हक़ीकत-कहानी
*हक़ीकत-कहानी*
*शादी* के इतने वर्षों के बाद भी सम्यक और सुरभि के बीच सबकुछ ठीक नहीं था। दोनों का स्वाभिमान कब अभिमान में बदल गया, दोनों ही समझ न सकें। पति-पत्नि के रिश्तें के बीच प्रेम लगभग समाप्त हो चुका था। दो बेटियां सूचि और रुचि के भाग्य में माता-पिता का संयुक्त प्यार बहुत कम समय के लिए हिस्से में आया। सम्यक सरकारी कर्मचारी था। सुरभि से उसने अन्तर्जातीय विवाह किया था। वह आज के जमाने का पढ़ा लिखा युवक था जो जात-पात को स्वीकार नहीं करता था। आर्थिक हालातों से जुझते हुये सुरभि के माता-पिता के सामने सम्यक का सुरभि के लिए विवाह प्रस्ताव बहुत ही अच्छा अवसर था जिन्हें उन्होंने त्वरित सहर्ष स्वीकार कर लिया। यह एक सामूहिक विवाह आयोजन था जिसमें सम्यक ने सुरभि के माता-पिता की इच्छानुसार न्यूनतम व्यय में विवाह आयोजन स्वीकार किया था। विवाहित जोड़े के रूप में सम्यक और सुरभि के पैर घर में पड़ने से पुर्व ही अनुभवी समाज जनों ने सम्यक को कान में कह दिया था सुरभि की लगाम खींचकर रखें अन्यथा गृहस्थी में क्लेश ही रहेगा। सम्यक बर्बरता के विरुद्ध था। उसे शांति प्रिय जीवनशैली पसंद थी। सुरभि के प्रति उसने समानता का व्यवहार अपनाया। जल्दी ही सुरभि के विषय में कि गयी भविष्यवाणी सत्य सिद्ध होने लगी। सुरभि को स्वतंत्रता अति प्रिय थी। कोई उसके निजी कामकाज में दखल दे यह वह कतई बर्दाश्त नहीं करती। उसे ईंट का जवाब पत्थर से देना आता था। ससुराल में जल्द ही सभी सदस्य सुरभि के व्यवहार से दुःखी हो गये। न चाहते हुये भी सम्यक को सुरभि का विरोध करना पड़ा, जिसका परिणाम उसे पुरे मोहल्ले के सामने शर्मिन्दा होकर भूगतना पड़ा। डायल सौ को फोन लगाते ही पुलिस सम्यक को गिरफ्तार करने उसके घर तक आ पहूंची। सम्यक के साथ उसके माता-पिता ने सुरभि के आगे नाक रगड़ी। यहां मोहल्ले वासियों ने सम्यक के शुभ आचरण की वकालत कर जैसे-तैसे उसे पुलिस से बचा लिया। किन्तु इस घटना के असहनीय दर्द से उबरने में उसे महिनों लग गये। किसी महानुभावों कि सीख के वशीभूत आकर सम्यक ने आत्मदाह करने की कोशिश की। किन्तु इस बार भी सुरभि का बाल भी बांका न हुआ। कुटुंब न्यायालय में दोनों के तलाक की अर्जी भी खारिज कर दी गयी। क्योँकी सुरभि किसी भी मुल्य पर सम्यक को तलाक नहीं देना चाहती थी। सुरभि अब तो पहले से भी अधिक शक्तिशाली हो चूकी थी। उसके कारनामों से हर कोई हैरान था। सुरभि पति सम्यक और सास से तु-तड़ाक पर आ गयी। वह किसी की नहीं सुनती। मोहल्ले वासियों से भी उसका अलगाव था फलतः कोई उसे समझाने-बुझाने नहीं आता। सम्यक अपने बुढ़े माता-पिता के लिए चिंतित था जिन्हें इस विवाह ने सर्वाधिक दुःखी और परेशान किया था। सुरभि, सम्यक से जब भी बत्तमीज़ी से बात करती, सम्यक को बहुत क्रोध आता। उसका मन करता की सुरभि को मौत के घाट उतार दे अथवा स्वयं आत्महत्या कर ले। किन्तु जैसे-तैसे स्वयं को समझा ही लेता। आये दिन के गृह क्लेश ने उसे वर्षों का बीमार बना दिया। निरंतर सोच-सोच कर उसके सीने मे जलन रहने लगी जो एक स्थाई बीमारी बन चूकी थी। बाल समय से पहले सफेद होने लगे थे। दोनों बेटियों का समुचित लालन-पालन संस्काराभाव में हो रहा था। वे निरंतर अपने माता-पिता के बीच के तनाव को नोट कर रही थी क्योंकी अक्सर माता-पिता के परस्पर अलगाव का परिणाम बिना वजह इन्हें डांट या थप्पड़ खाकर भूगतना पड़ता था। यहाँ बड़े-बड़े समाज सुधारकों ने सम्यक और सुरभि को अपने-अपने स्तर से समझाया-बुझाया किन्तु कोई बात नहीं बनी। सम्यक पल-पल मर रहा था। उसके जीने की आस खत्म हो रही थी। पुलिस से उसे किसी तरह कोई मदद नहीं मिली। क्योंकी सुरभि उस पर हावि थी। माता-पिता को तसल्ली देकर वह सुरभि के साथ अन्य स्थान पर किराये के मकान में तीन साल तक रहा। किन्तु सुरभि के व्यवहार में कोई अंतर नहीं आया। मकान मालिकों से भी सुरभि की कभी नहीं बनी। तीन वर्ष में चार किराये के मकान बदले। सम्यक अधमरा सा हो गया। विवाह हेतु उतावले युवा मित्रों को वह बिन मांगे सलाह दिये बिना नहीं रहता। वह युवकों को समझाता कि जीवनसाथी का चयन बड़ी ही सावधानी से करना। हो सके तो सगाई और शादी के बीच छ: माह का समय अवश्य रखना ताकि दोनों एक-दुसरे के व्यवहार को जांच-परख लो। किन्तु जिस तरह अपने विवाह के समय सम्यक ने किसी की न सुनी, वे युवा भी कहाँ सुनने वाले थे!
नौकरी की खातिर सम्यक सबकुछ सहता रहा। एक बार फिर बुढ़े माता-पिता के लिए सम्यक जैसे-तैसे घर रहने आ गया। सुरभि को मनाना उसके वश में न था। छोटी बच्ची की बीमारी में उसकी उचित देखरेख हेतू वह ससुराल में रहने के लिए मान गयी। सम्यक के माता-पिता से पुनः उसकी अनबन शुरू हो गयी। पुरे घर में वह कालका बनकर घूमती। जब चाहे तब परिवार सदस्यों का संहार करने को सदैव तत्पर रहती। उसकी तीखी बहस किसी के भी कान के गीड़े झाड़ देने में समर्थ थी। बच्चें से बुजुर्ग तक उससे खौफ खाते थे। आसपास रहवासी में ऐसा कोई न था जिससे कभी वह लड़ी न हो। लड़ाई पिरीयड में पास-पड़ोस का कोई पड़ोसी यदि गलती से सुरभि से बात करने भर आ जाये, समझो की उसकी बूरी गत हो गयी। सुरभि उसे ऐसा जवाब देती की बेचारा या बेचारी अपना-सा मुंह बनाकर वहां से बेरंग चलते बनता या बनती।
घूप मौन रहकर चार-पांच दिनों तक किसी से बात न करते हुये कौप भवन में रहना सुरभि का रामबाण शस्त्र था। जिसे वह हर महिने इस्तेमाल करती थी। इसकी पीड़ा से सम्यक अंदर तक कराह उठता। दोनों बच्चियों को भी समय पर भोजन नहीं मिलता। पिता सम्यक जैसा-तैसा और कच्चा-पक्का भोजन बनाकर बच्चियों को खिलाता व स्वतं भी खाता। सुरभि यहाँ भी नहीं रूकी। सम्यक से शीत युद्ध के दौरान दरवाजा जोर से लगाना, बर्तन-भांडे जानबूझकर नीचे पृथ्वी पर गिरना, जिसकी भयंकर कर्कश ध्वनि सम्यक के कान भेद जाती। वह ऐसा जानकर बूझकर सम्यक को प्रताड़ित करने के लिए करती। सम्यक दौड़कर सुरभि को पीटने के लिए जैसे ही कदम बढ़ाता, लोक-लाज के भय से पुनः पीछे हट जाता। कोबरा सर्प के विष से भी अधिक जहरीला विष सम्यक को पीना पड़ता। सुरभि के मायके वाले भी उसे खूब समझाते। मगर सुरभि उनकी भी एक न सुनती। थक-हार कर उन्होंने भी सम्यक के समुख अपने हाथ खड़े कर दिये थे। सुरभि मनमर्जी की इतनी आदि हो गयी थी कि उसे अच्छा या बुरा किसी का बात होश नहीं रहा। जो मुंह में आता वह बक देती। सम्यक की बहन रावी अपने ससूराल से भाई की पैरवी करने मायके आयी तो सुरभि ने सम्यक से कह डाला कि वह उसकी बहन रावी को ही घरवाली बना ले। और उसे भी बीवी बनाकर साथ में रखें। रावी की बहुत किरकिरी हुई। मजबूरन उसे अपने ससुराल लौटना पड़ा। सम्यक के माता-पिता सुरभि के खौफ में आधे हुये जा रहे थे। जाने वह कब क्या कर बैठे? इसी आशंका में तिल-तिल हर रोज़ मर रहे थे। सम्यक के कुछ दोस्त उसे नामर्द कहने से भी नहीं चूकते। 'एक औरत को नहीं सम्भाल सकने वाला सम्यक पुरूष नहीं है!' यह ताना भी मित्रगण उसे जब-तब मार देते। सम्यक सबकुछ चूपचाप सहन कर रहा था, इस आशा में कि आज नहीं तो कल एक दिन सबकुछ ठीक हो जायेगा। उसके जीवन में भी खुशियां आयेंगी। ढेर सारी खुशियाँ...।
समाप्त
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जितेन्द्र शिवहरे (लेखक/कवि)
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लाजवाब 😀👍🏻
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