होली है...तन-मन रंग लो! (कहानी)

 होली है...तन-मन रंग लो! (कहानी)

                मोहल्ले के युवाओं की नज़र रूपा पर थी। इस होली में सभी रूपा को रंगना चाहते थे। मगर रूपा आसानी से हाथ आने वाली युवतीयों में से नहीं थी। वह जितनी चंचल और सुन्दर थी उतनी ही लड़ाकू और खूंखार भी। बोल-वचन पर आ जाएं तो अच्छे-अच्छों की बोलती बंद कर दे। रूपा से संबंधित बहुत सी घटनाएं नगर में हुई मगर उसके चाल-चलन पर किसी ने कभी अंगुली नहीं उठायी। हां! मगर रूपा के पीठ पीछे उसे अच्छी लड़की कभी नहीं कहा गया। नगर में ऐसा कोई घर न था जहां वो मदद के लिए कभी गयी न हो। घर के सामान्य काम काज के लिए मोहल्ले की औरतें उसे अपनी मदद को बुलाया करती थी। रूपा खुशी-खुशी उनके सभी काम कर देती। बदले में जो कुछ मानदेय मिलता रुपा उससे अपना गुजारा कर लेती। वैसे उसकी आमदनी इससे कहीं अधिक थी। उसे घर से लाने-ले जाने के लिए बड़ी- बड़ी कारें नगर के चौहारे पर आम तौर पर देखी जाती थी।


रूपा के सौन्दर्य पर बहुत से दिल दिल फिदा थे। किन्तु सिद्धांत की बात अलग ही थी। नगर में होली की तैयारियों के बीच सिद्धार्थ ने वहीं अपना पुराना घिसा पीटा प्रेम राग रूपा के सामने छेड़ दिया।

"सिध्दू तू समझता क्यों नहीं। मैं प्यार-व्यार के लिए नहीं बनी। मुझे भूल जा और अपने कॅरियर पर ध्यान दें।" रूपा बोली।


वह जानती थी की सिद्धार्थ एक अच्छा लड़का है जो  पढ़ लिख कर एक काबिल इंसान बन सकता है। वर्ना  रूपा के चक्कर में कितने ही युवक अपना जीवन खराब कर चूके है। मगर जैसे बर्बाद हो चूके पूर्व युवक नहीं माने थे वैसे ही सिद्धार्थ भी नहीं मान रहा था।


गुप्ता परिवार में भी होली की हुडदंग शुरू हो चूकी थी। दरवाजे पर किशोरावस्था के बच्चों की टोली होली का चंदा मांगने अड़ी गयी। अर्चना गुप्ता के 21 रूपये वाले प्रस्ताव को बाल टोली ठुकरा चूकी थी। वे 51 रूपये सहयोग राशी चाहते थे। एक-दो बच्चें लकड़ियां महंगी होने की वज़ह बता रहे थे। घर के मुखियां आलोक गुप्ता ने पत्नी अर्चना से कहा कि न बच्चों कि और न अर्चना की, 41 रूपये चंदा राशी में डील डन करे। मगर बच्चें नहीं माने। यहां पहूंची रूपा ने आखिरकार 51 रूपये की चंदा राशी गुप्ताईन पर दबाव डालकर ली और बच्चों को दे दी। बच्चे खुशी-खुशी लौट गये।


आलोक गुप्ता और अर्चना गुप्ता बच्चों को प्रसन्न देखकर खुश हुये बिना न रह सके गये।


अंदर उनकी बहू शीतल अपनी सोलह वर्षीय बेटी राजकुमारी को होली खेलने के नियमों पर लम्बी-चौड़ी सीख दे रही थी।


"होली पर लड़कों से दूर रहना। उनका हाथ यहां-वहां लग सकता है। सिर्फ लड़कियो के साथ ही होली खेलना!"  शीतल बोल रही थी।


"हां! मां मैं समझ गयी। कितनी बार बताओगी ये सब?" राजकुमारी चिढ़ते हुये बोली।


"अरे शीतल भाभी! मोहल्लें में मेरे होते किसी लड़के की मजाल है जो राजकुमारी पर रंग लगायें।" बिंदास रूपा वहां धमकते हुये बोली।


"हां! रूपा! होली खेलते वक्त राजकुमारी का ध्यान रखना।" कहते हुये शीतल अन्य काम में व्यस्त हो गयी।  


पलंग पर पुराने कपड़ों का बाजार संजाया गया था। गुप्ता परिवार सदस्यों को अपने हिसाब इन कपड़ों का चयन कर पहना था और होली खेलनी थी।


होलीका दहन के बाद नगर में होली खेलना आरंभ हुआ। दौड़ते-भागते और छिपते-छिपाते चेहरो पर रंगों की रौनक देखते ही बनती थी। सर्वाधिक प्रसन्नता बच्चों की टोली में थी। पकड़म पाटी के साथ परस्पर हमउम्र दोस्तों को रंग लगाने में जितना आनन्द था उतना ही मज़ा इन नन्हे बच्चों को होली खेलते हुये देखने का था।


युवाओं को हुजूम उड़ रहा था। सभी की आंखें रूपा को ढूंढने मे व्यस्त थी। भांग के नशे में रूपा को रंगना आसान होता था। मगर इस होली रूपा कहीं दिखाई नहीं दे रही थी।


सिध्दान्त भी हाथों में गुलाल लिए तैयार था। उसने रूपा को आखिरकार ढूंढ निकाला।


"आज तेरा प्यार का भूत ऊतार के ही रहूंगी।" रूपा बहकी हुई थी। उसने अपने कंधे से टूपट्टा गिरा दिया। वह नशे के हाल में धीरे-धीरे सिद्धांत की तरफ बढ़। रूपा को आभास था कि तन का सूख मिलते ही सिध्दांत उस प्रेम को भूल जायेगा जिसकी दिनरात वह माला जपता रहता है।


रूपा करीब आ चूकी थी। उसने सिद्धांत के हाथों की हथेलियों को अपने गालों पर मलना शुरू करू दिया। सिध्दांत शांत खड़ा रूपा के इशारों पर नाच रहा था। रूपा ने अपना सिर सिद्धांत के सीने पर रख दिया। रूपा चाहती थी कि सिध्दांत उसकी बैक लेस पीठ पर अपने हाथों की हथेलिया रख दें। यह उसकी पहली जीत होगी।


होली की हुडदंग जारी थी। गली-गली में रंग भरे नगमें जोर-शोर से बजाएं जा रहे थे। बंद कमरे में रूपा अपना सबकुछ सिद्धांत पर लुटा देना चाहती थी।


फाल्गुन में बाहर के मौसम की गर्मी से अधिक दोनों के तन की गर्मी तीव्र हो चूकी थी जो सबकुछ पिघलाने को आतुर थी।


रूपा मुस्कुरा रही थी क्योंकि वह अपनी जीत के लक्ष्य  पर बस पहूंचने ही वाली थी। तब ही सिध्दान्त ने अपनी जेब से गुलाल निकाला और रूपा की मांग पर उड़ेल दिया।


"अब तुम मेरी हो रूपा! होली हैsss!" सिद्धांत लम्बे स्वर में बोला। वह मुस्कुराकर होली के गीतों पर झूम रहा था। 


सिध्दान्त द्वारा अपनी मांग भरने पर रूपा हदप्रद थी। उसने जैसा सोचा सिद्धांत ने वैसा कुछ नहीं किया। सिध्दांत ने रूपा का हाथ थामा और उसे नगर की चौपाल की तरफ लेकर बड़ा।


होली खेल रहे वहां उपस्थित लोगों की आंखें फटी की फटी रह गयी। रूपा की मांग में सिध्दांत के नाम का सिन्दूर था। रूपा को पाकर सिद्धांत का गर्व सातवें आसमान पर पहूंच चूका था। रुपा ने भी सिद्धांत को स्वीकार कर लिया था। आज पहली बार उसका गुलाबी चेहरा स्वाभाविक रूप से शरमा रहा था।


समाप्त

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प्रमाणीकरण- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमति है।


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जितेन्द्र शिवहरे (लेखक/कवि)

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टिप्पणियाँ

  1. कहानी मे यथार्थ भी है कहानी कथानको की आधार पर बनती है लिखी जाती है होली विषय को लेकर रोज मर्रा की बातें शामिल है कुछ कथाऐ पौराणिक घटनाओ पर बनती है और कुछ जीवन घटित घटनाओ पर भी बनती है इह कहानी मे ठिठोली है हसी मजाक है पर कहानी की उचाई को इस कहानी ने नही छुआ सारगर्भित कहानिया ही सफल और अमरता पाती है
    वि प्र उर्फ चकोरचतुर्वेदी
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    8962436556

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