बदनाम-कहानी
बदनाम-कहानी
सुहागरात का युं इस तरह से बीत जाना नई दुल्हन बाला पचा नहीं पा रही थी। उसने सारी रात इंतजार किया मगर कुशल का कहीं अता पता नहीं था। एक लड़की के जीवन में शादी की पहली रात अकेली बीतना बाला के लिए अत्यंत दुःख दायी था। वह उठी और आईने में खुद को निहारने लगी। दुल्हन की तरह संजी हुई बाला खुद को आज बिल्कुल पसंद नहीं आ रही थी जो कल रात इसी वेष में फूली नहीं समा रही थी।
कुशल के बार में आखिर वह किससे पूंछे? कहीं उसके सिर ही दोष न मड़ दिया जाएं! उसे पता था कि कुशल को बाला पसंद नहीं थी इन सबके बाद भी उसकी शादी बाला से करवा दी गयी।
मेहमानों से भरे-पूरे घर में उसकी आंखे कुशल को ही ढूंढ रही थी। वह दरवाजे से झांकते हुये बाहर निकली थी ही कि उसके लिए एक संदेश आया। मुंह दिखाई के लिए मेहमान बाला को देखना चाहते है आतः बाला स्नान कर तुरंत तैयार हो जाएं! बाला पुनः अपने कमरे में जा घुसी। सास की आज्ञा मानने के अलावा उसके पास कोई चारा न था।
तैयार होकर डाइनिंग रूम में मेहमानों की खूंसूर-फूंसर के बीच बाला की एन्ट्री ने वातावरण शांत कर दिया। लम्बा घूंघट लिये लाल साड़ी में दबे पांव बाला मेहमानों के बीच जा बैठी।
वह अब भी कुशल के बारे में ही सोच रही थी। आखिर वह हैं कहा? कोई उसे कुछ बताता क्यों नहीं?
बाला की सुन्दरता की प्रशंसा जारी थी। हर कोई उसके सौन्दर्य का बखान कर रहा था। मगर बाला चाहती थी कि ये प्रंशसा वह अपने पति के मुख से सुनें।
मुंह दिखाई के बाद पहली पहल रसोई की बारी थी। हलवा बनाने के लिए बाला किचन में पहूंच गयी जहां सास और ननद उसकी निकरानी में तटस्थ खड़ी थी। सूरज सिर चढ़ कर बोल रहा था। कुलर-पंखें फर्राटेदार चलने लगे थे। सभी को खाना खिलाकर दो पल सुस्ताने बेठी बाला अपने माथे का पसीना पोंछ रही थी।
"बहू अब तुम भी खाना खा लो और आराम करो।" बाला की सास कमलादेवी ने कहा।
"जी मां जी!" बाला का जवाब था। वह कुछ पूंछने उठी थी कि कमला देवी ने समझाया-
"शाम तक रूक जाओ बेटी। कुशल आता ही होगा।" कमला देवी बोली।
सास कमलादेवी की सांत्वना ने बाला के शरीर को एक बार फिर ऊर्जा से भर दिया। जो कल रात नहीं हुआ वह आज होगा। बाला एक बार फिर उम्मीदों का भंवर में जा धंसी।
सांध्य काल में बाला के कानों में किसी सिध्द पुरूष के वचन सुनाई दिये जो हाॅल से उसके कमरे तक सुनाई दे रहे थे। आशीर्वाद लेने के उद्देश्य से बाला बैठक में आ पहूंची। उसकी सास कमलादेवी और ससूर रामनाथ सिद्ध पुरूष के सम्मुख खड़े थे।
ये कोई ओर नहीं कुशल ही थे जो आधुनिक आध्यात्म के प्रणेता बने शर्मा परिवार के नाक में दम किये हुये थे। रिशतेदारों में कुशल चर्चा का विषय था। कुशल संन्यासी जीवन जीना चाहता था मगर माता-पिता की खुशी के लिए उसने मन मारकर बाला से विवाह करना स्वीकार किया था।
"प्रेम का दूसरा रूप काम है। विवाह के बाद प्रेम संतान उत्पन्न के लिए किया जाता है। प्रजनन तो हम किसी भी योनि में कर सकते है किन्तु ईश्वरीय भक्ति तो मानव रूप में की जा सकती है।" कुशल प्रवचन दे रहा था।
बाला के पैरों तले जमीन खीसक गयी। यह कुशल ही था जो हाॅल में बैठकर अपने परिवार जनों को उपदेश पीला रहा था। आधुनिक वस्त्रों को धारण किये कुशल कहीं से भी संन्यासी नहीं लगता था। उसका कथोपकथन ही उसे योगी बनाते थे।
धीरे-धीरे बाला को सबकुछ समझ में आने आने लगा। आखिर कमलादेवी ने अति बिगड़ेल बाला को अपने घर की बहू बनाना क्यों स्वीकार किया। वो बाला जो दो बार अपने घर से भाग चूकी थी। इतना नहीं एक बार जिसका गर्भपात भी हो चूका था तथा सारे नगर में जिसके चाहने वालों की भरमार थी उस कामुक बाला को कमला देवी जैसी समझदार महिला अपने बेटे के लिए ब्याह लाई हो तो जरूर कुछ सोच-समझकर ही उसने इतना बड़ा निर्णय लिया होगा।
बाला ये सब सोच ही रही थी कि कमला देवी उसके सम्मुख आन खड़ी हुई।
"बाला!अब तुम्हें ही कुशल को पुनः सांसरिक बनाना होगा। इसके लिए जो बन पड़े करो। तुम स्वतंत्र हो।" कमलादेवी बोली।
"लेकिन मांजी...!" बाला कुछ बोलना चाहती थी।
"हमे तुम्हारे विषय में सबकुछ पता है। अब कुशल ही तुम्हारा पति है और यह घर भी तुम्हारा है। तुम्हारे यौवन ने कितने को पागल बनाया है! कुशल की घर वापसी ही तुम्हारा इस घर में भविष्य तय करेगी।" कमलादेवी ने स्पष्ट कह दिया।
बाला स्तब्ध खड़ी थी। जिस कामुक व्यवहार के कारण वह समाज में बदनाम थी आज वहीं उसके लम्बे वैवाहिक जीवन का आधार बनने जा रहा था। उसने कमर कंस ली। बाला अपनी अदाओं से कुशल को रीझाने निकल पड़ी।
लेखक
जितेन्द्र शिवहरे
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें