स्वीकार (कहानी) ✍️ जितेंद्र शिवहरे
*स्वीकार (कहानी) ✍️ जितेंद्र शिवहरे*
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*फिर* एक नई सुबह का स्वागत करने के लिए दुनियां तैयार थी। लेकिन ये नया दिन दिव्या के लिए कुछ खास नहीं था। उसके लिए तो वही सुबह अंधेरे में बिस्तर छोड़कर रसोई में चाय-नाश्ता और फिर खाना बनाना। साफ सफाई, पूजा पाठ और जॉब! सब कुछ क्रम से था। घरेलू कामों को करते हुए भी वह हर आधे घंटे में अपना मोबाइल चेक करना नहीं भूलती। जाने कौन-सी अच्छी ख़बर किस समूह में से आ जाएं? रश्मि की बढ़ती उम्र की चिंता और उसके लिए अच्छे रिश्तों की खोज दिव्या के दैनिक अतिरिक्त कार्य थे।
"रश्मि का मन पसंद लड़का, शायद ईश्वर बनाना भूल गया।" फोन पर दिव्या की बुआ थी। जले पर नमक छिड़कना राधा बुआ की पुरानी आदत थी।
दिव्या बोली- "कुछ और जगह बात चल रही है दीदी। इस बार जरूर काम बन जायेगा!"
"तू कहती है तो मान लेती हूं। मगर अब ज्यादा देर करना ठीक नहीं है, समझी!" राधा बुआ फोन रखते हुए बोली।
रश्मि का चेहरा मुरझा रहा था। विष्णु खरे ये जानते हुए भी अनजान बन जाते। उनका शर्मिला स्वभाव इस समय दिव्या को बहुत अखर रहा था। जॉब के साथ नाते- रिश्तेदारों के बीच उठना-बैठना उसके लिए कठिन होता जा रहा था।
सामाजिक लड़के काम न थे। किंतु कोई रश्मि से कम पढ़ा लिखा था तो कोई उससे कम कमाता था। किसी की उम्र बहुत अधिक थी तो कोई बहुत छोटा। रूप- रंग और कद काठी का मिलान भी कभी ठीक-ठाक नहीं बैठा। परजात के नाम से परिवार में भूकंप उठने लग जाते। दूसरे धर्म की बात ही छोड़िए।
रश्मि की सभी सहेलियां ब्याही जा चुकी थी। फिलहाल वह मोहल्ले में एकमात्र कुंवारी थी। हर संडे देखने- दिखाने का सिलसिला जारी था। जिससे रश्मि उकता चुकी थी। कितनी ही बार तो उसने शादी न करने का संकल्प धारण कर लिया। मगर दिव्या के आगे उसकी एक न चली।
पूरब का रिश्ता क्या आया मानो अंधे को दो आंख मिल गई। वह हर तरह से रश्मि के योग्य था। दिव्या ने बिना विलंब के शगुन का लेनदेन करवा के ही दम लिया दिया।
पूरब की आतुरता देखकर रश्मि भाव-विभोर थी। वह पूरब की हो चुकी थी। इसके बाद भी वह चाहती थी की पूरब उससे एक बार मिले। मगर पूरब की आतुरता बस फोन तक सीमित थी। मिलने की बात को लेकर वह कुछ न कुछ बहाना बनाकर हमेशा टाल जाता।
रश्मि का गुस्सा स्वाभाविक था। लेकिन वह अब किसी भी तरह का जोखिम उठाने के मूड में बिल्कुल नहीं थी। दिव्या भी समझती थी की ये रिश्ता कितना जरूरी है। उसने पूरब के माता-पिता से सगाई की तारीख के लिए कहना शुरू कर दिया। मगर श्यामा प्रसाद और उनकी पत्नी अंजली अपने बेटे के निर्णय पर निर्भर थे।
रश्मि को उस समय धक्का लगा जब उसे पता लगा कि पूरब की अधिकतर फ्रेंड्स लड़कियां थी। कहीं कुछ तो था जिसका उसे डर था। और हुआ भी वहीं। न जाने पूरब कहां खो गया? उपेक्षा सह रही रश्मि ने अंततः खुद को समेटना ही उचित समझा। छः माह के वियोग के बाद रश्मि पूरब को भुला चुकी थी। लेकिन उसके प्रति उत्तर अब रोचक होते चले गए। उसकी प्रतिक्रिया सुनकर आभास हो जाता की अब वह कितनी अभ्यस्थ हो चुकी थी।
एक दिन जब रविवार को दिव्या इंटरनेट पर रश्मि के लिए रिश्ता खोज रही थी तब रश्मि ने कहा- " मम्मी! जब बहुत देर हो जाए तब ज्यादा जल्दी करने से कोई लाभ नहीं होता।"
रश्मि का यह कथन सारी परशानी का हल था। जब जल्दबाजी का समय था तब हर काम विलंब से किये
गये और अब हड़बड़ी में काम बिगड़ने लगे है। ये कटु सत्य था।
दिव्या ने लैपटॉप बंद कर दिया। आंखें बंद कर वह सोने चली गई। यह चैन की नींद बहुत सालों बाद आई थी। अब जाकर दिव्या खुद को बहुत ही हल्का अनुभव कर रही थी। परिस्थियां इतनी अधिक सामान्य हो जाएंगी किसी ने सोचा नहीं था।
रश्मि की शादी को लेकर काना- फूंसी करने वाले अब मौन हो चुके थे। उसका जॉब पहले की तरह जारी था। विवाह के प्रस्ताव बंद हो जाना अब उनके लिए कोई दुःख की बात नहीं थी। इतने सालों के बाद भी मां अपनी बेटी के साथ खड़ी थी और बेटी अपनी मां के।
बालों की सफेदी भी रश्मि का आत्मविश्वास कम नहीं कर सकी। क्योंकि उसने अब स्वीकार करना सीख लिया था।
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The End
लेखक ~
जितेंद्र शिवहरे, इंदौर
मो. 7746842533
नमस्कार 🙏
जवाब देंहटाएंबेहतरीन शुरुआत के साथ बेहतरीन और सकारात्मक अंत लिए आपकी कहानी समाज में एक संदेश प्रेषित करती है बहुत बधाई आपको