सास-बहू
सास-बहू
----------
✍️जितेन्द्र शिवहरे, इंदौर
सुख्मणी का विलाप बिना रुके जारी था। आत्माराम समझा-समझा कर थक चूके थे। सायंकाल के समय दोनों मंदिर की सीढ़ीयों के निकट बैठे अपने भाग्य को कोस रहे थे।
बाबाराम वहां पहूंचे।
"क्यों विलाप करती हो मां! मुझे बताओ। मन हल्का हो जायेगा।" बाबाराम ने पूंछा।
बुजूर्ग की स्नेह भरी वाणी ने सुख्मणी को सांत्वना दी। वह उठी।
"आपको मेरे बेटे ने भेजा है न! मैं जानती थी मुन्ना मेरे बिना नहीं रह सकता।" सुख्मणी बाबाराम से बोली।
"हां! मुझे उसी ने भेजा है! देखो, खाने-पीने की कितनी चीजें दी उसने आप दोनों के लिए।" बाबाराम कंधे पर टंगा कपड़ें का झौला खोलकर भोजन निकालते है।
भोजन का स्वाद लिए तीन हो गये थे। आत्माराम और सुख्मणी ने छंककर भोजन किया। पेट के साथ आत्मा भी तृप्त हो गयी।
"चलो जी। मुन्ना ने बुलाया है। अब उस चुड़ैल को हम घर से निकाल बाहर कर देंगे।" सुख्मणी का उत्साह देखते ही बनता था।
अनुभवी आत्माराम जान चूके थे। बाबाराम का झूठ उनसे छिप न सका।
बाबाराम पेड़ की छांव में बैठ गये।
"बाबा! आपने झूठ क्यों बोला?" आत्माराम ने पूंछा।
बाबा मंद ही मंद मुस्कुरा रहे थे।
अब तक सुख्मणी भी सच जान चूकी थी। उसकी आंखें पुनः भीग गयी।
"माता! व्यर्थ का संताप न करों। होनी को कौन टाल सकता है।" बाबाराम बोले।
"लेकिन बाबा! मैंने ऐसा कौन सा पाप किया था जिसकी इतनी बड़ी सजा मिल रही है?" सुख्मणी बाबाराम के पैरों में गिर पड़ी।
"आत्माराम! क्या तुम्हें भी पता नहीं चला कि ये सब तुम्हारे साथ क्यों हुआ?" बाबाराम ने पूंछा।
आत्माराम शांत खड़े थे। जैसे उन्हें सच का ज्ञान हो चूका था। वे भी बाबा के पैरों के पास बैठ गये।
"सुख्मणी! जितना दुराचार तुमने अपनी मां समान सास के साथ किया था उसके बदले तुम्हारा दुःख तो कुछ भी नहीं है।" बाबाराम बोले।
सुख्मणी स्तब्ध थी।
जिस रहस्य का उद्घाटन बाबाराम ने किया, उसे दोनों कभी के भूल चूके थे। लेकिन बाबाराम ने पुरानी सभी स्मृतियाँ ताजा कर दी थी।
सुख्मणी मन को मनाने लगी। जिस अमानवीय व्यवहार की वह अधिकारी थी, सौभाग्य से उसे वो अब तक नहीं मिला था।
"लेकिन बाबा! मैंने अपने माता-पिता के कभी कोई दुर्व्यवहार नहीं किया! फिर मुझे अपने ही घर से क्यों निकाला गया?" आत्माराम चिढ़ कर बोले।
"क्योंकि तुमने सच का साथ नहीं दिया। धन कमाने में तुम इतने मग्न थे कि घर में हो रहे अत्याचार को नज़र अंदाज करते चले गये। बीमार माता-पिता की सेवा तुमने नौकर-चाकर से अवश्य करवाई लेकिन कभी दो पल उनके पास नहीं बैठे। वृद्धावस्था में कभी उन्हें प्रेम से भोजन नहीं खिलाया। इसी कारण आज तीन दिन बाद तुम्हें पेट भर खाना मिला।" बाबाराम बोले।
आत्माराम को आत्मज्ञान मिला। सुख्मणी भी स्वयं को दिलासा देने में सफल हो गयी।
"बाबा! लेकिन अब आगे क्या?" आत्माराम ने पूंछा।
"ईश्वर भक्ति में मन लगाओ। पेट भर जाएं बस उतना ही कमाओ।"
"और मुन्ना!" सुख्मणी ने पूंछा।
"यदि तुम्हारे दुध में शक्ति होगी तो वह अवश्य आयेगा। न आये तो यहाँ ऐसे कितने ही बेटे है जो बिन मां-बाप के है।" बाबाराम मुस्कुराते हुये चल दिए।
सुख्मणी की आंखें सूख चूकी थी। आत्माराम यौवनावस्था जितना पराक्रम अनुभव कर रहे थे। मंदिर स्थित देव को प्रणाम कर दोनों एक नयी यात्रा पर निकल पड़े, जहां सभी उनके सगे थे।
-------------------------
बाबाराम अब किससे मिलेंगे? पढ़ीए अगले अंक में..!
✍️जितेन्द्र शिवहरे,इंदौर
मो. 7746842533
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें