तहखाने का खजाना और भूत
तहखाने का खजाना और भूत
बाल-कहानी
सुरतीपुरा गांव के सभी लोग जानते थे कि नदि के पास पुरानी हवेली के तहखाने में हीरे मोतियों से भरा खजाना छुपा है। गांव में हर कोई उस खजाने को हासिल करना चाहता था मगर तहखाने में भयंकर भूत का राज था। इसलिए डर के मारे कोई वहां आता-जाता नहीं था।
कईयों ने खजाने को हासिल करने की कोशिश की थी मगर हवेली के तहखाने में जाने के बाद कभी कोई लौटकर नहीं आया।
गांव के बुढ़े-पुराने लोग बताते है कि हवेली के राजा महेन्द्र सिंह ही भूत बनकर आज तक उस खजाने की रखवाली कर रहे है। महेन्द्र सिंह को खजाने के लालच में राज्य के सेनापति दुर्जन सिंह ने धोखे से मार दिया था और उनकी लाश को हवेली के तहखाने में गाड़ दिया था। मरने के बाद दुर्जन सिंह भूत बनकर तहखाने में कैद हो गये। जब सेनापति दुर्जन सिंह ने खजाने का रहस्य पता किया और उसे यह मालूम हुआ की राज्य का ढेर सारा बेश किमती खजाना हवेली के तहखाने में है तब उसने तांत्रिक भानु को बुलावाया।
भानू ने सेनापति से कहा - "महेन्द्र सिंह की लाश को तांत्रिक विद्या से जगाना पड़ेगा क्योंकी अब महाराज की लाश ही बता सकती है की खजाना तहखाने में कहां छुपा है।"
तांत्रिक भानु ने हवेली के तहखाने में जाकर महाराज महेन्द्र सिह की लाश को जमीन से खोदकर बाहर निकाला। सेनापति भी उसके साथ ही था। इससे पहले की तांत्रिक भानु महेन्द्र सिह की लाश से कुछ पूंछता महेन्द्र सिंह की लाश भुत बनकर सामने आ गयी।
"सेनापति दुर्जन सिंह! तुने खजाने के लालच में मुझे धोखे से भार दिया था। अब मैं तुझे जिन्दा नहीं छोडूंगा।" महेन्द्र सिंह के भूत ने सेनापति दुर्जन सिंह से कहा।
"भागों सैनापति जी! महाराज का भूत मेरी तांत्रिक विद्या के नियंत्रण में नहीं आयेगा। जान बचाना है तो भागो।" तांत्रिक भानु जोर से चिल्लाया और भागने लगा।
सेनापति दुर्जन सिंह भी वहां से भागने की कोशिश करने लगा।
मगर महाराज महेन्द्र सिंह की भूत ने हवा में उड़ते हुये सैनापति को पकड़ लिया।
"मुझे छोड़ दीजिए महाराज। मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गयी। मुझे माफ कर दीजीए।" सेनापति दुर्जन सिंह गिड़गिड़िते हुये बोला।
मगर भूत बने महाराज ने सेनापति दुर्जन सिंह की एक न सुनी। भूत ने महाराज के पेट में अपने नुकीले हाथ के पंजे घुसा दिये।
"आहहहहहह! अरे मर गया रे।" सेनापति दुर्जन सिंह चिल्लाया और वह कुछ देर में मर गया।
तांत्रिक भाग पाता इससे पहले ही तहखाने का दरवाजा बंद हो गया। भूत ने तांत्रिक को भी मार दिया।
बहुत सालों बाद एक नौजवान खजाने की खोज करता हुआ तहखाने में दाखिल हुआ।
"कौन हो तुम! चले जाओ यहाँ से वर्ना मारे जाओगे।" भूत ने नौजवान अमर से कहाँ।
"मैं इस गांव का नया मुखियां हूं। गांव वालो ने मिलाकर मुझे संरपच बनाया है। मैं शहर से पढ़ाई करके अपने गांव और गांव वासियों की सेवा करने आया हूं। मगर गांव में धन की कमी है जिससे यहां का विकास नहीं हो पा रहा है। गांव में पक्की सड़कें नहीं है। बिजली, पानी और स्कूल भी नहीं है। अगर आप खजाने में से थोड़ा धन गांव के विकास के लिए दे दें तो आपकी बड़ी मेहरबानी होगी।"
अमर ने भूत से कहा। उसके पीछे-पीछे गांव के कुछ लोग भी वहां आ गये।
"हां अमर सही कह रहा है! अमर सही कह रहा है!" वे लोग ऐसा बोलकर नारे लगाने लगे।
"आज तक जो भी खजाना लेने तहखाने में आया वह अपने लिए खजाने के धन उपयोग करना चाहते था। मगर तुम पहले इंसान हो जो गांव के विकास के इस खजाने के धन उपयोग करना चाहते हो। जाओ! जितने धन की आवश्यकता है खजाने से ले जाओ। गांव के विकास में कोई कमी नहीं आनी चाहिए।" महेन्द्र सिंह के भूत ने कहा।
सभी खुश हो गये।
"महाराज की जय" "महाराज की जय" के नारे लगने लगे।
तहखाने का खजाना अमर जैसे सच्चे और अच्छे इंसान के हवाले कर महेन्द्र सिंह का भूत हमेशा-हमेशा के लिए उस गांव से चला गया।
अमर ने हवेली को हास्पीटल बना दिया ताकि गांव वालों को इलाज के लिए शहर न जाना पढ़े। उसने खजाने के उपयोग से बिजली, पानी और सड़क की व्यवस्था करवा दी। गांव में एक बड़ा स्कूल खोला गया। देखते ही देखते सुरतीपुरा गांव की कायापलट हो गयी।
जितेन्द्र शिवहरे
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