कवि की चप्पल

 *कवि की चप्पल-व्यंग्य*

   *एक* कवि मित्र ने स्व प्रयासों से जैसे-तैसे कवि सम्मेलन का आयोजन किया। मैं भी निमंत्रित था। मंचीय स्टेज पर चढ़ने से पूर्व चरण पादुकाएं नीचे एक ओर व्यवस्थित रख दी थी। सम्मेलन निपटाकर ज्यों ही चप्पलें ढूंठी, नहीं मिली। सारा पांडाल खगांल मारा। किन्तु चप्पलों का नामों निशान तक न था। हडकंप मच गया कि चोरल वाले कवि महोदय की चप्पलें चोरी चली गयीं। मेरे लिए बिना चप्पलों के एक पग चलना भी दूभर हो रहा था। नंगे पैर घर कैसे जाता? कवि मित्र से प्रार्थना की कोई वैकल्पिक व्यवस्था करें। उन्होंने बहुत देर तक विचार किया परन्तु कोई युक्ती नहीं निकली। रात्री के तीन बजे चप्पलों की दुकान कहां खोजते? अन्य कवि मित्रों ने आयोजक कवि मित्र पर दबाव बनाया की मानदेय भले न दें, लेकिन कवि महोदय की चप्पलों की व्यवस्था तो करें। आयोजक कवि मित्र मान गये। अपनी पहनी हुई चप्पलें देने को सहमत होते दिखें। किन्तु उसके एवज में लागत से अधिक राशी की मांग कर रहे थे। चप्पलें थी तो पुरानी मगर मरता क्या न करता! मैं मान गया! साहठ रूपयों की चप्पलों के एक सौ बीस रूपये की मांग थी। बहुत मान-मनौव्वल की। किन्तु वे टस से मस न हुये। दलील में बोले की ये चप्पले भले ही साहठ रूपयों की है किन्तु टूटने और फटने पर चार मर्तबा चप्पलों पर 10-10 रूपयें के मान से चप्पलों की मरम्मत का व्यय हुआ था, उसका क्या? 'इस हिसाब से तो चालिस रूपये हुये और पुर्व क्रय लागत के साहठ रूपये मिलाकर कुल सौ रूपयें ही हुये है। आप एक सौ साहठ रूपये किस बात के मांग रहे है?" एक अन्य कवि मेरे सपोर्ट में बोलें।

"अरे वाह! चार बार फेबीक्यूब भी तो लगाया था। उसके बीस रूपये कौन जोड़ेगा?" कवि मित्र तिलमिलाते हुये बोले।

"हमारे पति जी सत्य कह रहे है। फेबीक्यूब का ट्यूब हम ही खरीद-खरीद कर लाकर दिये थे इन्हें।" कवि मित्र की धर्मपत्नी प्रमाण देते हुये बोली।

पांच रूपये का फैवीक्यूब जो चार बार चप्पलों पर पोता गया था, के रूपये मिलाकर चप्पलों की कुल लागत एक सौ बीस रूपये हो गयी थीं। चप्पलें दिखने भर से हेवी प्रतित हो रही थी। पैरों के नीचे आते ही उनके वजनी होने का भी प्रमाण मिल गया। खैर...! चप्पल की राशी का भुगतान कर बिना मानदेय का लिफाफा लेकर जैसे तैसे घर पहूंचा। घर आकर श्रीमती जी को पुरा वाकया बताया। पेट दुखने तक हंसी और चप्पलों को म्यूजियम में रखने जैसा ऐन्टीक पीस समझकर उसने आज भी संभाले रखा है। आने-जाने वाले मेहमान को श्रीमती जी वे चप्पलें अवश्य दिखाती और पुरी घटना चटखारे लगाकर सुनाया करती। मेहमान के साथ स्वयं भी खूब हंसती और हंसाती। अब तो मैं भी उस घटना का आनंद लेने लगा हूं। अगर आपको भी उन चप्पलों के दीदार करना है तो चले आईये मेरे घर पर। चाय और चप्पलें दोनों तैयार है आपके लिए।



समाप्त 

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व्यंग्यकार

जितेन्द्र शिवहरे

177 इंदिरा एकता नगर पूर्व रिंग रोड

चौराहा मुसाखेड़ी इंदौर मध्यप्रदेश

मोबाइल नम्बर-8770870151

Myshivhare2018@gmail.com

Jshivhare2015@gmail.com 


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