मिशन स्कूल एडमिशन - व्यंग्य

 *मिशन स्कूल एडमिशन (व्यंग्य)*

                    (जितेन्द्र शिवहरे, इंदौर)

    जुलाई महिने की आहट क्या आयी, घर के सभी खर्चों में कटौती शुरू हो गयी। बच्चों को स्कूल में दाखिल करना था। बड़ी बेटी ने घर पहूंचे स्कूली पम्पलेट जमा कर रखें थे। बहुत छानबीन के बाद एक निजी स्कूल पर आम सहमति बनी। रसोईघर के पारदर्शी डिब्बे इस महिने भी पूरे भरे नहीं जा सके थे। श्रीमती ने उनमें बचा कर रखे गये रूपये बिना कहे मेरे हवाले कर दिये। बेटीयां भी गुल्लक ले आई। मगर ये सब पर्याप्त नहीं था। एडमिशन फिस, ट्यूशन फीस, यूनिफार्म और बुक्स के बाद भी बहुत सारे खर्चे थे। कुछ पुरानी काॅपीयों के रिक्त पन्नों से रफ काम के लिए काॅपीयां तैयार की थी। मगर बच्चें उसे स्कूल ले जाने के लिए तैयार नहीं हुये।

    सफ़र लंबा था और कठिन भी। अधमरे जुते न चाहते हुए भी मेरे साथ घीसने पर विवश थे। मोजें नहीं चाहते थे कि वे जूतों से कभी बाहर निकले। कपड़े रंगहीन होकर भी बदन से लिपटे थे। लेकिन काॅलर पर रफू से अब कोई चमत्कार की उम्मीद नहीं थी। श्रीमती की दैनिक साड़ीयां घर की सेविका सरीखी की हो चली थी। बच्चों के कपड़े खरीदे या उनकी स्कूल यूनिफार्म? दुविधा से भरे इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिला।

पुराने स्कूल बेग की धुलाई सावधानी की गयी ताकी उसे और अधिक नुकसान न हो। मगर उस पर अनगिनत घाव थे, जिन पर मरहम-पट्टी आवश्यक थी। लेकिन कोई दर्जी उसे सीलने को तैयार न हुआ। एक बमुश्किल राजी भी हुआ तो दूगने दाम पर। बड़ी बेटी के जूते हर बार की तरह छोटी को दे दिये गये।

         कुछ दोस्तों से मदद लेने की सोच ही रहा था कि मेरे ही सामने अन्य ने उनसे सहायता मांग ली। दानवीर ने बताता कि लेने वाले समय पर लौटाते क्यों नहीं? मैं स्वयं डिफाल्टर था, सो निरूत्तर लौट आया। पड़ोसी से मिलने पहूंचा तो वह आगे होकर बोला-"बच्चों के स्कूल एडमिशन ने कंगाल कर दिया है।"

फिर मेरी कुछ मांगने की हिम्मत ही नहीं हुई। रिश्तेदार भी स्कूलों के चक्कर काट रहे थे। उनसे भी क्या कहता? यहां भी चुप हो गया। ऐसे में एक धनाढ्य मित्र की याद आयी। सोचा! वहां काम बन जायेगा। उसके दरवाजे पर लम्बी लाइन थी जहां वह एक अन्य को उपदेश दे रहा था- 'बच्चो को प्राइवेट में नहीं पढ़ा सकते तो सरकारी में भेजों।'

चाय पीकर चुप-चाप लौटने में ही अपनी भलाई समझी। बीवी के गहने इस मुसीबत में काम आ सकते थे। मगर श्रीमती ने बताया की वे तो पहले ही सुनार के यहां रखें है। जिनके ब्याज के रूपये दो महिने से चूकाये नहीं गये है। पाॅलिसी बांड के रुपयों ने चप्पल घिसवा दी। मगर उनके दर्शन नहीँ हुये। मां-बाप को देने के बजाए उनसे मांगने जा पहूंचा। बहुत किरकिरी हुई। मगर दयावान पिघल गये।

स्कूल प्रबंधन ने किसी तरह की कोई रियायत नहीं दी। बल्कि एक चार्ट धमा दिया। जिसमें वर्ष भर की गतिविधियों का जिक्र था। अतिरिक्त कक्षाएं और अतिरिक्त शुल्क का विषय वार ब्यौरा था। भूखों मर के भी शर्तों का पालन आवश्यक था। दाखिले के बाद चैन की सांस ली और बीपी- शुगर की दवा भी।


लेखक-

जितेन्द्र शिवहरे, इंदौर 

7746842533

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