नौलखा हार - कहानी

 नौलखा हार   (कहानी)        ✍️जितेन्द्र शिवहरे

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"सुनो जी! अम्मी जान कुछ मांगने आये तो मुंह खोल कर सब कुछ लुटा मत देना।" नाज़िया तेवर चढ़ाते हुये बोली।


"तुम फिक्र मत करों। अम्मी ज्यादा कुछ नहीं मांगेगी।" नावेद बोला। वह अपने लेपटाॅप में बिजी था।


"पहले ही अपनी बहनों को घर का सारा सोना चढ़ा आये। उस पर बहनोईयों को लाखों का नकद खैरात में दे  दिया। और ये अब कब्र में पैर लटकाये बैठी अम्मीजान! कहीं मेरा नौलखा हार न मांग ले।" नाज़िया चिढ़ते हुये बोली।


नावेद आदतन चुप था।


"अरे! पुश्तैनी जेवरात बैंक से क्या छुड़ाकर लाएं! सभी आ गये अपना-अपना हक़ मांगने।" नाज़िया अब भी चीख रही थी।


"नाजिया! पांच साल के बाद तुम अपनी सास से मिल रही हो। कुछ तो नरमी लाओ लिहाज में।" नावेद ने कहा।


"हूंअंssss! नरम लाएं मेरी जूती। मैं अब चुप नहीं रहूंगी।" 



तब ही दरवाजे की घंटी बज उठी। ये अम्मीजान ही थी। आंखों पर मोटा चश्मा पहनें! जिस पर सफेद बिखरे बालों की लटे झूम रही थी।


दुंआ सलाम के बाद आखिर वो घड़ी आ गयी जिसके कारण नाज़िया की सांसे ऊपर-नीचे हो रही थी। नावेद की बेपरवाह खातिर-ओ-तवज्जों पाकर बूढ़ी आँखे छलक पड़ी। 


"बरखुरदार! तुने सबको मन माफिक दिया। क्या अपनी अम्मीजान को भी कुछ मिलेगा?" अम्मीजान बोली।


नाज़िया को काटों तो खून नहीं था। पैर पटकते हुये वह अंदर भागी। नावेद पीछे-पीछे उसे मनाने दौड़ा।


"मैं न कहती थी, गांव से इतनी दूर अम्मीजान कुछ न कुछ लेने आई है।" नाजिया गुस्से में थी।


"तु सच कह रही है बहू! मैं तुझसे तेरी सबसे बड़ी दौलत लेने आई हूं।" अम्मीजान भी भीतर के कमरे में आ पहुंची।


"देखीये अम्मीजान! साफ-साफ कहे देती हूं। अब हमारे पास कुछ नहीं बचा। जो कुछ था सभी आपके बेटे-बहू ले भागे।" नाज़िया ने कड़क लहजे में कहा।


"नहीं बेटी। अब भी तेरे पास बेहद कीमती चीज़ है।" अम्मीजान बोली।


नाजिया को यकिन हो गया कि अम्मीजान वह बेशकीमती नौलखा हार की बात कह रही है।


"अरे अम्मी! तुम्हें क्या चाहिये बताओ तो सही।" नावेद बोला।


"हां! हां! जो मन में दबाये बैठी है अब मूंह खोलकर बता भी दीजिये।" नाजिया बोली।


"बेटा मिलेगा क्या?" अम्मीजान बोली।


"क्या कहा? मैं समझी नहीं?" नाजिया ने पूंछा।


"पांच साल से तन्हा जिन्दगी काट रही हूं। नावेद के अब्बू के इंतकाल के बाद वह पुश्तैनी घर अब काटने को दौड़ता है। नावेद भी तो अब गांव आता-जाता नहीं।"


अम्मीजान का गला भर आया था।


"महिने में एक दिन के लिए सही अगर नावेद मेरे पास आये तो मेरे ये आखिर दिन इतने मुश्किल न हो!" 

अम्मीजान चूप हो गयी।


अम्मीजान ने नाज़िया से असली दौलत क्या मांग ली, नावेद उनके कदमों से लिपटकर फूट-फूट कर रोने लगा। जैसे वह अम्मीजान से अपने किए की माफी मांग रहा हो।


बरबस ही नाजिया का हाथ पास ही खड़े अपने बेटे रिहान के सिर पर चढ़ बैठा। नाजिया को भी आज अपनी असली दौलत का अहसास हो चुका था।  


लेखक:-

जितेन्द्र शिवहरे मो. 8770870151

मुसाखेडी इंदौर मो. 7746842533

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