मेरा साथ दोगे..?

 


मेरा साथ दोगे..?   (कहानी)


✍️जितेन्द्र शिवहरे 


              सुमन के रिश्तें की बात ने जब जोर पकड़ा तब नितेश को आगे आना ही पढ़ा। नितेश के परिवार में सुमन सभी को पसंद थी मगर सुमन के घरवाले नितशे को लेकर असमंजस्य में थे। क्योंकी नितेश के संबंध में कई बार चर्चा करने पर भी सुमन का कोई विशेष झुकाव नितेश के प्रति कभी दिखाई नहीं दिया। सुमन को पता था कि आज नहीं तो कल नितेश उसका हाथ मांगने जरूर आयेगा। नितेश ने कभी कहा नहीं लेकिन सुमन के लिए उसके दिल में कुछ तो था जिसे सुमन काॅलेज के समय से नोट करती आ रही थी। आज वह सीए बन चूकी थी और नितेश एक मेडीकल फर्म में एकाउंटेंट का काम संभाल रहा था। 


एक दिन अचानक सुमन की एक विशेष मांग ने घर में लगभग सभी का चौंका दिया। वह चाहती थी कि नितेश शुरू से ही अपने मां-बाप से अलग होकर शादी के बाद केवल उसके साथ रहे ताकी उन दोनों के भावि गृहस्थ जीवन में कोई परेशानी उत्पन्न ही न हो। 


नितेश का मौन अवसरवादी था किन्तु पिता की इस संबंध में सहमति जानकर उसके हौंसले बुलंद हो गये। नितेश की मां कभी नहीं चाहती थी कि ऐसा हो मगर अपने पति की समझाईश पर उसे चूप रहना पड़ा। 


मां का मौन रुपी करूण रूदन जारी था, जिसके कारण नितेश अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना चाहता था किन्तु उसके पिता ने एक बार फिर उसे यहां आकर संभाला। उन्होंने अपनी दलील में कहा कि जो कल होने वाला है उसे अभी स्वीकार कर लेने से न केवल भावि दु:ख और परेशानी कम होगी बल्कि आगे आने वाली मुसीबतों से डटकर सामना करने की शक्ति भी मिलेगी।


नितेश चाहता था कि वह सुमन से एक बार व्यक्तिगत मुलाकात करें। बमुश्किल सुमन ने सहमति दी। नितेश का केवल एक ही प्रश्न था और उसके जवाब में इस शादी की तिथि निर्धारित होनी थी। सुमन का डर उसकी आंखों में साफ दिखाई देने लगा था। यह उसकी बड़ी बहन अंजना के वैवाहिक जीवन के उत्तरार्ध में उपजे तनाव के इर्द गिर्द चक्कर काट रहा था। अंजना और सुदेश की शादी चौदह वर्षों की थी लेकिन एक दिन दोनों के तलाक प्रकरण ने इतना तूल पकड़ा कि किसी को रत्तीभर भी यकिन नहीं हुआ।


जिस अंजना और सुदेश के सुखद वैवाहिक जीवन की लोग मिशाले दिया करते थे उन दोनों का यूं अचानक तलाक के लिए कोर्ट की शरण लेना एक महान आश्चर्य का विषय था। इससे भी आश्चर्यचकित करने वाली बात ये थी कि सुदेश और अंजना एक-दूसरे को कभी फूटी आँख नहीं भाये। ऐसा कोई दिन न गया हो जब उनके बीच आपसी मन मुटाव न हुआ हो किन्तु दोनों ने इस शीत युद्ध की भनक भी किसी को लगने न दी। इसके पीछे दोनों की एक राय थी। उन्हें अपना  तमाशा नहीं बनाना था। इसिलिए दोनों सामाजिक रूप से एक साथ प्रसन्नित दंपति होने का ढोंग रचते रहे। 


अंजना की आप बीती सुमन को भयभीत करने के लिए पर्याप्त थी। एक यही वजह थी जिसके कारण सुमन ने नितेश को एकल परिवार में रहने की शर्त रख डाली। पूरा वाकया सुनने के बाद नितेश की साहनुभूति सुमन के साथ थी। उसने हर तरीके से सुमन को समझाया लेकिन सुमन अपने पूर्व निर्णय पर अडिग थी।


सुमन की बातें नितेश के कानों में गूंज रही थी। उसने अपने पिता को यह सब बताया। उन्होंने नितेश को कुछ समय शांत रहने की सलाह दी। उनकी राय थी कि सुमन को आत्म मंथन का कुछ समय देना चाहिए। हो सकता है आगे कुछ ओर बेहतर हो जो दोनों के रिश्तें की शुरूआत के लिए मील का पत्थर साबित हो।


उस दिन सुबह मंदिर में नितेश के पिता को देखकर सुमन ने सिर ढक लिया। शिवलिंग पर एक लोटा जल चढ़ाने के बाद शिष्टाचार वश सुमन ने अपने होने वाले ससूर के पैर छूए।


उन्होंने सुमन से कहा, "हमारी तरफ से नितेश को पूरी स्वतंत्रता है। तुम दोनों खुशी-खुशी एक साथ रह सकते हो!" 


सुमन को जैसे ईश्वर का आशीर्वाद मिल गया हो। वह प्रसन्न होकर बोली, "हम बीच-बीच में आपके दर्शनों को आते रहेंगे और आप दोनों की देखभाल की पूरी जिम्मेदारी भी हमारी ही होगी!" 


नितेश के पिता मुस्कुरा दिए और 'खुश रहो' का आशीर्वाद देते हुये वहां से चले गये। सुमन स्तब्ध थी। अपने होने वाले ससूर की यह अजीब मुस्कुराहट उसे बैचैन कर गयी। सुमन का गुमसुम चेहरा आत्म मंथन का संकेत दे रहा था। घर लौटी तो टीवी पर लड़ रही सास-बहु ने सुमन को आकर्षित किया। ननद की कारस्तानी का खामियाज़ा बहू को भुगतते हुये देखकर सुमन को अपने निर्णय पर कुछ राहत अवश्य मिली। ऊपर से नाटकीय पति का अपनी मां के प्रति झुकाव भी उसे पसंद नहीं आया। खुद को संभालते हुये वह घर के कामकाज में व्यस्त हो गयी।


कुछ दिनों बाद पुनः नितेश के पिता से सुमन की मंदिर पर भेंट हुई। इस बार उसकी होने वाली सास भी थी। सुमन ने दोनों को प्रणाम किया। 


"शादी की तारीख पर तुम्हें अपनी पसंद ना पसंद बता देना चाहिये।" सुमन की सास बोली।


"अरे नहीं, नितेश की मां! इतनी भी जल्दी क्या है? उसे जब ठीक लगे तब हो जायेगी शादी भी।" सुमन के होने वाले ससूर ने बीच में कहा।


"आप लोग मुझे गल़त न समझें। मैं कुछ भी तय नहीं कर पा रही हूं। मन बहुत ही अशांत है।" सुमन बोली।


"ये ज्यादा सोचने का परिणाम है। किसी निर्णय पर जल्दी पहूंचना ही तुम्हारी इस समस्या को खत्म कर सकता है।" सुमन की सास बोली।


"ये सही बात है।" नितेश के पिता बोले।


सुमन चूप थी। सास-ससुर की समझदारी वाली बातें उसे लुभा रही थी। और नितेश तो उस पर लट्टू था, वह हर तरीका अपनाकर सुमन के साथ रहना को तैयार था। नितेश के माता-पिता अपने इकलौते बेटे का घर बसाने के लिए उसे अपने से दूर भेजने के लिए भी तैयार थे। इन सबके बाद भी सुमन खुश क्यों नहीं थी? क्यों वह बाकि लड़कीयों की तरह अपनी शादी की तैयारियों में रम नहीं पा रही थी? कुछ तो खालीपन था जो उसे सहन नहीं हो रहा था।


रविवार की सुबह सुमन को घर आया देखकर नितेश खुशी से खिल उठा। सुमन के सास-ससुर ने उसकी अगवानी की। बहू को बेटी की तरह लाड-प्यार मिला। जीवन की यह वास्तविक सच्चाई सुमन की आंतरिक प्रसन्नता का कारण बना। उसे अपने होने वाले ससुराल आकर थोड़ी राहत तो जरूर मिली। सुमन की जेठानी भी वहाँ आ पहूंची। वह कुछ मकान छोड़कर ही रहती थी। ननद की मसखरी का स्वाद आज पहली बार सुमन ने चखा। उसकी अपनी मां से कानफूसी और बड़ी बहू से नोंक-झोंक सुमन को आज बिल्कुल भी बुरी नहीं लगी। इन रिश्तों के बिना बहू का एकांत जीवन उतना आनन्दित और रोमांचक कभी नहीं हो सकता, यह बात सुमन को समझ में आयी। यहाँ सबसे ज्यादा जरूरी कड़ी नितेश था जो अगर अपने परिवार और सुमन के बीच उचित सामंजस्य बनाकर चले तो कभी कोई लड़ाई-झखड़ा बड़ा रूप कभी नहीं ले सकता। सुमन ने नितेश कहां,  "इन रिश्तों को संभालने में मेरा साथ दोगे ?" 

सुमन का हाथ आगे आया।

नितेश कुछ पलों के लिए सोच में डूब गया। अंततः उसे सुमन की योजना समझ आ गयी। उसने कहा, "मैं तुम्हारे साथ हूं।"


बस फिर क्या था! उसी शाम दोनों का रोका रख दिया गया। सगाई और फिर शादी की तिथि घोषित होते ही चारों ओर खुशियाँ ही खुशियाँ पसर गयी। 



समाप्त


जितेन्द्र शिवहरे इंदौर 

8770870151

7746842533


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