महिला सीट

 महिला सीट  (कहानी) - जितेन्द्र शिवहरे

            *ल* ड़की देखने-दिखाने की तैयारी पूरी हो चूकी थी। सभी जूही की प्रतिक्षा में पलक पावड़े बिछाये बैठे थे। पहली बार में समपर्ण सभी को अच्छा लगा था। 


"अब बस जूही हां कर दे तो इन दोनों की शादी धूमधाम से कर दें।" सुलोचना बोली। हर मां की तरह सुलोचना भी अपनी बेटी की शादी के लिए चिंतित थी। 


"जूही की हां के साथ हमें उसकी न का भी सम्मान करना चाहिये।" शिवराम बोले। 


"आपके इसी समर्थन के कारण सुलोचना अब तक कुंवारी बैठी है। उसकी हमउम्र सहेलियां बाल-बच्चों वाली हो गयीं।" सुलोचना चिढ़ते हुये बोली।


शिवराम के पास पत्नी सुनोचना की इस बात का उत्तर मौन था।


हेंडसम समपर्ण की मुस्कान वहां सभी को आकर्षित कर रही थी। 



समर्पण सरकारी नौकरी में था। इसलिए लड़की वाले कोई रिस्क नहीं लेना चाहते थे। जूही को पहली बार में देखते ही समर्पण अपना दिल हार बैठे, मां सुलोचना की इसी योजना पर जूही काम रही थी।


'जूही का मेकअप पुरा हो चूका है और वह पार्लर से घर आने के लिए निकल चूकी है।'


किसी ने आकर सभा में ये संदेश कह सुनाया।


समपर्ण और उसके माता-पिता को दिया गया यह अंतिम दिलासा था। स्वयं समपर्ण अंतिम दस मिनीट की प्रतिक्षा के बाद वहां से बेरंग लौटने का निश्चय कर चूका था।


संजी-धंजी जूही के आते ही उसके सौन्दर्य की प्रशंसा शुरू हो गयी। उसके रिश्तेदार जूही को स्वर्ग की अप्सरा कहने से भी नहीं चूके। सत्यम और निशा की खुशी अपने बेटे की खुशी में थी। यदि समपर्ण इस रिश्ते के लिए यदि हां कहता तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी।


समपर्ण की मुस्कान गायब हो गयी। जूही को देखकर उसके पसीने छूट गये। जूही से एकांत में मिलकर बातचीत के प्रस्ताव पर भी वह टालम-टोल करने लगा।


दोनों ओर से अपने पहचान के रिश्तेदारों के नाम अब भी गिनाए जा रहे थे। अपना दबदबा बनाने की हर संभव कोशिश जारी थी। इसी बीच निशा ने वहां से लौटने की अनुमति मांग ली। सभी चौंक गए। क्या जूही उन्हें पसंद नहीं आई? ये प्रश्न हर मेजबान के चेहरे पर था जिसका जवाब सत्यम जी ने कुछ दिनों के बाद देने का कहकर वहां से विदा ली।


जूही को देखकर समर्पण जितना आश्चर्यचकित था उतना ही जूही भी। बहुत सोचने पर भी उसे स्मरण नहीं आ रहा था कि उसने समर्पण को आखिर कहाँ देखा था?


सफेद बादलों की पृष्ठभूमि के बीचो-बीच एक ऊंचा सिंहासन दिखाई दिया। अंतरिक्ष में ग्रह-नक्षत्र यहाँ से वहां दौड़ लगा रहे थे। राजा इन्द्र की भांति वह सुकुमार सिर्फ मुस्कुराने में व्यस्त था। जूही दबे पांव सिंहासन की तरफ बढ़ने लगी। वह राजकुमार का चेहरा नजदीक से देखना चाहती थी।


उस युवा तरूणाई की मुस्कुराहट हृदय भेदी और जानी पहचानी थी।  मगर जूही राजकुमार के दर्शन कर पुनः दुविधा में डूब गयी।


'ये तो वहीं है जो शादी के लिए मुझे देखने आया था।' जूही सोच रही थी। 'मगर ये है कौन? जो बार-बार मेरे सामने आ रहा है?"


'अरे! ये तो वही है! हां! ये वहीं है!' जूही जोर लगाकर बोली।


"कौन क्या है? क्या बड़ाबड़ा रही है? चल उठ! ऑफिस नहीं जाना है?" सुलोचना बिस्तर पर पढ़ी चादर समेटती हुई बोली।


'ओहहह! तो यह सपना था!' जूही मन ही मन बोली। 


बिस्तर से उठकर वह ड्रेसिंग टेबल के नजदीक पहूंची। आईने में बाल संवारने हुये जूही अब भी सुबह के स्वप्न के बारे में सोच रही थी। 

जिसमें उसे समर्पण के दर्शन हुए थे। मुस्कुराता हुआ समर्पण उसके दिलो दिमाग पर हावी था। आखिर समपर्ण की गलती ही क्या थी? महिला सीट पर ही तो बैठा था वह। इतना बड़ा गुनाह भी नहीं किया था उसने, जिसके एवज में उसे थप्पड़ जड़ दिया जाए! समपर्ण की वह गलती जो उस समय बहुत बड़ी थी आज वही जूही को बहुत छोटी और आम लग रही थी, जिसके लिए समर्पण को आसानी से माफी दी जा सकती थी।


'क्या उस थप्पड़ के कारण समर्पण ने उसे रिजेक्ट कर दिया?' सोच के भंवर में डूबी जूही के मन-मस्तिष्क पर बैठा समपर्ण उसके साथ ऑफिस भी आ पहूंचा था।


व्याकुलता के भाव जूही के चेहरे पर हर किसी ने नोट किए थे।


"तु उससे मिलकर सबकुछ क्लीयर क्यों नहीं कर लेती?" सृष्टि बोली। लंच में सृष्टि और जूही साथ ही बैठे थे। विचारों में खोयी जूही को सृष्टि का प्रस्ताव पसंद आया।

आगे अब जो भी हो, वह हर हाल में समर्पण से मिलकर रहेगी।


"यही सही रहेगा सृष्टी! अब ये बैचेनी मुझसे सही नहीं जा रही।" जूही बोली।


मगर समर्पण से संपर्क करना इतना कठिन होगा उसे पता ही नहीं था। बहुत ढूंढने पर भी उसे समर्पण नहीं मिला। अंततः एक मध्यस्थ व्यक्ति का पता खोजकर जूही उससे मिलने जा पहूंची। रामपाल वही व्यक्ति था जिसने समर्पण और जूही के रिश्ते की बात चलाई थी। समर्पण का पता-ठिकाना बताने में रामपाल आनाकानी कर रहा है यह बात जूही जान चूकी थी। डराने-धमकाने पर भी रामपाल ने गोल-मोल जवाबों से जूही को उलझाएं रखा। रामपाल द्वारा बताये गये पते पर समर्पण नहीं मिला। जूही झल्ला उठी। उसे समर्पण पर अब गुस्सा आ रहा था। सुलोचना के पास अब भी कुछ अच्छे रिश्ते थे मगर समर्पण की स्थिति स्पष्ट होने तक जूही ने उन्हें होल्ड पर रखा था। 


बस में चढ़ते ही जूही को अपनी आखों पर विश्वास नहीं हुआ। सामने समपर्ण बैठा था, वह भी महिला सीट पर। अब वह क्या करें? क्या नहीं? यही सोच रही थी। तब ही एक अन्य युवती ने समर्पण को महिला सीट खाली करने को कहा। समर्पण तैयार नहीं था। युवती गुस्से में आकर ड्राइवर से बस रोकने का बोलने लगी। बस के ब्रेक लगते ही महिला यात्री समर्पण पर हल्ला बोल उठी। कान पकड़कर समर्पण को महिला सीट छोड़नी पड़ी। कंडक्टर ने बताया कि ये माॅक डिल थी जो परिवहन विभाग का एक नवाचार था। परिवहन अधिकारी समर्पण के साथ कुछ महिला स्टाॅफ भी था। संवारियों ने तालियां बजाकर समपर्ण का अभिनन्दन किया।


'इसका मतलब उस दिन भी समर्पण नाटक कर रहा था!' जूही स्वयं से बोली।

'ओहहह! माय गाॅड! और मैंने समर्पण को सच में थप्पड़ जड़ दिया!' जूही आत्मग्लानी में डूब गयी।


"आप मुझे बिल्कुल समझ नहीं आये? इतना संस्पेश?" जूही, समपर्ण से बोली। 


दोनों बस से उतरकर सड़क किनारे पैदल चल रहे थे।


"आपके थप्पड़ ने मुझे डरा दिया था। इसलिए आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं हुई।" समर्पण ने कहा।


"तब क्या मुझे भूल जाते!" 


"शायद नहीं!"


"क्या मैं आपको पसंद हूं?" 


"बहूत!"


चाय की चुश्कियों के बीच ढलता सूरज घर बुला रहा था।


"अच्छा! तो मैं चलती हूं।" जूही ने कहा।


"क्या इस सफर को हम जारी रख सकते है?" समर्पण ने पूँछा।


"इसके लिए आपको मम्मी-पापा से पूंछना होगा।" 


"और तुमसे?"


"मैं समझी नहीं?"


"क्या मैं तुम्हें पसंद हूं?"


"पहले नहीं थे!"


"और अब?" समर्पण जानने को आतुर था।


शर्म के गहने से लिपटी जूही के शब्द लड़खड़ा रहे थे।


"आपकी मुस्कुराहट बहुत अच्छी है समपर्ण! और मैं चाहती हूं आप हमेशा ऐसे ही हंसते रहे!" जूही बोली।


वह जानती थी कि समपर्ण की खुशी जूही के साथ थी इसलिए उसने समर्पण की प्रसन्नता की शुभकामनाएं कर डाली। 


जूही की सहमति ने समर्पण की बाहें आकाश तले खुलवा दी, जिसके इर्द-गिर्द जूही का समर्पण उन दोनों के एक हो जाने का स्पष्ट संदेश था।


समाप्त


लेखक-

जितेन्द्र शिवहरे मुसाखेड़ी इंदौर 

8770870151

7746842533

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