हरे कांच की चूड़ियां {कहानी} ✍️ जितेंद्र शिवहरे

 

हरे कांच की चूड़ियां {कहानी} ✍️ जितेंद्र शिवहरे


           दिव्यम का उपहार रिद्धिमा सुबह से पांचवीं बार देख चूकी थी। चूड़ियों का लगाव अब पहले की तरह जाग उठा था। ऐसी ही हरे कांच की चूड़ियां अनिकेत भी तो लाया था। लेकिन अनिकेत के जाने के बाद उसने चूड़ियां कभी नहीं पहनी। 


दिव्यम को सारी दुनियां में एक वहीं मिली। यह सोचकर ही वह चीड़ जाती। अनेकों बार की असहमति के बाद भी दिव्यम की हिम्मत नहीं टूटी। अपनों की खुशी के लिए रिद्धिमा दूसरी शादी को अवश्य मान गई किंतु वह चाहती थी दिव्यम स्वयं इस रिश्तें के लिए मना कर दे।


दिव्यम अपने साथ एक उपहार और लाया। विभू को आर्मी की वर्दी क्या दी, चार साल का लड़का मारे खुशी के पूरे घर में दौड़ता दिखा। रिद्धिमा ने झपटकर वर्दी उतार दी। मासूम बिलख पड़ा। बाबूजी के हाथ भी नहीं आया। दादी ने बड़ी मुश्किल से संभाला।


विभू का क्रोध रिद्धिमा से ज्यादा था। उस पूरा दिन वह अपनी मां से नाराज़ रहा। रिद्धिमा हार गई। विभू वर्दी पहनकर फिर खिलखिला उठा।


बर्फ का काला खट्टा गोला परोसा जा रहा था। बाबूजी ने बुलाया है, जानकर रिद्धिमा कुछ नहीं बोली। वर्ना अनिकेत के बर्फ में दफ़न हो जाने बाद से रिद्धिमा ने बर्फ छुआ तक नहीं था। सभी चाहते थे की विभू के लिए रिद्धिमा खुद को बदल लें। और दिव्यम को स्वीकार कर अपना घर फिर से बसा लें। 


रिद्धिमा की एक ही शर्त थी। दिव्यम आर्मी की नौकरी कभी नहीं करेगा। वह तो अपने विभू को भी सैनिक नहीं बनाना चाहती थी। लेकिन उसे खुद के निर्देश पर संदेह था। जब विभू उसकी बात नहीं माना तब दिव्यम कैसे मान जाता।


दिव्यम फौज में जाने के लिए तैयार था। आग का गोला बन चुकी रिद्धिमा ने उसके लिए दरवाजा नहीं खोला। सभी हार गए। जाते हुए वह बस इतना बोला- "जब गुस्सा शांत हो, तब फोन लगाना!"


दिव्यम जा चुका था। रिद्धिमा के साथ ये दूसरी बार धोखा हुआ था। सुबकते हुए वह अनिकेत की तस्वीर के पास जा पहुंची। वह अनिकेत नहीं था, दिव्यम था। रिद्धिमा की आंखें बता रही थी, अनिकेत ही दिव्यम बनकर लौटा है। और ये हरे कांच की चूड़िया अनिकेत ने ही दिव्यम के हाथों भेजी है।


The End

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लेखक ~

जितेंद्र शिवहरे, इंदौर 

Mo.7746842533

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