जाना-पहचाना-लघुकथा
*जाना-पहचाना-लघुकथा*
*रामनाथ* जी एक दिन अनायास ही अपनी बेटी नेहा के ऑफिस आ पहूंचे। यह एक तीन कमरों का कम्प्यूटर सेन्टर था। जहां विविध तरह के ऑनलाइन काम किये जाते थे। ऑफिस में नेहा के बाॅस प्रवीण से मिलकर रामनाथ आश्चर्य में पड़ गये। यकायक उन्होंने रामनाथ जी से कहा कि वे नेहा से विवाह करना चाहते है। नेहा को तीन वर्ष हो चूके थे वहां काम करते-करते। 'कहीं कोई प्रेम प्रसंग का प्रकरण तो नहीं!' रामनाथ सोच रहे थे। किन्तु अपनी नेहा पर उन्हे अमिट विश्वास था। यदि ऐसा कुछ होता तो वह सर्वप्रथम अपने पिता को अवश्य बताती। नेहा भी विस्मित थी। प्रवीण ने अचानक विवाह का प्रस्ताव क्यों दिया? वह भी जानना चाहती थी। पिता-पुत्री के माथे पर शंका के भाव देखकर प्रवीण ने उन्हें समझाया। प्रवीण ने कहा कि इन तीन वर्षों में वह नेहा के आचरण को जान चूका है और निश्चित ही नेहा भी प्रवीण के व्यवहार से भलि-भांति परिचित हो चुकी होगी! उन दोनों को आज नहीं तो कल शादी करनी ही है तब एक-दूसरे से क्यों नहीं? क्योंकी बाद में किसी अनजान व्यक्ति को जीवनसाथी बनाने से जान-पहचान के व्यक्ति को अपना हमसफ़र बनाना कई गुना बेहतर है। प्रवीण के तर्कों में वज़न था। नेहा अपने पिता के साथ घर लौट गयी। कुछ दिनों के विचार के बाद दोनों के घर शहनाई गूंज उठी। नेहा और प्रवीण ने शादी कर ली। दोनो पति-पत्नि अपना कम्प्यूटर सेंटर मिलकर चलाने लगे।
समाप्त
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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमति है।
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जितेन्द्र शिवहरे (लेखक/कवि)
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