साबूदाने की खिचड़ी
साबूदाने की खिचड़ी-लघुकथा
महाशिवरात्रि पर साबुदाना खिचड़ी का वितरण चल रहा था। सुधा ने अपने दोनों बच्चों को सख्त लहजे में समझा दिया था कि बाहर की कोई चीज़ ने खायें। घर पर भी इस बात पर सहमति बन चूकी थी कि शिव मंदिर से वे लोग सीधे घर आयेंगे। महामारी के कारण सुधा अतिरिक्त सावधानी बरत रही थी। जगह-जगह खिचड़ी का वितरण चल रहा था। अमित और उसकी बहन नेहा बड़ी उत्सुकता से यह सब देख रहे थे। उन दोनों के कदम आज जैस उठने को तैयार ही नहीं हो रहे थे। बहुत से बच्चें खिचड़ी लेने को भीड़ में कूद पड़े थे। अमित और और नेहा भी खिचड़ी ग्रहण करना चाहते थे किन्तु मां सुधा के क्रोध के आगे दोनों बेबस थे। दोनों भाई-बहन चाहते थे कि इसमें उनके पिता सहायता करें। दिनेश अपने बच्चों की मनोदशा भांप चूके थे। शिव दर्शन के बाद चारों पार्किंग तक पैदल ही चलते हुये आ रहे थे।
दिनेश कुछ कह पाते इससे पुर्व ही सुधा बोल पड़ी- "किचन में साबुदाने भिगो कर रखें है। घर पहूंचते ही खिचड़ी बना दूंगी। जितना खाना हो खा लेना।"
सुधा का इतना कहना ही पर्याप्त था बात खत्म करने के लिए। किसी के पास कोई प्रत्युत्तर नहीं था। अमित और नेहा बेमन से कार में बैठ गये। सुधा सीट बेल्ट लगा चुकी थी।
"पापा! क्या इन लोगों के घर खिचड़ी नहीं बनी होगी? जो इतनी संख्या में खिचड़ी लेने आ गये?" अमित ने पूंछा।
दिनेश ने कार स्टार्ट करते हुये कहा-" बेटा! ये शिवजी का प्रसाद स्वरूप है। इसलिए इतनी भीड़ है!"
"फिर हमने प्रसाद क्यों नहीं लिया?" नेहा बोल पड़ी।
"ताकी हमें कोरोना न हो जाये! समझी!" सुधा गुस्से में बोली।
नेहा झेंप गयी।
कार आगे बड़ गयीं। अमित और नेहा विचारो के भंवर में खो गये।
उमड़ती भीड़ में खिचड़ी लेने कूद पड़े बच्चों के माता-पिता स्वयं उन्हें उकसा रहे थे कि वे भी खिचड़ी प्राप्त करने का संघर्ष करें। इसके लिए बकायदा वे खिचड़ी वितरण कर्ता भक्तों से स्व परिजनों को खिचड़ी देने की अपील करते दिखें। जबकी अमित और नेहा के पालक नहीं चाहते थे कि वे महामारी के समय बाहर की कोई भी चीज़ खायें। अमित और नेहा के पालक ज्यादा जागरूक थे और भीड़ में बच्चों के साथ खिचड़ी ले रहे पालक लापरवाह, यह स्थिति तो साफ थी किन्तु घर की खिचड़ी खाकर अमित और नेहा को वह आनन्द नहीं आया जो बाहर की प्रसाद खिचड़ी खाकर आने वाला था।
समाप्त
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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमति है।
सर्वाधिकार सुरक्षित
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जितेन्द्र शिवहरे (लेखक/कवि)
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