खरीद्दारी- लघुकथा
*खरीद्दारी - लघुकथा*
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✍️ *जितेन्द्र शिवहरे*
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*अनुज* सिर झुकाएं मां की डांट खा रहा था। आज लौकी भी खराब निकली थी। परसों की पपीता भी इतनी पिलपिली थी की कोई खा नहीं सका था। सारी की सारी फेंकनी पड़ी थी।
"आखिर ये नुकसान होते हुये आप कब तक देखते रहेंगे?" रमा चाहती थी की अनुज के पिता खरीददारी की परम्परा गत जिम्मेदारी फिर से अपने हाथ में ले लें।
"अनुज की मां! पानी में उतरे बिना कोई तैरना सीखा है भला?" कांमता प्रसाद का यह जवाब रमा को पसंद नहीं आया।
ये तो अब आये दिन की बात हो गयी। अनुज की छुट्टीयां अक्सर खरीददारी में बितती। कपड़ों की उसे कोई खास परख नहीं थी। मगर स्वयं के लिए ये उसे ही खरीदने होते थे। कृषि की पढ़ाई करने के बावजूद उसे फल और सब्जियां खरीदना अब तक नहीं आया था। इलेक्ट्राॅनिक सामान अनुज से खरीदवाना मतलब पैसों की बर्बादी! रमा जब-तब गुस्से में आ जाती। मगर कांमता प्रसाद ने ध्यैर्य नहीं खोया।
अच्छे और खराब की परख अब अनुज को स्वयं करनी थी। क्योंकि रोज-रोज उसकी काबिलियत पर उंगलियाँ उठाई जा रही थी। थोड़ा समय लगा और व्यर्थ पैसा भी किन्तु धीरे-धीरे उसे ये समझ में आ गया कि सिर्फ एजूकेशन में अव्वल होना ही काफी नहीं था। सामाजिक दायित्वों में भी पारंगत होना बहूत जरूरी है। इसके लिए उसे अपनी पारखी नज़र और तेज़ करनी होगी। और अतीत में हुये नुकसान को हर पल ध्यान में रखना होगा। वस्तु और सेवाओं का सूक्ष्मता से निरीक्षण करना तथा उनकी अपने तथा परिवार के लिए उपयोगिता की पहचान करते हुये उत्तम क्वालिटी की चीजें खरीदने की आदत बनानी होगी। क्रय की जाने वाली वस्तु तथा सेवाओं का बेहतर विकल्प भी खोजना होगा ताकी बाजार में अच्छी चीजों के विक्रय के लिए प्रतियोगिता बनी रहें जिससे ग्राहकों को बेहतर सुविधा मिलें।
एक दिन वह भी आया जब रमा स्वंय चाहती थी कि अनुज ही घर की सारी खरीद्दारी करें। उसकी नई नवेली दुल्हन आनन्दी अपने पति के इस गुण की कायल हो चूकी थी। इतना ही नहीं पड़ोसी और रिश्तेदार भी खरीद्दारी के लिए अनुज से सलाह मशविरा करना नहीं भूलते।
एक बेहतर लोक सेवक के बाद अब अनुज की सामाजिक पहचान भी चर्चा का विषय थी।
लेखक-
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जितेन्द्र शिवहरे इंदौर
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