अब की होली (कहानी)

अब की होली

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✍🏻जितेन्द्र शिवहरे 


        *सिद्धार्थ* के पहले भी मोहल्ले से कई किरायेदार गये थे लेकिन होली पर ऐसा माहौल कभी नहीं बना। श्रीमान चौकसे के परिवार पर पहली बार उंगली उठी थी। एक जरूरतमंद नौजवान पर भरोसा करना उन्हें भारी पड़ा था।


"अरे! घर की किमती चीजों को तो एक बार देख लो! कहीं उन्हें न ले भागा हो?" ये कमला काकी जी थी, जिनके आगे सबकी बोलती बंद हो जाया करती थी।


घर में सबकुछ पहले की तरह था। श्रीमती चौकसे निश्चिंत थी। मगर वो अपनी बेटी के लिए दु:खी थी।


"धन-दौलत ले जाता तो कोई बात नहीं थी, घर की इज्जत तो न यूं लुट ले जाता!" कमला काकी बोलती जा रही थी।


बगल के पुलिस अंकल भी आ पहुंचे। मगर चौकसे जी एफआईआर लिखवाना नहीं चाहते थे। जितनी बदनामी हो रही थी उतनी ही काफी है। 


"वैसे लड़का था बड़ा होशियार! और मेहनती भी।" 


"हां! देखो न! जब यहां आया था, किराये तक के पैसे न थे।"


"किसी ने भी मकान भाड़े पर नहीं दिया था उसे।"


"और क्या! मंदिर पर परिक्रमा यात्रियों के साथ रात बिताई थी लड़के ने।"


"मगर चौकसे जी ने पता नहीं उसमें क्या देखा! घर के ऊपरी माले पर खोली दे दी।"


"अरे! उनके अपने समाज का था। बस और क्या?"


"भाड़े का मकान क्या मिला, नौकरी भी जल्दी मिल गयी। बस! तब से सिद्धार्थ के दिन पलट गये। एक मामूली सेल्स एक्जीक्यूटीव से सेल्स मेनेजर बन बैठा।"


"अरे! मैंने तो इन्हें मना लिया था। सिद्धार्थ से रेणू बेटी का रिश्ता हो जाता तो बहुत बढ़ीया होता।"


"मगर सिध्दार्थ ने मना क्यों किया?" 


"पता नहीं! मुझे लगता है वह किसी ओर को चाहता था!"


"कौन? क्या निर्मला?" 


"शायद!"


मोहल्लें की इन औरतों की खूंसूर-फूंसूर कौन रोकता? अफवाहों का बाज़ार भी गर्म था।


निर्मला उदास बैठी थी।


श्रीमान चौकसे कुछ तय करने के बाद सिध्दार्थ से मिलने जा पहुंचे।


"अंकल! जिन परिस्थितियों में आपने मेरी मदद की, उसे मैं कैसे भूल जाता?"


ये स्वाभिमानी सिद्धार्थ था।


मगर श्रीमान चौकसे यहां रूकने वाले नहीं थे। उन्होंने हिम्मत का हाथ सिद्धार्थ के कंधे पर रख दिया। उन्हें सबकुछ स्वीकार था।


अब की होली सिद्धार्थ के साथ होगी या नहीं? निर्मला ये सोच कर दु:खी थी। अगले दिन वह स्वयं निर्मला के सामने आ पहूंचा।


"पिछली पांच होली के रंग हमने साथ-साथ खेले है। अब की होली कैसे रह जाती भला?" सिध्दार्थ बोला।


भीगी आँखों से निर्मला सिद्धार्थ की ओर भागी। सिध्दार्ध ने से उसे गले से लगा लिया।


निर्मला की मांग में सिन्दूर की जगह होली का गुलाल चमक रहा था। दोनों के खिलखिलाते चेहरें मोहल्ले की गलियों में होली की धमाल चौकड़ी मचाने निकल पड़े।


समाप्त

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लेखक-

जितेन्द्र शिवहरे इंदौर

7746842533

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