महिने का राशन-लघुकथा
*महिने का राशन-लघुकथा*
*दीपा* खुश थी क्योंकि लाॅकडाऊन शुरू होने से पहले ही उसने दो माह का राशन खरीद लिया था। मोहल्ले में सभी यही चर्चा कर रहे थे। हर कोई अपने द्वारा खरीदे गये किराना सामान के विषय मे बता रहा था। ताकि एक-दूसरे पर अपनी दूरदर्शीता और संपन्नता का रौब जमाया जा सके। दीपा ने देखा महिला मंडल की चर्चा में सुनिता नदारत थी। आज सुबह ही दूध वाला उससे दूध के रुपयों का तकादा कर के गया था। लाॅकडाऊन में सुनिता के पति की नौकरी चली गयी थी। वह बमुश्किल अपना गुजारा कर रही थी। दिपा के साथ सभी महिलाएं सुनिता की माली हालत जानते थे। मगर स्वाभिमानी दीपा की मदद कैसे करे? सभी के सामने यह बड़ा प्रश्न था।
दीपा ने द्वार खोला। बाहर किराने वाला खड़ा था। वह किराना सामान की पोटली सुनिता की दहलीज पर रखकर जाने लगा। सुनिता ने पूछा कि यह सामान कैसे आया? क्योंकि उसने तो कोई किराना सामान नहीं मंगवाया था? किराने वाला बिना कुछ कहे वहां से चला गया। तभी दीपा के साथ मोहल्ले की कुछ महिलाओं को अपनी घर के सामने खड़ा देख सुनिता चौक गयी। सभी के हाथों में पुराने कपड़े थे।
"सुनिता। तेरे यहां सिलाई मशीन है न! ये हमारे कुछ फटे कपड़े है इन्हें सिल देना।" दीपा बोली।
"मेरे भी!" एक-एक कर अन्य महिलाओं ने कपड़ों का ढेर लगा दिया।
सुनिता इससे पहले कुछ समझ पाती दीपा बोली- "न ही ये कपड़े हम तुझसे फ्रि में सिलवायेंगे और न ही वो राशन तुझे फ्री में मिलेगा।"
सुनिता की आंखें भर आई। उसकी सहेलियों ने न केवल पड़ोसी धर्म निभाया बल्कि सुनिता के स्वाभिमान का सम्मान भी बरकरार रखा।
समाप्त
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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमति है।
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जितेन्द्र शिवहरे (लेखक/कवि)
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