आंटी-कहानी

 *आंटी-कहानी*

       *सुधा* ने चालिस की उम्र क्या पार की, आंटी की पदवी जैसे स्थाई हो गयी। यहां तक की तीस वाले भी आंटी कहने लगे। शुरू-शुरू में बुरा लगा। धीरे-धीरे फिर उसने स्वीकार कर लिया। बढ़ती उम्र और घटती कार्य शक्ति से सुधा कुछ व्याकुल अवश्य थी। आज उसे किचन में चार लोगों का खाना बनाना था। यह सोचकर ही उसके प्राण मुंह को आने लगे। यह वहीं सुधा थी जो घण्टों रसोई घर में खड़ी रहकर बीसीईयों लोगों का खाना बनाना अपने बायें हाथ का खेल समझती थी। चकला-बेलन तो सुधा के इशारों पर नाचते थे। रोटीयां खुद-ब-खुद उछलती-कूदती गैस की लौ पर सिंक जाया करती थी। पुरीयां तो तेल की कढ़ाई में तैरने को लालायित नज़र आती । सब्जी पकाने में भी सुधा के हाथों का कोई जवाब नहीं था। कच्चे मसाले सिलबट्टे पर पीसकर जब वह कढ़ाई में झोंक लगाती थी तब पास-पड़ोस की बहुत-सी नाक भी सूंघकर बता देती थी कि आज सब्जी में सुधा के यहां क्या बन रहा है? हल्दी, मिर्च और नमक की शुद्धता की पारखी सुधा अब किचन में प्रवेश मात्र से घबराने लगी थी। कैल्सियम की कमी से जुझ रही कमजोर होती हड्डियां दूध के नियमित सेवन से भी मजबूत नहीं हुई। कमर दर्द और पैरों की सूजन तो जैसे आम बात हो गयी थी। दवाईयां इतनी खायी की पेटदर्द और एसिडिटी की शिकायत रहने लगी। ढलता यौवन सुधा का मुंह चिढ़ाने लगा। बुढ़पा जैसे त्वरित आने को मचल रहा था। झुर्रियों को चेहरे पर ओढ़े खड़ी सुधा पुराने दिनों का रोमांच अनुभव करने की कोशिश करने लगी। तब ही उसकी नज़र सोलह बरस की जूनियर सुधा पर गयी। ये हुबहु सुधा ही थी। नटखट और शरारती। सुन्दरता में किसी अप्सरा से कम नहीं और बातुनी इतनी की घण्टों का समय चुटकी बजाकर व्यतीत कर दे। वह सुधा के समीप ही खड़ी होकर भोजन बानाने में सहयोग करने लगी थी। उसे देखते ही सुधा की बैचेनी जाती रही। बर्तनों की आवाज़ ने सुधा का ध्यान भंग किया। ये सुधा की प्रतिछाया अविका थी। जो स्कूल से आते ही अपनी मां की रसोई में मदद करने आ पहूंची थी। अविका अपनी मां सुधा से सहेली की भांति ही बतियां रही थी। शायद! यही जीवन है। उतार-चढ़ाव तो आता-जाता रहेगा। उम्र का बढ़ना और नव जीवन का सत्कार एक नियमित प्रक्रिया है। यथाशक्ति के अनुसार कार्य संपादित करना ही न्यायसंगत और तर्कयुक्त है। विचारों में खोई सुधा मुस्कुराने लगी। अविका के साथ खाना बनाने में अब उसे आनन्द की अनुभूति हो रही थी।


समाप्त 


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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।


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लेखक--

जितेन्द्र शिवहरे 

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*एक कहानी रोज़-167 (29/09/2020)*

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