रात वाली टीचर (कहानी)

 रात वाली टीचर  (कहानी)

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      बच्चों के मुख पर यह नाम ऐसा चढ़ा की सुगंधा को रात  वाली टीचर सुनने की आदत सी हो गयी। मलीन बस्ती के लापरवाह मां-बाप के बच्चों को पढ़ाने में सुगंधा को अजीब सा आत्मीय सूख मिलता। उस आनन्द को प्राप्त करने वह हर रात इंदिरा नगर जाकर बच्चों को पढ़ाना नहीं भूलती। अगले दिन निजी स्कूल में जाकर पढ़ाना उसकी दैनिक दिनचर्या थी।


बस्ती के लोग भी खुश थे। क्योंकि बच्चें दिन में काम - धंधा करते और रात मे पढ़ाई-लिखाई। विद्यार्थी जब बोर्ड कक्षाओं में पहूंचने लगे तब सुगंधा उस कठिन समय को भूल गयी जो उसे सर्वप्रिय बनने में सहना पड़ा।


बस्ती के कुछेक शराबी हर समय सुगंधा पर नज़र जमाये रहते। वह यह सब नजर अंदाज किये हुये थी। उसकी डांट-डपट से ये लोग डर भी जाते। इसलिए सुगंधा को खतरे वाली कोई बात कभी महसूस नहीं हुई।


उस दिन वह लव लेटर पाकर सुगंधा के अलावा बस्ती के सभी लोग गुस्से में थे। युवराज को खोजना मुश्किल था। क्योंकि उसे आभास ही नहीं हुआ की ये बात इतनी बढ़ जायेगी। सुगंधा ने युवराज को ढूंढ निकाला। उसने युवराज को बड़े स्नेह से समझाया की लव लेटर में उसने अक्षरों और मात्राओं की कितनी गलती की है। और इतना ही नहीं अनपढ़ युवराज से वह तो क्या कभी कोई खुबसूरत लड़की प्यार नहीं करेगी। यह बात युवराज के मन में घर कर गयी। अब वह भी मोहल्ला क्लास का एक अनुशासित विद्यार्थी था।  


बस्ती के प्रौढ़ों को जब समय मिलता मोहल्ला क्लास में  आकर पढ़ना लिखना सीखते। सुगंधा उन्हें पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ स्व रोजगार तथा अन्य सरकारी योजनाओं की जानकारी देती। इसके साथ उन योजनाओं का लाभ दिलाने में भी वह बस्ती वासियों की भरसक मदद करती।


सुगंधा के एनजीओ में अब कुछ ओर काॅलेज के स्टूडेंट  सम्मिलित हो गये। उनका साथ पाकर सुगंधा का मनोबल सातवें आसमान पर था। रात में बस्ती की रोनक देखते ही बनती थी।


सुगंधा की सगाई वाले दिन बस्ती वाले हैसियत अनुसार उपहार लेकर पहूंचे। सुगंधा ने सभी का स्वागत परिवार की भांति ही किया। अनमोल को पहले पहल ये सब अच्छा नहीं लगा। लेकिन सुगंधा की लगन देखकर उसे झुकना ही पड़ा। 


फिर वह दिन भी आया जब सुगंधा के साथ हुये उस अमानवीय हादसे ने बस्ती की लोगों के प्रति लोगों की संवेदना ही खत्म कर दी। सरकारी अमला उन शराबी युवकों के कच्चे-पक्के मकान धवस्त करने निकल पड़ा जिन्होंने सुगंधा की अस्मत को तार-तार किया था।


हाॅस्पीटल में अचेत सुगंधा इस बात से बेखबर थी। उत्तेजित भीड़ ने सरकारी कार्यवाही के पहले ही राक्षसों के घर में आग लगा दी। देखते ही देखते पूरी बस्ती आग के हवाले हो गयी। लोग जैसे-तैसे जान बचाकर भागे। सैकड़ों लोग जल भुन गये। कुछ जो भाग न सके वो वहीं राख का ढेर हो गये।


पुलिस के लिए स्थिति पर नियंत्रण और भी कठीन हो जाता जो अगर सुगंधा शांति की अपील न करती।


कटघरे में खड़े अपराधी दया की भीख मांगते रहे। जिसमें दो नाबालिक भी थे। सुगंधा का बयान चौंकाने वाला आया। वह चाहती थी कि सभी अपराधियों को रिहा कर दिया जाएं। क्योंकि दोष केवल इन लोगों का ही नहीं है। इसमें इनके बा-बाप, ये समाज और सत्ता भी जिम्मेदार है।


दोषियों के माता-पिता ने बच्चों को पाल पोसकर बढ़ा तो किया लेकिन उन्हे मां-बहन का उचित सम्मान देने की सीख देने में वे असफल रहे। जवान बेटा दिन भर क्या करता है? किसके साथ घूमता है? उसकी क्या जरूरतें है? और वह आगे क्या करना चाहता है? कभी मां-बाप ने जानने समझने की कोशिश नहीं की।


समाज भी इन लड़कों को सही रास्ता दिखाने में असफल रहा। जो चाहा इन्हें करने दिया गया। कहीं कोई रोक टोक नहीं हुई। इसी वजह से ये लड़के बुलंद इरादें लेकर आगे बढ़ते रहे। जहां अनेक बुराईयां इन्हें पोषित करती रही।


सर्वाधिक निक्कमा और कामचोर इन्हें सरकारी तंत्र ने बनाया। ये काम मांगने गये तो इन्हे बताया गया अभी कोई नौकरी नहीं है। घर बैठो। हमारी सरकार तुम्हे बेरोजगारी भत्ता देगी। राशन-पानी और बिजली फ्री में देगी। 


नौजवानों को ओर क्या चाहिये था। खाना-पीना और जीना सबकुछ फ्री था। अब ये आवारा गर्दी नहीं करेंगे तो फिर क्या करेंगे?


बेरोजगारी की मार झेल रहे कुंवारों को अपनी लड़की कौन देता? जवानी का जोश में अंधे इन लोगों को कहीं तो अपनी प्यास बूछानी थी। सो मौका मिलते ही इन्होंने अपनी हवस को मिटा लिया। सुगंधा न होती तो कोई दूसरी लड़की होती। इस केस के पहले भी कितनी सुगंधा कुचलती आई है आगे भी कुचलती जायेंगी।


सजा केवल अपराधीयों को होती है जबकी देश काल और परिस्थितियां भी इसकी समान रूप से जिम्मेदारी होती है। केवल अपराधियों को सजा देने से स्थिति नहीं सुधर सकती। दोषियों के साथ समाज और सत्ता को समान रूप से सजा देना चाहिए। सिस्टम में कुछ सुधर तो अवश्य होगा।


सुगंधा को न्याय तो मिला। लेकिन उसके अनुसार नहीं। लेकिन हां! सुगंधा की मांग पर देशभर में चर्चा अवश्य शुरू हो गयी। वह इसे अपनी पहली सफलता के रूप में देख रही थी। कंधे पर बेग टाँगे सुगंधा फिर रात वाली टीचर बनकर घर से निकल पड़ी शिक्षा का उजियारा फेलाने के लिए। 


लेखक-

जितेन्द्र शिवहरे इंदौर

7746842533

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