मुझे रंग दे - कहानी

 मुझे रंग दे - कहानी

     *सभी* के लिये इस बार की होली कुछ खास थी, सिवाएं संध्या के। हर कोई तैयारियों में व्यस्त था। नगर की रौनक देखते ही बनती थी। होलीका दहन की तैयारियाँ पूरी हो चूकी थी। सभी प्रसन्न दिखाई दे रहे थे। लेकिन होली आते ही संध्या अपने आपको कमरे में बंद कर लेती। पांच साल पहले होली के दिन ही उसके पति राजेन्द्र का स्वर्गवास हुआ था। यह एक आत्मदाह था। संध्या स्वयं को इस बात का दोषी मानती थी। जबकी उसके ससुराल वाले भी यह स्वीकार कर चूके थे कि राजेन्द्र ने अपनी बिमारी से तंग आकर सुसाइड किया था। पुलिस रिपोर्ट भी यही कहती थी। शादी के दो वर्ष बाद ही राजेन्द्र का दमा हद से ज्यादा बढ़ गया। संध्या ने राजेन्द्र की बहुत सेवा की। मगर राजेन्द्र को हमेशा लगता था कि उसने अपनी बिमारी की बात संध्या से छिपाकर बहुत गल़त किया। जबकि संध्या इस बात के लिए राजेन्द्र को पहले ही माफ कर चूकी थी। संध्या ने अपनी ओर से राजेन्द्र को बहुत हिम्मत दी, किन्तू राजेन्द्र आत्मग्लानी में डूबा रहता। यही कारण था कि राजेन्द्र ने अपने बच्चें पैदा नहीं होने दिये। उसे संदेह था कि यह पैतृक बिमारी बच्चों को भी घेर लेगी और फिर संध्या कब तक उनकी देखभाल करती रहेगी? संध्या के सुखद भविष्य के लिए स्वयं राजेन्द्र ने उसे दूसरी शादी करने की विनती कर डाली ताकी वह अपनी भूल सुधार सके। किन्तु संध्या नहीं मानी। वह पढ़ी लिखी होने के बावजूद रूढ़ीवादी थी। वह अपने पति को ही परमेश्वर मान चूकी थी। मायके से लेकर ससुराल तक संध्या की दूसरी शादी की मांग जोर पकड़ते जा रही थी। लेकिन मजबूत इरादों की पक्की संध्या टस से मस नहीं हुई। फिर अरविंद ने आकर संध्या के जीवन में ऊथल-पुथल मचा दी। अरविंद वही था जो काॅलेज टाइम में संध्या से बहुत प्यार करता था। संध्या ने अरविंद का प्यार कभी स्वीकार नहीं किया। यहां तक की उससे अपना पिछा छुड़ाने के लिए संध्या ने अरविंद को पुरे काॅलेज के सामने अपमानित किया था। उस दिन से अरविंद ने संध्या से दुरी बना ली। इधर काॅलेज से निकलते ही संध्या ने राजेन्द्र से शादी कर ली। अरविंद के पास भी शादी के अच्छे प्रस्ताव आये किन्तु वह ईमानदार इतना था कि लड़कीयों को साफ-साफ कह देता कि उसका पहला प्यार संध्या है और हमेशा रहेगी। अगर उसकी दूसरी बीवी बनने को वह लड़की तैयार है तो वह भी शादी करने के लिए तैयार है। लड़कीयां इस बात पर राज़ी नहीं हुई। फलस्वरूप अरविंद अविवाहित ही रहा। राजेन्द्र को अरविंद के विषय में जब पता चला तब उसने मृत्यु पूर्व अरविंद से भेंट की। उसने अरविंद से संध्या को पुनः अपनाने की अपील की। साथ ही अपनी बिमारी और अल्पायु का भी हवाला दिया। अरविंद नहीं माना किन्तु जब राजेन्द्र के आत्मदाह की ख़बर सुनी और राजेन्द्र का लिखा पत्र उसे मिला तब वह राजेन्द्र की बात मानने के लिए तैयार हो गया। पत्र में राजेन्द्र ने भावुक होकर विनती कि थी। संध्या का जीवन कोई अगर खुशियों से भर सकता है तो वह अरविंद ही है। आज नहीं तो कल संध्या इस शादी के जरूर मान जायेगी। पत्र पढ़कर अरविंद संध्या के निकट पहूंचने निकल पड़ा। भरे बाज़ार में अरविंद को देखकर संध्या चौक गयी। वह जल्दी-जल्दी तरकारी लेकर घर भागना चाहती थी। लेकिन अरविंद तो जैसे उसका सामना करने का मन बनाकर आया था।

"आप मेरा पिछा क्यों कर रहे है?" संध्या तेज़ कदमों से चल रही थी। अरविंद उसके पीछे-पीछे चल रहा था।

"मुझे तुमसे कुछ कहना है संध्या!" अरविंद बोला।

संध्या रूक गयी। उसने पलटकर कैफे की ओर इशारा किया। दोनों कैफे में पहूंच गये।

"ये नहीं हो सकता अरविंद! मैं अब एक विधवा हूं और तुम अब भी कुंवारें हो! तुम्हें मुझसे बेहतर लड़की मिल जायेगी।" संध्या बोली।

"लड़कीयां तो बहुत आई! लेकिन तुमसे बेहतर कोई नहीं थी। इसलिए मैंने अब तक शादी नहीं की।" अरविंद बोला।

संध्या मायुस थी। उसे अपनी उस करनी पर भी पछतावा हुआ जब पुरे काॅलेज के सामने उसने अरविंद की इन्सर्ट की थी। लेकिन इन सबके बाद भी वह अरविंद को कैसे स्वीकार कर लें। उसके अंदर अब भी वह सोच जिन्दा थी जहां एक ही पति की अर्द्धांगिनी होना सौभाग्य और दूसरे पुरूष की पत्नी बनना एक रूढ़ीवादी बुराई समझा जाता था।

"मैं तुमसे अब भी बहुत प्यार करता हूं संध्या। और पुरे समाज के सामने तुम्हें अपनी धर्म पत्नी स्वीकार करना चाहता हूं।" अरविंद ने संध्या से कहा।

संध्या सिहर उठी। उसके जीवन में पुनः प्रेम की बहार आयेगी ये उसने कभी सोचा भी न था। किन्तु अपने स्वार्थ के कारण वह अरविंद का भविष्य खराब नहीं कर सकती थी। उसने अरविंद को साफ मना कर दिया और घर लौट गयी। मगर अरविंद हार कहां मानने वाला था। वह संध्या के इर्द-गिर्द बना रहता। संध्या के ससुराल वालों के सामने उसने संध्या से विवाह करने की पेशकश कर डाली। प्रारंभ में सभी को बुरा लगा किन्तु धीरे-धीरे समझदार और अच्छे परिवार के अरविंद के विषय में जांच पड़ताल करने से संतुष्ट संध्या के ससुराल वाले संध्या को अरविंद के साथ ब्यहाने के लिए तैयार हो गये। संध्या के मायके वाले भी चाहते थे की संध्या अरविंद से विवाह कर ले किन्तु संध्या थी की मानने को तैयार नहीं थी।

"संध्या सोच लो! अरविंद तो सारी उम्र तुम्हारा इंतज़ार करने को तैयार है लेकिन कहीं ऐसा न हो कि राजेन्द्र के बाद तुम अरविंद को भी खो दो।" संध्या की सहेली अर्पणा ने संध्या से कहां।

अर्पणा का यह वाक्य संध्या के सीने के अंदर तक धंस गया। वह बूरी तरह हताहत हो गयी। अरविंद को स्वयं से दूर जाने का सोचकर ही संध्या व्याकूल हो उठती। स्थिति साफ थी। भले ही वह मुख से इंकार करती रहें किन्तु अंदर ही अंदर वह भी अरविंद से प्रेम करने लगी थी। इस होली पर अरविंद ने गुलाल से संध्या की मांग भरने का निश्चय किया था। अगर संध्या नहीं मानी तब वह हमेशा-हमेशा के लिए संध्या से दूर चला जायेगा। संध्या के विचारों में वहीं राजेन्द्र था जिसने स्वयं उसे दूसरी शादी करने की विनती की थी। और फिर वह अरविंद जो पलक पावड़े बिछाकर अब भी उसकी प्रतिक्षा कर रहा था। अततः उसने स्व. राजेन्द्र और अपने दिल की बात सुन ली। वह अरविंद को स्वीकार करने के लिए राजी हो गयी। संध्या का पूरा परिवार हर्षोल्लास के साथ होली मना रहा था। संध्या ने तय किया था कि अबकी होली वह अरविंद के साथ ही मनायेगी। अरविंद नियत समय पर सफेद कुर्ता पायजामा पहनकर हाथों में गुलाल भरकर संध्या के ससुराल आ पहूंचा। लाज-शर्म की मारी संध्या नज़रे झुकाकर अरविंद का स्वागत कर रही थी। अरविंद आगे बढ़ा और उसने संध्या की मांग में होली का गुलाल भर दिया। संध्या ने झूककर अरविंद के पैर छू लिये। अरविंद ने संध्या को हृदय से लगा लिया। "होली है! होली है!" कहते हुये संध्या के ससुराल वाले बाहर निकले। उन्होंने अरविंद को रंग-रौनक करना शुरू कर दिया। संध्या ने गुलाल लेकर अरविंद के चेहरे पर लगाया। अरविंद ने भी संध्या के गालों पर गुलाल मल दिया। नाचते-गाते पारिवारिक सदस्यों ने अरविंद और संध्या की शादी की सहर्ष सहमति दे दी।


समाप्त

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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमति है।


सर्वाधिकार सुरक्षित

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जितेन्द्र शिवहरे (लेखक/कवि)

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