शादी के बाद -कहानी
शादी के बाद -कहानी
सुधांशु ने सुधा का हाथ पल भर के लिए पकड़ा ही था कि छोटी छुटकी ने आकर पूंछ लिया- "मां! ये फरवरी में अट्ठाइस दिन ही क्यों होते है?"
सुधा ने अपना हाथ तुरंत खींचा। सुधांशु भी हड़बड़ाकर अखबार में घूस गये।
"चल आजा बेटी! मैं तुझे समझाती हूं।" सुधा, छुटकी को सोफे पर बैठाती हुये बोली। मां-बेटी की स्कूल क्लास शुरू हो गयी। हर बार की तरह इस बार भी सुधांशु मन मसोज कर रह गया।
एक दिन दोपहर में हाॅफ डे लेकर घर आए सुधांशु ने त्वरित आव देखा न ताव और सुधा को बाहों में भीच लिया। सुधा की सहमति थी। उसके द्वार बंद करने का आग्रह भी सुधांशु ने नकार दिया। अगले ही पल मोहित स्कूल से आ धमका। सुधा और सुधांशु पानी-पानी हो गये। मोहित को कुछ नहीं सुझा वह तुरंत उल्टे पैर घर से बाहर लौट गया। इन निजी पलों को सुरक्षित रखना सुधा और सुधांशु की संयुक्त जिम्मेदारी थी जिसमें दोनों ही असफल हुए थे।
सुधा हड़बड़ाट में उठकर कीचन की तरफ भागी। सुधांशु ने अपना लेपटाॅप उठा लिया।
अपने ही घर में सुधांशु बेगाना सा अनुभव कर रहा था। कितना वक्त गुजर गया उसे अपनी पत्नी सुधा के करीब आये हुये। सुधा अपने पति की मनः स्थिति जानती थी मगर वह कर भी क्या सकती थी। अब बच्चें बड़े हो चूके थे। छुटकी प्राइमरी क्लास में होकर भी बड़ी समझदार और चतूर थी। मोहक हाई स्कूल में तथा अर्पिता बीएससी प्रथम वर्ष की छात्रा थी। तीनों बच्चों के समझदार होते ही सुधांश अपनी पत्नी के करीब कब गया था उसे याद नहीं।
"बच्चें सबकुछ समझने लगे जी! मोबाइल और टीवी ने उन्हें वक्त से पहले बड़ा कर दिया है?" सुधा बोली।
सुधांशु चूप था। रसोई घर में वह मौके की तलाश में आया था। उसक दोनों हाथ सुधा के कंधे पर थे।
"अच्छा होगा कि हम स्व नियंत्रण में रहे।" सुधा ने आगे कहा। वह रोटीयां बेलने में व्यस्त थी।
"लेकिन सुधा.....! सुधांशु कुछ बोल पाता इससे पहले ही अर्पिता वहां आ गया।
"मां जल्दी से टीफीन दो! काॅलेज के लिए लेट हो रहा है।" अर्पिता चिल्लाते हुये रसोईघर में घूस आयी।
इह बार भी सुधाशूं को पीछे हटना पड़ा। उसकी व्याकुलता का कोई छोर नहीं था। बच्चों के होशियार होते ही सुधा ने अपना शयनकक्ष बदल दिया। अब वह बच्चों के ही साथ सोती थी। आधी रात तक बच्चें पढ़ाई करते। बच्चों के सोने की प्रतिक्षा कर रहे ऑफिस से थके हाल लौटे सुधांशु को कब निंद आ जाती पता नहीं चलता। सुधा स्वयं चाहती थी की वह सुधांशु के साथ कुछ निजि पल बिताये। किन्तु संस्कार और मर्यादा की मारी सुधा ने अपनी सीमा कभी नहीं लांघी। वह तो स्वयं सुधांशु को अपना आपा न खोने की अक्सर समझाईश दिया करती। जिससे कभी-कभी सुधांशु गुस्सा हो जाता। गुस्से में वह अपना टीफीन भी नहीं ले जाता। पत्नी सुधा अधीर होकर ऑफिस पहूंच जाती टीफीन देने।
फिर एक दिन वो जिसकी कल्पना तक किसी ने नहीं की थी........!
अनवरत.....!
पुरी कहानी पढ़ीए कहानी संग्रह 'जितेन्द्र की कहानियां' में!
लेखक-
जितेन्द्र शिवहरे
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें