तहज़ीब का इश़्क- कहानी
*तहज़ीब का इश़्क*
*पंडित* कमल किशार जी की पांचों बेटी इतनी सुन्दर, सुशील और गुणावान थी कि बड़े-बड़े घरों से उनकी शादी के प्रस्ताव आ रहे थे। पंडित जी चाहते थे कि सर्वश्रेष्ठ वर का चुनाव कर वे अपनी बेटीयां उन्हें ब्याह दें। किन्तु सबसे बड़ी बेटी आनंदी विवाह के लिए तैयार नहीं थी। उसने बेटी होकर अब तक एक बेटे का दायित्व बखूबी निभाया था। वह चाहती थी उसकी चारों बहन ब्याह कर ससुराल चली जाये, लेकिन वह अपने बुंढ़े माता-पिता को छोड़कर कहीं नहीं जायेगी। पंडित जी को हमेशा लगता कि आनन्दी कुछ छिपा रही है। बहुत पूछने पर भी आनन्दी ने कभी नहीं बताया कि शादी न करने की उसकी असली वजह क्या है! अंततः आनन्दी की चारों बहनें योग्य वर के साथ एक-एक ब्याह दी गयी। और आनन्दी अब भी अपने माता-पिता का सहारा बनी थी।
"बेटी! अब अपने दिल की बात तो बता दें। देख तेरी चारों बहनें ससुराल जा बसी है।" पंडिताई रुक्मिणी ने अपनी बेटी आनंदी से पूछा।
आनन्दी को भी लगा अब अपने हृदय की बात बताने में कोई परेशानी नहीं है।
"मां! अर्पण को जानती हो आप!" आनन्दी ने पूछा।
"हां वही अर्पण न! जिसने मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा में स्थापित मुर्ति लाने में एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था। राजस्थान, उत्तरप्रदेश और न जाने कहां-कहां भटका था वह तेरे पिता के साथ। तेरे पिताजी को जो मुर्ति पसंद थी उसे ले आने में कितनी मदद की थी अर्पण ने।" रुक्मणी बोली।
"हां मां! वहीं अर्पण! मैं और अर्पण एक दुसरे हे प्रेम करते है।" आनन्दी ने बताया।
"क्या कहा? लेकिन....!" रुक्मणी देवी बोलते-बोलते रही गयी।
"हां मा! हमारा प्रेम पिछले पांच वर्षो से है। किन्तु अभी तक किसी को पता नहीं है।" आनन्दी बोली।
"अरे नासमिटी! ये क्या कह रही है। अर्पण के पिता का हम पर कितना उपकार है। नगर में मंदिर बनावाकर तेरे पिताजी को मुख्य पुजारी बनाया और हमें रहने को घर दिया। तेरी चारों बहनों की शादी में कितनी मदद की उन्होंने। उन्हें पता चलेगा तो कितना बुरा लगेगा।" रुक्मणी देवी चिढ़ते हुये बोली।
"मैंने अपने हृदय की बात बता दी मां। अर्पण और मैं कहीं भागे थोड़े ही जा रहे है जो तुम इतनी चिंता कर रही हो?" रुक्मणी बोली।
"मैं जानती हूं आनन्दी! अर्पण एक अच्छा लड़का है किन्तु वह हमसे कई गुना धनवान और प्रतिष्ठित है। चाहकर भी तू उसकी दुल्हन नहीं बन सकती।" रुक्मणी ने समझाया।
"मां! मैं अपना सर्वस्व अर्पण को मान चूकी हूं। इससे अधिक की मुझे कोई लालसा नहीं है। अर्पण को भी मैंने समझा दिया है। घर के बढ़े-बूढ़ों की सहमति न मिलने पर हम लोग आजीवन कुंवारे रहेंगे किन्तु कोई गल़त कदम उठाकर अपने परिवार वालों को कभी शर्मिन्दा नहीं करेंगे।" आनन्दी बोली।
"लेकिन बेटी...!" रुक्मणी बोली।
"मां...! अर्पण और मुझे कुछ करना होता तो अब तक हम कभी के कर चूके होते। घर की बड़ी बेटी होने के नाते यदि मेरे प्रेम प्रसंग का पता मेरी बहनों को चलता तब हो सकता था उन्हे भी मेरी राह चलने की प्रेरणा मिलती। तब इसका प्रतिकार करने का साहस किसी में न होता। लोग कहने लगते कि जब घर की बड़ी बेटी प्रेम करेगी तब छोटी बहनें तो करेंगी ही न!" आनन्दी बोली।
रुक्मणी देवी चूप थी। द्वार पर खड़े कमल किशोर ने सब कुछ सुन लिया। उन्हें अपनी संस्कारों पर गर्व था। आनन्दी के सिर पर हाथकर वे आशीर्वाद देने को आतुर दिखें। कल सुबह की आरती के बाद उन्होंने अर्पण के पिता शिवभानु सिंह चौधरी से बात करने की विचार किया।
शिवभानु सिंह चौधरी को विचारों में देख संशय के बादल दिखाई देने लगे। कमल किशोर मौन खड़े थे। उन्होंने अपने हृदय की बात चौधरी साहब को बता दी थी। अर्पण और आनन्दी सिर झूकाये खड़े थे।
"मुझे प्रसन्नता है पंडित जी! आपने अपने भविष्य की चिंता किये बगैर मुझे सबकुछ बता दिया। मैं आनन्दी की भी प्रशंसा करता हूं जिसने निस्वार्थ भाव से अपने पवित्र प्रेम को न केवल स्वीकार अपितु उसे कहने का साहस भी दिखाया।" चौधरी साबह बोले।
अर्पण और आनन्दी के साथ के कमल किशोर आश्वस्त दिखें।
"संस्कारों के परिपालन में संयम के साथ अपने प्रेम को स्वीकार कर अर्पण और आनन्दी ने मिशाल प्रस्तुत की है। मैं इनके सुखद भविष्य के दोनों के विवाह को सहर्ष मंजूरी देता हूं।" चौधरी बोले।
सर्वत्र प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी। अर्पण और आनन्दी की शादी अनोखी थी क्योंकी सभी जगह इस प्रेम विवाह कि चर्चा थी।
समाप्त
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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमति है।
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जितेन्द्र शिवहरे (लेखक/कवि)
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