प्रण...अमर प्रेम का-कहानी

 *प्रण...अमर प्रेम का-कहानी*

       *मंदिर* निर्माण समिति के पदाधिकारीयों को दिनदयाल शर्मा के विषय में ज्ञात हुआ।

"वे महान दानवीर है। मंदिर निर्माण में उनका सहयोग लेना चाहिये।" एक सदस्य ने कहा।

"हां! किन्तु अभी वे शहर से बाहर है!" दूसरे सदस्य ने बताया।

"कोई बात नहीं। उनका सुपुत्र प्रेम तो है। सना है घर और बाहर के सभी कार्य दीनदयाल जी की अनुपस्थिति में वहीं संभालता है।" अध्यक्ष ने कहा।

"तो फिर तय रहा कि हम लोग कल ही दीनदयाल निवास पर सहयोग निधि लेने जायेगें।" सचिव बोले।

"उत्तम! तुम दुर्गा वाहिनी की महिला सदस्यों को भी साथ चलने का निमंत्रण दे दो।" अध्यक्ष ने सचिव से कहा।

"ठीक है। कल प्रातः 11 बजे दीनदयाल निवास पर हम सभी मिल रहे है।" सचिव बोले।

बैठक संपन्न कर सभी अपने-अपने घर लौट गये।

दीनदयाल निवास पर देवालय निर्माण सदस्यों को आदर के साथ बैठक हाॅल में बैठाया गया।

पूजा के सफेद वत्रों में प्रेम सीढ़ीयों से उतरकर बैठक हाॅल में आया। उनके चेहरे का तेज़ आलौकिक था। वह युवा नौजवान बरबस ही उपस्थित सेवा समिति के लोगों का ध्यानाकर्षित करने में सफल था। दुर्गा वाहिनी की शहर प्रतिनिधि प्रतिज्ञा ठाकुर भी प्रेम के प्रथम दर्शन से प्रभावित हुये बिना न रह सकी।

"जैसा की आपने बताया कि मंदिर निमार्ण में आपको आर्थिक मदद चाहिये।" प्रेम ने पूछा।

"हमें नहीं! यह सहयोग मंदिर निर्माण हेतू चाहिये।" प्रतिज्ञा बीच में बोल पड़ी।

"ओके। मेरे पिताजी होते तो आपको कितनी रकम देते?" प्रेम ने पूछा।

"जी! ये हम कैसे बता सकते है?" अध्यक्ष ने कहा।

"हां! मगर! इतना अवश्य देते जिससे की मंदिर का निर्माण समुचित ढंग से संपन्न हो जाता।" समिति सचिव ने आगे कहा।

"तो ठीक है। मंदिर निर्माण में जितनी भी राशी व्यय होगी , वह हम वहन करेंगे। अब आप लोगों को अन्यत्र चंदा इकठ्ठा करने की कोई जरूरत नहीं है।" प्रेम ने कहा।

इतना सुनते ही उपस्थित सेवा समिति के सदस्यों के चेहरे खिल उठे। सभी प्रसन्नचित्त थे।

"किन्तु इससे पुर्व हमारी कुछ शर्तैं है। यदि आप उन्हें स्वीकार करते है, तब ही आपको धन मिलेगा।" प्रेम ने कहा।

"कैसी शर्तैं?" प्रतिज्ञा ने पूछा।

"शर्त यह है कि भव्य मंदिर निर्माण के बाद मंदिर की संपत्ति पर किसी का एकाधिकार नहीं होगा। यह एक सार्वजनिक संपत्ति होगी। मंदिर में स्थापित दान पेटीयों से प्राप्त राशी बेसहारों और बीमार मरीजों की देखभाल के लिए खर्च की जायेगी। आप सभी समिति के लोग नि:स्वार्थ भाव से मंदिर में सेवा देंगे। कोई वेतन की आस नहीं रखेगा।" प्रेम बोला।

समिति के लोग एक-दुसरे का मुंह ताक रहे थे।

"धन के अलावा अन्य सामग्री जो चढ़ावे में प्राप्त होगी, का विक्रय कर वह भी परमार्थ के लिए ही व्यय कि जायेगी। मंदिर की भव्यता बढ़ाने और अन्य सुविधा जुटाने के लिए नहीं। भोजन भंडारा पात्र लोगों के नि:शुल्क संचालित होगा तथा मुसाफिरों के लिए रहवास/भोजन की सुविधा भी नि:शुल्क उपलब्ध होगी।" प्रेम बोला।

"किन्तु मंदिर प्रबंधन के लिए एक ट्रस्ट का निर्माण तो करना ही होगा! और उन्हें इसके लिए वेतन भी देना होगा।" अध्यक्ष बोले।

"अभी आप जिस तरह धर्म-पुण्य के कार्य कर रहे है, क्या आपको इसके बदले कुछ मिल रहा है?" प्रेम ने पुछा।

"नहीं।" अध्यक्ष बोले।

"अर्थात् मंदिर निर्माण के बाद आपको धन लाभ की चाह है।" प्रेम ने पूछा।

"अssss! वोsssss!" अध्यक्ष महोदय की जुबान लड़खड़ गयी।

"देखीये! हमें ऐसे लोगों की टीम चाहिये जो मंदिर प्रबंधन  स्वेच्छा से और नि:स्वार्थ भाव से कर सके। आप ऐसे लोगों की सहमति ले लाइये, हम मंदिर का काम जल्दी शुरू कर देंगे।" प्रेम बोला।

मंदिर निर्माण समिति के सदस्य उल्टे पैर लौट गये।

प्रतिज्ञा ठाकुर को प्रेम की बातों में दम लगा। मंदिर परिसर में सेवा देना नि:स्वार्थ होना चाहिये। प्रतिफल की आस नहीं करना चाहिये।

"ये सब ढोंग है प्रतिज्ञा। प्रेम एक नम्बर का चालबाज इंसान है।" काॅलेज परिसर में स्नेहा अपनी सहेली प्रतिज्ञा से बोली।

"ये तुम क्या कह रही हो?" प्रतिज्ञा बोली।

"तु अभी इस कालेज में नयी है जबकी प्रेम यहां हम से सीनियर है। किसी से भी पूंछ लेना उसके बारे। तुझे फंसाने के लिए वह अच्छी-अच्छी बातें कर रहा होगा। जबकी वह एक नम्बर का फ्लर्टी है।" तनुजा बोल पढ़ी।

"अगर ऐसा है तो वह मुझे नहीं जानता। मेरे साथ उसने अगर ऐसी-वैसी हरकत की ना तो उसे वो मज़ा चखाऊंगी कि जीवन भर याद रखेगा।" प्रतिज्ञा बोली।

अगले दिन काॅलेज में प्रेम का स्टाइलिश और कूल लुक देखकर प्रतिज्ञा को यकीन ही नहीं हुआ कि यह वही प्रेम है जिसे वह उस दिन उसी के घर में मिली थी। प्रतिज्ञा को प्रेम का पाखंड पता चल गया। अब वह उससे जानबूझकर अवाइट करने लगी।

"मैं जरूरत से ज्यादा फैशनेबल और कूल हूं, क्या तुम इसलिए मुझे पसंद नहीं करती।" एक दिन प्रेम ने मौका पाकर प्रतिज्ञा से पूंछ ही लिया।

"देखीये! आप कुछ भी पहने-ओढ़े! ये आपका निजी मामला है। मुझे कोई आपत्ति नहीं है। और रही बात आपको पसंद न पसंद करने की! तो बता दूं कि आप जैसे दो मुंहें आदमी को कोई पसंद नहीं कर सकता।" प्रतिज्ञा निडर हो कर बोल गयी।

इधर जब कुछ लड़कियों ने प्रेम के विरूद्ध काॅलेज प्रिंन्सीपल से शिकायत की तो सभी चौंक गये। लड़कीयों में इतनी हिम्मत आई कहा से? प्रेम भी यही सोच रहा था। दीनदयाल शर्मा जब तीर्थयात्रा से लौटे तो उनके कानों में उनके इकलौते बेटे प्रेम की शिकायत पहूंची। और यह शिकायत प्रतिज्ञा ही लेकर पहूंची थी उनके पास। दीनदयाल शर्मा बहुत दुःखी हुये। उन्होंने प्रतिज्ञा और अन्य लडकियों से क्षमा की याचना की तथा प्रेम को कढ़ा सबक सीखाने के लिए मना लिया।

छेड़छाड़ और लडकियों से बत्तमीज़ी के कारण प्रेम को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। रिमाण्ड पे लिया सो अलग। तीन दिन के बाद उसे कोर्ट ने सशर्त जमानत पर रिहा किया।

"तुम क्या समझती हो! मुझे जेल भेजकर तुम मझसे बच जाओगी?" प्रेम ने एक दिन पुनः प्रतिज्ञा को धर दबोचा।

"एक हारे हुये आशिक से मुझे कोई खतरा नहीं प्रेम!" प्रतिज्ञा बोली।

"मैं हारा नहीं। जरा सा लड़खड़ा गया था। और तुम उसे अपनी जीत समझ बैठी।" प्रेम बोला।

"अच्छा! क्या कर सकते हो तुम मेरे लिए!" प्रतिज्ञा ने पूछा।

"जान के अलावा सबकुछ दे सकता हूं।" प्रेम बोला।

"पुराना डॉयलाग है!" प्रतिज्ञा हंसकर बोली।

"तब तुम कहो। तुम्हें अपना बनाने के लिए मैं कुछ भी कर गुजरूंगा।" प्रेम बोला।

"यह इस जन्म में तो संभव नहीं है।" प्रतिज्ञा बोली।

"क्यों?" प्रेम ने पूछा।

"क्योंकि इस जन्म में मैंने आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करने का संकल्प लिया है। मैं जीवनभर अपने देश और धर्म की रक्षा के लड़ती रहूंगी।" प्रतिज्ञा बोली।

"वीरांगना बनने का शौक चर्राया है!" प्रेम ने व्यंग्य कसा।

"कुछ भी समझ लो। मेरा निश्चय अमिट है। मैं सारी उम्र शादी नहीं करूंगी। बोलो क्या तुम भी ब्रह्मचर्य का संकल्प लेते हो। हम दोनों शारीरिक रूप से भले ही दूर रहे किन्तु हम दोनों की आत्मा एक ही रहेगी! जीवनभर अविवाहित रहकर हम दोनों अपने देश और धर्म की सेवा करते रहेंगे। यही हमारा परस्पर सच्चा प्रेम होगा।" प्रतिज्ञा बोली।

प्रेम समझ नहीं पा रहा था कि प्रतिज्ञा के वचनों का क्या प्रति उत्तर दे! वह मौन खड़ा था! मानो कोई वज्रपात-सा हुआ हो उसके ऊपर।

अब तक लड़कीयों के दिल से खेलना वाला अब प्रतिज्ञा के हाथों का खिलोना बन चुका था। उस वीरांगना ने सचमुच प्रेम को बूरी तरह परास्त कर दिया था। हर जगह उसे प्रितज्ञा का अक्स दिखाई देता। प्रतिज्ञा के बिना स्वयं के अस्तित्व की कल्पना करना भी उसके लिए मुश्किल था। प्रतिज्ञा की बात स्वीकारने के अलावा प्रेम के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था। इसमें कम से कम वह प्रतिज्ञा के आसपास तो बना रह सकेगा। प्रतिज्ञा को जी भर देख सकेगा। किन्तु यदि प्रतिज्ञा रुठकर कहीं चली गयी या उसने स्वयं को हानी पहूंचाने की कोशिश की तो प्रेम का क्या होगा? प्रेम विचारों की बाजी जीत चूका था। उसने प्रतिज्ञा की बात मान ली। अब से वह भी अपना जीवन परमार्थ में लगा देगा। सभी स्वार्थ का त्याग कर वह एक मात्र अपनी प्रतिज्ञा का होकर रहेगा। प्रेम ब्रह्मचर्य का पालन करेगा तथा नियम और संयम में बंधकर अपना शेष जीवन बितायेगा। अब जिस प्रेम को दुनियां देख रही थी वह वास्तविक प्रेम था। उसके चेहरे के भाव बता रहे थे कि उसने अपनी इंद्रियों पर विजय हासिल कर ली है। अब उसे किसी चीज़ की आशा नहीं है। प्रेम अमर प्रेम का प्रण ले चूका था प्रतिज्ञा की ही तरह। प्रतिज्ञा और प्रेम ने भगवा वस्त्र धारण किये। वे सांसारिक मोह-माया को त्यागकर सत्य की खोज में निकल पड़े। आगे-आगे प्रेम चलता जाता! पीछे-पीछे उसकी प्रेम दीवानी प्रतिज्ञा चल रही होती। दोनों ने संसार को प्रेम करने का एक अनोखा रास्ता दिखाया था जो दिग्भ्रमित प्रेमियों का सदैव मार्गदर्शन करता रहेगा।


समाप्त

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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमति है।


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