर श्रुति और तमन्ना ने पुरा मामला जानना चाहा। कविता ने दोनों के कान में सबकुछ बता दिया। दोनों खुश हो गयी। रंजिता की शादी के बाद ही तो उनका नम्बर आयेगा। संतोष की बाइक की आवाज़ सभी पहचानते थे। वह दरवाजे पर आ चूका था। विजय इन सबसे अनभिज्ञ होकर अपनी बात कहना चाहता था। संतोष घर के अंदर आ चूका था।

"देखीये। आप सभी के सामने मैं अपनी दिल की बात कर रहा हूं। मैं रंजिता से प्रेम करता हूं। यदि आप लोगों को कोई ऐतराज न हो तो मैं रंजिता से शादी करना चाहता हूं।" विजय बोला।

संतोष आश्चर्यचकित था। उसके चेहरे पर क्रोध के भाव उभर आये थे।

"मैंने एम काॅम तक पढ़ाई की है। चौधरी इन्टरनेशनल कम्पनी में चाटर्ड अकाउंटेट हूं। चालिस हजार रूपये महिने की तनख़्वाह है। खुद का घर है। गांव में कुछ पुश्तैनी जमींन है। अपने मां-बाप का एकलौता लड़का हूं। बड़ी सिस्टर की शादी हो चुकी है। ये मेरा छोटा सा परिचय है। यदि आप कुछ पुछना चाहते है तो पुछ सकते है?" विजय ने कहा।

"एम्बुलेंस से जायेगा या चार कंधों पर?" संतोष अपने अंदाज में बोला।

"घर आये मेहमान से ऐसे बात नहीं करते बेटा!" शिवानी ने अपने बेटे संतोष को समझाया।

"हमने बुलाया था क्या इसे? कोई भी आता है मुंह उठाये, उसे घर के अंदर घुसा लेती हो।" संतोष अपनी मां पर भड़का।

"देख भाई! मुझे यहां रंजिता ने बुलाया था। इसलिए आया हूं।" विजय बोला।

"तेरे लिए अच्छा यही होगा कि बिना वक्त गंवाये उल्टे पैर यहां से लौट जा। वरना इतना मारूंगा की तू एकलौता भी नहीं रहेगा।" संतोष गुस्से में बोला।

"सुन! मारने की बात छोड़। अगर मुझे तुने हाथ भी लगाया न! तो तुझे अफसोस होगा की तुने ऐसा क्यों किया?" विजय भी तैश में आ चूका था।

"अच्छा! तो तू अपने आपको बड़ा पहलवान समझता है!" संतोष बोला।

"समझता नहीं हूं। मैं पहलवान ही हूं। हमारे परिवार में पहलवानी करने की बड़ी पुरानी परम्परा रही है। तुमने छोगालाल उस्ताद का नाम थो सुना ही सुना ही होगा। वो मेरे दादाजी थे।" विजय ने बताया।

"तो ठीक है। एक कुश्ती मेरे साथ भी हो जाये। तुम जीते तो मेरी बहन की रंजिता से शादी कर लेना। और अगर हारे तो सबके सामने मेरे जूतों पर नाक रकड़नी होगी।" संतोष बोला।

"संतोष! ये क्या बकवास है।" छगन राय बोल पड़े।

"तु चूप हो जा बापू। अब तो दंगल होगा दंगल।" संतोष ने पिता छगन राय से कहा।

"ये क्या बोल रहा है तुम्हारा भाई रंजिता?" विजय ने रंजिता को देखकर कहा।

"क्यों? तुम तो मुझसे बहुत प्यार करते हो न! अपने प्यार के लिए इतना नहीं कर सकते!" रंजिता आगे बढ़कर बोली।

"तुम दोनों भाई-बहन क्या पागल हो गये हो क्या?" शिवानी बोली।

"तुम्हें क्या लगा विजय! चालिस हजार रूपये महिने की जाॅब और जमींन-जायदाद के बल पर तुम रंजिता को पा सकते हो?" रंजिता के स्वर में अभिमान झलक आया।

"ठीक है मैं तैयार हूं।" विजय बोला।

"तो फिर कल शाम। पुराने हाट मैदान पर। शाम 7 बजे।" संतोष ने कहा।

"मैं आ जाऊंगा।" इतना कहकर विजय लौट गया।

रंजिता ऐसा नहीं करना चाहती थी। मगर उसे ये कदम संतोष को सही रास्ते पर लाने के लिए उठाना पड़ा। उसे अंदर से विश्वास था कि ये द्वन्द विजय ही जितेगा।

अगले दिन शाम होते ही पुराने हाॅट मैदान की रौनक देखते ही बनती थी। प्रतिवर्ष नागपंचमी पर होने वाली कुश्ती जैसा ही दृश्य वहां दिखाई देने लगा था। बच्चे बुढ़े और जवान पर्याप्त संख्या में वहां उपस्थित थे। गोलाकार  तल पर लाल रंग की मिट्टी बिछाई गयी थी। इसी गोलाकार के किनारे ईंटो की मुंडेर बनायी गयी। जिसे चुने से सफेद रंगा गया था। आसपास के पेड़ों पर लाइट की विशेष व्यवस्था की गयी थी। ताकी कुश्ती देखने वाले देर रात तक कुश्ती का आनंद ले सके।

सात बजे संतोष और विजय लंगोट बांधकर कुश्ती के मैदान में उतर गये। रंजिता और कविता अपने-अपने प्रियतम का उत्साह वर्धन कर रही थी। संतोष के स्थानिय दोस्त 'संतोष-संतोष' की ध्वनि निकालकर उसे प्रोत्साहित कर रहे थे। कुछ स्थानीय बच्चें स्वतः ही विजय का सपोर्ट कर रहे थे। वे विजय का नाम बार बार पुकार रहे थे। दंगल आरंभ हुआ। तालियां और सिटी की आवाजों से वातावरण गुंज उठा। कविता तालियां पीट रही थी क्योंकि संतोष एक के बाद एक कर विजय को धुल चटा रहा था। देखने से लगता था की विजय जल्दी ही हार मान लेगा। वह संतोष के सामने कमजोर सिद्ध हो रहा था। रंजिता से रहा नहीं गया। वह गोलाकार घेरे के पास पहूंच गयी। विजय वही सुस्ता रहा था।

"ये क्या विजय! इस तरह से तो तुम हार जाओगे। संतोष पर हाथ उठाओ। उसे पटखनी दो।" रंजिता व्याकुल थी।

"एक शर्त पर?" विजय बोला।

"जल्दी बोलो। क्या है वो शर्त?" रंजिता ने पुछा।

"पहले आई लव यूं बोलो।" विजय ने कहा।

"कभी नहीं।" रंजिता चिढ़ते हुये बोली।

"ठीक है। फिर देखो अपने आशिक को मार खाते हुये।"

विजय एक बार फिर उठा। वह संतोष पर छपटा ही था की चालाक संतोष ने पुनः विजय को धोबी पछाड़ मार कर चित्त कर दिया। विजय रंजिता के पास आकर गिरा।

"ये क्या बेवकूफी है विजय। तुम संतोष को मार क्यों नहीं रहे?" रंजिता बोली।

"आई लव यू बोलो पहले।" विजय ने कहा।

" अच्छा बाबा! ठीक है! आई लव यू। खुश।" रंजिता बोली।

"खुशम खुश! अब देखो मेरा कमाल!" विजय बोलकर उठा।

संतोष आश्चर्यचकित था कि इतनी शक्ति निर्बल विजय के शरीर में कहाँ से आ गयी? विजय के हाथों की पकड़ शक्तिशाली थी। संतोष उसकी बाहों में छटपटा रहा था। विजय ने बाहों में उठाकर उसे नीचे पटक दिया। संतोष कराह उठा। विजय यहाँ भी नहीं रूका। उसने संतोष को दोनों पैरों से उठाकर चारों ओर घुमाकर दर्शकों को खुब हंसाया। संतोष चारो खाने चित्त था। उसके शरीर ने जवाब दे दिया। विजय के हाथों पछाड़ खाकर संतोष निढाल था। उसकी सारी हेकड़ी निकल चूकी थी। वह जमीन की धूल चाट रहा था। दर्शकों ने विजय को फूलों की माला से लाद दिया। उस दिन विजय की बहुत प्रशंसा हुई। विजय ने संतोष को अपने हाथों के सहारे से उठाकर घर पहूंचाया। उसने संतोष के माता-पिता से संतोष को पीटने पर क्षमा मांगी।

----------------------


एक कहानी रोज़--45


*आई एम इन लव*


कहानी का शेष भाग--


         *विजय* ने रंजिता का हाथ एक बार फिर मांग लिया। छगन राय और शिवानी राज़ी थे। श्रुति और तमन्ना भी विजय को जीजा के रूम स्वीकारना चाहते थे। संतोष लज्जित था। अब वह चाहकर भी इस रिश्तें को होने से रोक नहीं सकता था। मगर रंजिता ने विजय के साथ शादी करने से इंकार कर दिया। उसने कहा कि अपने भाई को पीटवाने पर वह शर्मिंदा है। संतोष जैसा भी है आखिर उसका भाई है। और अपने भाई के दुश्मन से वह शादी नहीं कर सकती। विजय को गहरा आघात लगा। रंजिता ने उसे धोखा दिया। वह समझ गया की रंजिता एक बेवफा लड़की है जिसने उसे झुठे प्रेम के जाल में अपने उद्देश्य पुर्ती के लिए फंसाया था। वह रंजिता को कभी माफ नहीं करेगा। रंजिता अपने गाल को सहला रही थी जिस पर जोरदार थप्पड़ जड़ के विजय अभी-अभी उसके घर से लौटा था। विजय अब उसके पास कभी वापिस नहीं आयेगा! ये रंजिता जानती थी।

रंजिता को उसकी दोनों बहनें हिम्मत दे रही थी। कविता भी वहां पहूंची।

"ये क्या रंजिता! विजय से तुने सभी संबंध तोड़ लिये। तुने ऐसा क्यों किया, मुझे पता है। लेकिन शायद तुझे  पता नहीं। विजय जल्द ही शादी करने वाला है।" कविता ने एक नयी बात बताकर रंजिता को ओर भी अधिक व्याकुल कर दिया।

"दिदी! विजय जैसा पति तुम्हें कोई दुसरा नहीं मिलेगा। जाओ। उसे सबकुछ बताकर अपना लो।" श्रुति बोली।

"हां दी! अपना झुठा ईगो छोड़ो और विजय से माफी मांग लो। वो तुमसे सच्चा प्यार करता है। देखना सबकुछ भूलकर वो तुम्हें अपना लेंगा।" तमन्ना बोली।

रंजिता संकोच में थी।

"तेरी दोनों बहने सही कह रही है रंजिता। इससे पहले की बहुत देर हो जाये, जाकर उसे सारी हक़कीत बता दे। विजय सिर्फ तुम्हारा है और किसी का नहीं समझी।" कविता ने कहा।

रंजिता अपने अंदर एक नयी उर्जा का संचार अनुभव कर रही थी। उसने तय किया कि वह विजय से मिलने जायेगी। 

होटल रेडीसन का के गेट पर रंजिता खड़ी थी। क्योंकि वहां तैनात गार्ड उसे होटल के अंदर जाने नहीं दे रहा था। अंदर वैवाहिक उत्सव चल रहा था। इस वैवाहिक आयोजन में सम्मिलित होने के लिए निमंत्रण कार्ड जरूरी था जो रंजिता के पास नहीं था। रंजिता और उस गार्ड के बीच हो रही बहस को पास ही खड़ी एक वृध्दा ने देख लिया।

"लगता है तुम्हारा शादी में जाना आवश्यक है। ये लो मेरा कार्ड ले जाओ।" उस वृद्धा ने रंजिता से कहा।

"लेकिन मां जी आप?" रंजिता ने पुछा।

"मुझे कुछ जरूरी काम आ गया है। इसलिए मैं शादी में सम्मिलित नहीं हो सकूंगी।" वृद्धा मां ने कहा। वह कार्ड रंजिता के हवाले कर होटल के बाहर निकल गयी।

रंजिता ने वह कार्ड उस गार्ड के दिखाकर होटल के अंदर प्रवेश कर लिया। यहां का दृश्य उसे महान अचरज में डुबोेने के लिए पर्याप्त था। शादी सैरेमनी का दृश्य था। दुल्हन स्टेज पर आ चुकी थी। दुल्हन का घुंघट उसके आधे चेहरे को ढका हुआ था। रंजिता उसे गौर से देखना चाहती थी। मगर इससे पहले उसे विजय से मिलना था। विजय वहां नहीं था।

"अरे संतोष! तुम यहां?" संतोष को शादी में देखकर रंजिता बोली।

"हां! अपने कुछ दोस्त भी यहां आये है। मैं उनके साथ हीं हूं। ओके बाये।" संतोष कहकर चला गया। वह बहुत जल्दी में था।

"अरे! मगर सुनो! संतोष!" रंजिता चिल्लाते रह गयी।

रंजिता सोच भी नहीं सकती थी कि संतोष उसे यहाँ मिलेगा।

"अरे! दी तुम यहां!" तमन्ना ने रंजिता की के कंधे पर थपकी देते हुये कहा।

"मैं तो यहां कुछ जरूरी काम से आई हूं! मगर तू यहां कैसे?" रंजिता ने पलटवार करते हुये पुछा।

"मुझे विजय ने बुलाया है। उनके हाथों पर मेहंदी मैं ही तो लगा रही हूं। अच्छा दी! मुझे लेट हो रहा है। बाये।" कहते हुये तमन्ना भी वहां जल्दी ही निकल गयी।

रंजिता समझ नहीं पा रही थी। उसके परिवार के लोग यहां क्यों आये? वह हर जगह विजय को ढुंढ रही थी। मगर वह दिखाई नहीं दे रहा था। एक ओर महिला संगीत का कार्यक्रम चल रहा था। रंजिता वहां पहूंची। महिलाओं के बीच कविता नृत्य कर रही थी। उससे रहा नहीं गया। रंजिता ने कविता के कान पकड़कर उसे महिलाओं की भीड़ से बाहर निकाला।

"क्यों! यहां कैसे?" रंजिता ने कविता के कान मरोडते हुये पुछा।

"अरे! रंजिता ये क्या कर रही है। मेरे कान तो छोड़। वो देख विजय जी आ गये।" कविता ने कहा।

रंजिता ने तुरंत पलट कर देखा। वहां कोई नहीं था। रंजिता गुस्से में कविता को मारने के लिए उसकी ओर मुड़ी। मगर कविता वहां से गायब थी। रंजिता का ध्यैर्य खौता जा रहा था। आखिर ये सब उसके साथ हो क्या रहा था?

छगन राय और शिवानी अपनी बेटी रंजिता के पास चलकर आये।

"मां! ये सब क्या हो रहा है! सब मुझे परेशान कर रहे है?" रंजिता अपनी मां से लिपट गयी।

रंजिता ने प्यार से उसके सिर पर हाथ फैरा।

"अच्छा तो यह है रंजिता। हमारी होने वाली बहू।" सोहन लाल अपनी पत्नी विनिता के साथ वहां आकर बोले।

"जी। यही है हमारी बड़ी बेटी रंजिता! आपकी होने वाली बहू। विजय की होने वाली पत्नी।" शिवानी ने कहा।

रंजिता को कुछ समझ नहीं आ रहा था। यदि विजय से उसकी शादी होने वाली है, तब स्टेज पर दुल्हन कौन है?

"रंजिता! अपने सास-ससुर के पैर छुओ।" छगन राय ने कहा।

रंजिता ने सिर पर टुपट्टा रखकर सोहन लाल और विनिता के पैर छुएं।

"चलो समधन जी। जरा जल्दी करो। पंडित जी आ चुके है। दुल्हन को तैयार करने भेजो।" विनिता ने कहा।

रंजिता को अपने सवालों का जवाब चाहिये था। मगर उसे वहां ऐसा कोई नज़र नहीं आया जिससे वह अपने दिल में उठ रहे सवाल पुछ ले।

"चले रंजिता! तैयार होने।" कविता बोली। वह रंजिता के पीछे से आकर यकायक प्रकट हो गयी थी। उसके साथ तमन्ना भी थी।

"अब तु मुझे सब कुछ सच-सच बताइयेगी की ये सब हो क्या रहा है?" रंजिता ने गुस्से से कविता से कहा।

"ओके बाबा! साॅरी! सब बताती हूं। हम सबने मिलकर ये प्लान बनाया था।"

"सबने मतलब?" रंजिता ने पुछा।

"मतबल मम्मा-पापा, विजय, मैं, कविता, तमन्ना और संतोष।" तमन्ना बोली।

"संतोष भी शामिल है इन सब में!" रंजिता ने पुछा।

"हां दी। उसी की बदौलत तो यह सब हो रहा है।" तमन्ना बोली।

विजय से कुश्ती हार कर संतोष तनाव में था। मगर रंजिता ने अपने भाई के मान-सम्मान की खातिर अपने प्यार को भुल जाना उचित समझा। संतोष अपनी बहन के बलिदान को देखकर अधीर हो उठा। उसी के सम्मान के लिए रंजिता ने विजय से संबंध तोड़ लिये। जबकि संतोष ने रंजिता को कभी बहन जैसा सम्मान दिया ही नहीं। वह आत्मग्लानी से भर उठा। उसने तय किया की वह रंजिता और विजय की शादी करवा कर ही रहेगा। उसने विजय से माफी मांगकर सारी हकीकत बता दी। विजय रंजिता पर गर्व कर रहा था। उसने रंजिता से शादी करने की हां मी भर दी। ये शादी यादगार हो इसलिए सभी ने दुल्हन रंजिता को बिना कुछ बताये सीधे शादी के मंडप पर बुलावा लिया। यह रंजिता का अब तक सबसे बड़ा सबसे बड़ा सरप्राइज था। संतोष भी वहां आ चुका था। रंजिता स्टेज की तरफ चल पड़ी। वहां पहूंचकर उसने दुल्हन का चेहरा देखना चाहा। ये कोई ओर नहीं श्रुति ही थी। उसे सब समझ आ गया था।

रंजिता शादी का जोड़ा पहन चूकी थी। शादी के लिबास में वह किसी अप्सरा से कम नहीं दिखाई दे रही थी। मगर उसकी नज़रे अब भी विजय को ढुंढ रही थी। वह उससे एक बार बात करना चाहती थी। सभी जन रंजिता की आंखों की बैचेनी भाप चूके थे। अंततः उसे विजय के पास भेज दिया गया। विजय एकांत में होटल की छत पर खड़ा था। वह अपनी आखों से बिजली से चकाचौंध शहर को देख रहा था। रंजीता दबे पांव उसकी तरफ बड़ रही थी। उसके दोनों हाथों में लहंगा था। जिसे वह उठाकर और खुद को संभालकर आगे बड़ रही थी।

विजय शैरवानी पहनकर रंजिता की ही प्रतिक्षा में था। रंजिता उसके एक दम नजदीक आ चूकी थी। विजय उसकी उपस्थिति भांप चूका था। वह बिना मुड़े ही बोला-

"मुझे यकीन था। तुम जरूर आओगी।"

"विजय! आई एम साॅरी! प्लीज मुझे माफ कर दो।" रंजिता ने प्रार्थना की।

विजय पलट कर रंजिता के सम्मुख खड़ा हो गया।

"जिससे प्यार करते है उससे माफी नहीं मांगते रंजिता!" विजय ने रंजिता के कंधों पर अपने दोनों हाथ रखते हुये कहा। रंजिता विजय से लिपट गयी।

"मुझे नहीं पता था विजय! ये खेल इतना बड़ा हो जायेगा। मेरे कारण सभी को परेशानी हुई। मैं बहुत बुरी हूं।" रंजिता ने स्वीकार किया।

"यदि तुम बुरी होती तो मैं तुम्हें इतना प्यार कैसे करता? तुम बहुत अच्छी हो। तुम हमेशा मेरे दिल में रहोगी।" विजय ने कहा।

रंजिता ने विजय की आंखों में देखा।

"ये सपना तो नहीं है विजय! तुम दुल्हे के लिबास में और मैं दुल्हन के! आज क्या सचमुच हमारी शादी होने वाली है!" रंजिता ने आश्चर्य से कहा।

"हां! रंजिता! ये हकीकत है। मेरे सपनों की रानी आज मेरे घर दुल्हन बनकर आने वाली है।" विजय ने रंजिता से कहा।

"आज भगवान को फिर से मानने का मन कर रहा है विजय! इतनी सारी खुशीयां मुझे एक साथ देकर उसने अपना खजाना मुझ पर बरसा दिया है।" रंजिता बोली।

विजय ने पुनः रंजित को हृदय से लगा लिया।

"हर लड़की की तरह मेरी भी ख़वाहिश थी कि मुझसे भी कोई राजकुमार शादी करे। मुझे डोली में बिठाकर अपने महल में ले जाये। वो मुझसे इतना प्रेम करे की मेरे जीवन में कभी कोई गम़ न रहे।"

रंजिता विजय के हृदय पर अपना सिर रखकर बोल रही थी।

"मगर सपने तो सपने ही होते है न! मैं अपने राजकुमार की प्रतीक्षा कर ही रही थी कि घर की जिम्मेदारीयों ने मुझे खुद के विषय में सोचने ही नहीं दिया। पढ़ाई कब छुटी पता नहीं चला। जैसे-तैसे पिता की शराब छुटी। वह भी तब जब उनके लीवर के उपचार में घरभर कंगाल हो गया। संतोष के आतंक से हम-सब वैसे ही दुःखी थे। श्रुति और तमन्ना अपने-अपने पसंद के लड़कों से शादी करने की जिद पर अड़ी थी। उन्हें अब तक कैसे संभालकर रखा है, ये सिर्फ मैं ही जानती हूं।"

विजय रंजिता के मन सारे उद्गार आज सुन लेना चाहता था। वह दोनों हाथों से रंजिता को थामे हुआ था।

"जब से तुम मेरे जीवन में आये। पता नहीं! पर मुझे तुम्हारे अंदर अपने लिए आशा की एक किरण दिखाई दी। और फिर जब तुमने मुझे प्रपोज किया! बस तब ही से मैं भी तुम्हें चाहने लगी थी। मगर कभी कहा नहीं। आखिर संतोष से कुश्ती लड़ते हुये तुमने मेरे मुंह से अपने लिए आई लव यूं बुलवा ही लिया। तुम्हें आई लव यू कहकर मुझे ऐसा अनुभव हुआ जैसे की मैंने नेशनल सिवील सेवा एक्जाम पास कर ली हो। संतोष हमारे पास फिर से लौट आया। वह अपनी जवाबदारी समझने लगा। मगर तुम्हें ठुकरा कर मैं कभी चैन से नहीं सौ पाई। हर पल मुझे तुम्हारा ही ख़्याल था। मैं दौड़कर तुम्हारे पास आना चाहती थी। तुम्हें सबकुछ सच बता देना चाहती थी। मगर दिमाग़ के आगे मेरा दिल हार गया। मैं चाहकर भी तुम्हारे पास नहीं आ सकी। लेकिन आज इन सभी लोगों ने हमें मिलाने का जो काम किया है उसे देखकर मुझे पुरा विश्वास हो गया है कि सच्ची मोहब्बत एक-दुसरे से मिला ही देती है। मुझे आज यह कहते हुये गर्व हो रहा है कि यस! आई एम इन लव •••आई एम इन लव विजय! आई लव यूं। मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूं। तुम्हारे बिना मैं एक पल भी नहीं रह सकती है। क्या तुम मुझसे शादी करोगे?" रंजिता ने कहा।

"हां! रंजिता! मैं तुमसे शादी करूंगा। मैं भी तुमसे बहुत प्यार करता हूं। आई लव यूं।" विजय ने कहा।

पास ही चोरी-छिपे खड़े परिवार के सदस्यों ने तालियां बजा दी। रंजिता और विजय चौंक गये। सभी लोगों को वहां एक साथ आया हुआ देखकर रंजिता शर्मा गयी। वह दौड़कर अपनी होने वाली सास के बाँहों में छिप गयी।

"अब चलो भई! मुहूर्त निकला जा रहा है। पण्डित जी वर-वधु को बुलाओ, वर-वधु को बुलाओ! ऐसा पचास बार बोल चुके है।" संतोष बोला।

सभी हंसने लगे। रंजिता और विजय मंडप की ओर चल पड़े।


समाप्त


--------------------



प्रमाणीकरण-- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।



©®सर्वाधिकार सुरक्षित

लेखक--

जितेन्द्र शिवहरे 

177, इंदिरा एकता नगर पूर्व रिंग रोड मुसाखेड़ी इंदौर मध्यप्रदेश

मोबाइल नम्बर

7746842533

8770870151

Jshivhare2015@gmail.com Myshivhare2018@gmail.com


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

हरे कांच की चूड़ियां {कहानी} ✍️ जितेंद्र शिवहरे

लव मैरिज- कहानी

तुम, मैं और तुम (कहानी)